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संडे व्यू: US में बगावत दिखी अदालत नहीं, वैक्सीन पर विवाद से बचें

संडे व्यू में पढ़ें पी चिदंबरम, टीएन नाइनन और आशुतोष वार्ष्णेय के आर्टिकल.

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संडे व्यू में पढ़िये देश भर के अखबारों के चुनिंदा लेखों का सार  
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संडे व्यू में पढ़िये देश भर के अखबारों के चुनिंदा लेखों का सार  
(फोटो: iStock)

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अमेरिका में बगावत जो विफल हो गयी

द इंडियन एक्सप्रेस में आशुतोष वार्ष्णेय ने लिखते हैं कि अमेरिका में विफल हुई बगावत में सेना शरीक नहीं रही, बल्कि कार्यपालिका का एक तबका शरीक था, जिसका नेतृत्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किया. वहीं, चुनाव आयोग जैसी संस्था के अभाव में जनता के फैसलों को सम्मान देने की व्यवस्था जो अमेरिका में है, उसकी भी कमियां उजागर हो गयीं. पूरे प्रकरण में अदालत की गैरमौजूदगी चौंकाने वाली रही.

वार्ष्णेय लिखते हैं कि अमेरिका में हुई बगावत श्वेत वर्चस्व की सोच और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को पद से हटने के बाद जेल जाने के डर का नतीजा तो है ही, यह विकसित लोकतंत्र में संस्थाओं के मजबूत होने और सत्ता से बाहर होने के बाद होने वाले भारी नुकसान से भी जुड़ा है.

कम विकसित लोकतंत्र में यह खतरा नहीं दिखता है. इस बात के पूरे आसार हैं कि डोनाल्ड ट्रंप को बगावत की सजा मिले. उन्हें 2024 के राष्ट्रपति चुनाव से बाहर रहना पड़ सकता है. महाभियोग का भी सामना करना पड़ सकता है. सीनेट के स्पीकर नेन्सी पेलोसी की ओर से ऐसे संकेत दिए जाने लगे हैं.

वार्ष्णेय ने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया है कि ज्यादातर रिपब्लिक राजनीतिज्ञों ने डोनाल्ड ट्रंप को शुरुआती समर्थन देने के बाद आखिरकार वे पीछे हट गए. वाइस प्रेसिडेंट ने जब ट्रंप का साथ नहीं दिया तो वे बौखला गए. रिपब्लिकन पार्टी के कब्जे वाले एरिजोना और जॉर्जिया जैसे प्रॉविंस के गवर्नर भी डोनाल्ट ट्रंप के साथ चलने को तैयार नहीं हुए. अमेरिकी अदालतों में दायर कुल 60 मुकदमों में सिर्फ एक में सिर्फ एक में डोनाल्ड ट्रंप की जीत का जिक्र करते हुए लेखक ने अंत में गंभीर टिप्पणी की है. उन्होंने लिखा है कि जब कभी भी इतिहास लिखा जाएगा तो अदालत की भूमिका देखी जाएगी, जो देश के चुनाव की पवित्रता की रक्षा कर पाने में विफल रही.

वैक्सीन पर विवाद से बचने की जरूरत

पी चिदंबरम द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि कोरोना के टीके तैयार हैं, लेकिन घर-घर नहीं पहुंचे हैं और महामारी जाती हुई लग रही है, लेकिन गयी नहीं है. ऐसे में छह टीके दुनिया भर में मंजूर कर लिए गए हैं. रूस और चीन के टीकों को दीर्घकालिक नियामकीय मंजूरी मिल चुकी है. बाकी बचे चार टीकों में फाइजर की दिलचस्पी भारतीय बाजार में नजर नहीं आती, जो विशेषज्ञ समिति के सामने पेश होने के तीन अवसर गंवा चुकी है. एक और टीका मॉडर्ना ने अब तक भारत में मंजूरी के लिए आवेदन नहीं किया है.

चिदंबरम लिखते हैं कि ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका का कोविशील्ड ने निर्माण और वितरण की परीक्षा पास कर ली है. बायोटेक का कोवैक्सीन भी उपलब्ध है जिसने तीसरे चरण का ट्रायल पूरा नहीं किया है. बायोटेक से जुड़े टीके कोवैक्सीन पर विवाद को बेवजह बताते हुए चिदंबरम लिखते हैं कि ऐसे विवादों से बचा जाना चाहिए.

लेखक की सलाह है कि सरकारी अस्पतालों और टीकाकरण केंद्रों में टीका मुफ्त में मिलना चाहिए. निजी अस्पतालों को भी टीकाकरण में शामिल किया जाना चाहिए ताकि लोग सशुल्क भी टीके लगवा सकें. टीकों का निर्यात हो रहा है तो आयात भी हो. हमें अपने वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं पर भरोसा रखना चाहिए. जीत जीवविज्ञान की ही होगी.

अंतरधार्मिक विवाह से यूपी में ही हंगामा क्यों?

इंडिया फोरम में ज्योति पुनवानी लिखती हैं कि उत्तर प्रदेश में हिंदू-मुस्लिम दंपतियों की जिंदगी ऐसी हो गयी है, जैसी पहले कभी नहीं थी. तीन अन्य प्रदेशों में भी धर्मांतरण से जुड़े कानून हैं, लेकिन यूपी के नए कानून ने जैसी स्थिति पैदा की है वह अभूतपूर्व है. हिंदू लड़कियों के मुस्लिम युवक से विवाह को लेकर ‘जबरन धर्मांतरण’ रोकने की कोशिश तीन साल पहले शुरू हुई थी, जब राजस्थान हाईकोर्ट ने 10 दिशा निर्देश दिए थे.

ज्योति लिखती हैं कि यूपी के कानून में मूल रूप से कई दिक्कतें हैं. यह कानून “शादी के मकसद से धर्मांतरण” को अपराध बताता है. वहीं उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कानून “धर्मांतरण के मकसद से शादी” को गलत बताता है. लेखिका का सवाल है कि कैसे कोई शादी केवल धर्मांतरण के मकसद से हो सकती है?

वह लिखती हैं कि इस सोच का जन्म ही इस धारणा के साथ हुआ है कि मुसलमानों की आबादी बढ़ाने के मकसद से मुस्लिम युवक हिंदू युवती से शादी करते हैं. ज्योति लिखती हैं कि यूपी का धर्मांतरण विरोधी कानून पुलिस को मनमानी की पूरी इजाजत देता है. जहां उत्तराखंड और हिमाचल में अभियोजन प्रक्रिया शुरू करने से पहले डीएम की अनुमति को जरूरी बताता है, वहीं यूपी में यह परत खत्म कर दी गयी है. यही वजह है कि यूपी में 4 जनवरी तक सामने आए सभी 15 मामले सवालों के घेरे में हैं.

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सारी गंदगी मिटा देगा किसान आंदोलन

जस्टिस (रि) मार्कण्डेय काटजूजनसत्ता में लिखते हैं कि किसानों का आंदोलन सामंती सोच और प्रथाओं की सारी गंदगी को मिटा देगा. यह एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करेगा जिसके तहत भारत तेजी से औद्योगिकीकरण की ओर बढ़ेगा और लोगों को उच्च जीवन स्तर के साथ सभ्य और समृद्ध जीवन मिलेगा.

काटजू लिखते हैं कि काफी समय तक भारत में ज्यादातर आंदोलन धर्म आधारित या जाति आधारित आंदोलन थे- जैसे राम मंदिर आंदोलन, सीएए विरोधी आंदोलन या गुर्जर, जाट अथवा दलित आंदोलन.

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना का आंदोलन जल्द ही ठंडा पड़ गया. भारतीय विचारकों को दशकों तक कोई समाधान नहीं मिल पाने की यही वजह थी. अब किसान आंदोलन हल बनकर सामने आया है. इसने जाति और धर्म की बाधाओं को तोड़ दिया है. किसान आंदोलन को देश के 75 करोड़ किसानों का समर्थन प्राप्त है. भारतीय सेना, अर्धसैनिक और पुलिसकर्मियों का समर्थन भी इस आंदोलन को है जो वर्दी में किसान या किसानों के बेटे हैं.

निजी बैंक ही करेंगे बैंकिंग सेक्टर का उद्धार

टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि भारत के बैंकिंग सेक्टर को निजी बैंक ही संभाल सकते हैं. सरकारी बैंकों के मुकाबले निजी बैंकों में शुद्ध ब्याज मार्जिन बेहतर है. निजी बैंकों में यह 3.4 है जो सरकारी बैंकों में 2.4 है. इसी तरह निजी बैंकों में लागत 8.7 फीसदी है तो सरकारी बैंकों में 13.8 प्रतिशत. नाइनन लिखते हैं कि बीते पांच सालों में सरकारी बैंक जहां पैसा गंवाते रहे हैं, वहीं निजी बैंक मुनाफे कमाते रहे हैं. वे लिखते हैं कि कोविड काल के बाद सरकारी बैंकों का घाटा और बढ़ेगा.

सरकारी बैंकों में जीडीपी के मुकाबले उधारी का अनुपात पिछले कुछ साल में 60 से घटकर 50 प्रतिशत हो गया है. इसका मतलब यह है कि संकट के समय में इसने अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से नहीं निभायी है. वहीं निजी बैंकों के साथ स्थिति उलट है. केंद्र सरकार ने ऐसे कई कदम उठाए हैं जिनसे बैंकिंग सेक्टर में अच्छे नतीजे निकल सकते हैं. इनमें बैंक्स बोर्ड ब्यूरो का गठन, कमजोर बैंकों का मजबूत बैंकों में विलय आदि शामिल हैं. लेखक दिखावे से बचने की सलाह देते हैं. वे लिखते हैं कि समस्याग्रस्त सरकारी बैंकों के उद्धार पर काम करना जरूरी है. बड़े व्यावसायिक घरानों को बैंक के स्वामित्व में आने से रोके रखने की वजह से पूरी जिम्मेदारी निजी बैंकों पर ही है. दो या तीन चरणों में सरकारी बैंकों की बिक्री की जा सकती है. इस दिशा में कदम बढ़ाना होगा.

200 दिन की रोजगार गारंटी से पटरी पर आएगी अर्थव्यवस्था

अर्थशास्त्री अरुण कुमार दैनिक हिन्दुस्तान में लिखते हैं कि कोरोना महामारी की वजह से मौजूदा वित्तीय वर्ष में जीडीपी में 7.7 फीसदी तक की गिरावट का अनुमान पहले से कहीं ज्यादा है. निश्चित रूप से यह कोरोना की महामारी के कारण है. इसमें सुधार तब होगा जब आम लोगों तक रकम पहुंचेगी.

कुमार लिखते हैं कि देश में 1979 से पहले जब कभी भी गिरावट आयी थी, वजह तात्कालिक रही थी. 1951, 1965, 1966, 1971, 1972 और 1979 में पर्याप्त बारिश नहीं होने से विकास दर प्रभावित हुई. 1967-68 में पाया गया कि देश में सूखा आने से कपड़े की मांग घट जाती थी. 1979-80 के बाद अर्थव्यवस्था में सर्विस सेक्टर हावी हो गया. कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी घटती चली गयी और अब यह 13 फीसदी रह गयी है जबकि सर्विस सेक्टर की भागीदारी बढ़कर 55 फीसदी जा पहुंची है.

अरुण कुमार लिखते हैं कि राजकोषीय घाटा पहले से बढ़ा हुआ है. लिहाजा सार्वजनिक खर्च बढ़ाना एकमात्र उपाय नहीं हो सकता. बेहतर यह होगा कि सरकार ग्रामीण योजनाओं का बजट बढ़ाए. इन योजनाओं को विस्तार दे. 100 दिन के बजाए जरूरतमंदों को 200 दिनों का रोजगार दिया जाना चाहिए. अर्थव्यवस्था तभी संभलेगी जब मांग बढ़ेगी. लेखक को उम्मीद है कि टीकाकरण अभियान बढ़ने के साथ-साथ सर्विस सेक्टर भी अपनी पुरानी लय पा लेगा.

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Published: 10 Jan 2021,09:35 AM IST

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