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इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन (आईआरसीटीसी) ने इस हफ्ते की शुरुआत में 47 पेजों के दस्तावेजों के साथ करीब 2 करोड़ ई-मेल भेजा था जिसका शीर्षक था, “मोदी और उसकी सरकार का सिखों के साथ विशेष संबंध. मोदी सरकार की ओर से इस बुकलेट में “सिख समुदाय के समर्थन में” 13 कदम उठाए गये हैं. इन कदमों में ‘करतारपुर साहिब कॉरिडोर’, ‘लंगर पर करों में छूट’, ‘हरमिंदर साहिब के लिए एफसीआरए का रजिस्ट्रेशन’, ‘1984 दंगों के पीड़ितों के लिए न्याय’ शामिल हैं.
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सिखों के बीच केंद्र सरकार की लोकप्रियता पिछले दो दशक में सबसे कम है. इन तथ्यों पर विचार करें-
दिल्ली की सीमा पर विभिन्न राज्यों के किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और उनमें से करीब एक लाख सिख हैं.
साहित्य अकादमी अवार्ड विजेता से लेकर अर्जुन अवार्ड विजेता तक अलग-अलग क्षेत्रों से उपलब्धियां हासिल करने वाली सिख हस्तियां सरकार से हासिल अवार्ड लौटा चुकी हैं.
सिखों के लिए शीर्ष संस्था अकाल तख्त ने मोदी सरकार के कृषि कानूनों की निन्दा की है, आरएसएस को विभाजनकारी बताते हुए उसकी आलोचना की है और यहां इसने तक कि इस साल की शुरुआत में इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग भी की थी.
पंजाबी गायक मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए गाने तैयार कर रहे हैं, कलाकारों ने विरोध प्रदर्शन में सक्रियता से हिस्सा लिया है, सोशल मीडिया के स्टार ऐसे वीडियो पोस्ट कर रहे हैं जिसमें मोदी को बुरा-भला बताया जा रहा है और आम सिख भी अपनी नाराज़गी दिखा रहे हैं.
यह महज किसानों का विरोध प्रदर्शन नहीं है बल्कि प्रदर्शनकारियों को लगातार ‘देश विरोधी’ और ‘खालिस्तानी’ करार दिए जाने के अभियान ने सिखों का दिल तोड़ दिया है.
उनकी पार्टी शिरोमणि अकाली दल (बादल) ने बीजेपी के साथ 23 साल पुराना गठबंधन खत्म कर लिया है. और, पार्टी प्रमुख सुखबीर बादल ने आरोप लगाया है कि ‘वास्तव में टुकड़े-टुकड़े गैंग’ बीजेपी है जो ‘हिन्दुओँ और सिखों को बांटने की कोशिश में जुटी है’.
अब किसानों का विरोध प्रदर्शन सिर्फ सिखों का विरोध नहीं रह गया है. हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड से हजारों किसान भी दिल्ली और आसपास प्रदर्शन कर रहे हैं. कई दूसरे राज्यों के किसान भी उनके आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं.
लेकिन यह साफ है कि सिखों के लिए इस पूरे विरोध प्रदर्शन का मतलब अलग है.
समूचे इतिहास में सिखों ने लगातार तानाशाही शासकों का विरोध किया है और मोदी आज वहीं खड़े हैं जहां चार सौ साल पहले औरंगजेब और चार दशक पहले इंदिरा गांधी खड़ी थीं.
पहले से मुश्किल संबंध को कृषि कानूनों ने कई गुणा खराब कर दिया है। सच्चाई यह है कि सिख कभी मोदी से इतने नाराज नहीं हुए.
सीएसडीएस के प्री पोल सर्वे के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनावों से पूर्व मोदी को सबसे अधिक नापसंद करने वाले सिख थे. यहां तक कि मुसलमानों से भी ज्यादा. सर्वे के मुताबिक 68 फीसदी सिखों ने कहा था कि मोदी को पीएम के तौर पर दोबारा मौका नहीं मिलना चाहिए.
हिन्दुओं में ऐसे लोग 31 फीसदी थे तो 56 प्रतिशत मुसलमानों में और 62 फीसदी लोग ईसाई समुदाय से थे.
51 प्रतिशत हिन्दुओँ के मुकाबले केवल 21 प्रतिशत सिख मोदी को दोबारा पीएम देखना चाहते थे.
असल समस्या यह है कि मोदी, अमित शाह और यहां तक कि आरएसएस ने कभी सिखों को ठीक से नहीं समझा.
प्रतीकात्मक उपाय सिखों पर कम ही असर दिखाते हैं. 1980 के दशक में सिख राष्ट्रपति होने के बावजूद सिख समुदाय में असंतोष कम करने में कोई मदद नहीं मिली. खासकर ऐसे समय में जब सरकार खुलकर अपनी नीतियां सामने नहीं रख सकीं.
हाल-फिलहाल में 2007 और 2012 में कांग्रेस को पंजाब में दो लगातार विधानसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा. यह वह समय था जब पार्टी ने देश को पहला सिख प्रधानमंत्री दिया था. ऐसा नहीं था कि सिख तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को नापसंद करते थे बल्कि बात इतनी सी थी कि प्रतीकवाद का उनके लिए कोई महत्व नहीं था और उन्होंने अपने राज्य के लिए जरूरी बातों पर अपना फैसला सुनाया.
इसकी मूल वजह यह है कि 1984 के सदमे और ऑपरेशन ब्लू स्टार ने बहुसंख्यक नेताओं के प्रति सिखों में जबरदस्त अविश्वास पैदा कर दिया जिनकी कोशिश रहती थी कि केंद्र सरकार का राज्य सरकारों पर प्रभुत्व रहे.
पंजाब और खासकर सिखों के लिए संघीय व्यवस्था बहुत महत्वपूर्ण रहा है. 1973 में भी आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के पीछे मूल सिद्धांत यही था. इससे भी यह पता चलता है कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का सबसे ज्यादा विरोध पंजाब में क्यों दिखा.
मोदी और शाह के बीच तालमेल में कमी का असल कारण सिखों के बारे में आरएएस की विकृत समझ है. आरएसएस के वैश्विक नजरिए में केशधारी हिन्दू सिख हैं या यह हिन्दूवाद का एक पंथ है.
अलग पहचान को मानने से इनकार करना सिखों को बहुत ठेस पहुंचाता है और आरएसएस से उनकी नाराजगी इसी कारण से है. 2004 में अकाल तख्त ने ‘हुकुमनामा’ जारी किया था जिसमें सिखों को आरएसएस से संबंद्ध राष्ट्रीय सिख संगत दूर रहने के निर्देश दिए गये थे और उसे पंथ विरोधी कहा गया था.
आरएसएस के खिलाफ सिख समुदाय की मुख्य शिकायत यह है कि यह सिखों की अलग पहचान मानने से इनकार करता है और सिख गुरुओं खासकर गुरु गोविंद सिंह को खुद से जोड़ता है और उन्हें हिन्दू हस्ती के तौर पर पेश करता है.
कट्टरपंथी हिन्दूवादियों ने ‘सिख-मुगल संघर्ष’ को लगातार हथियार बनाने का प्रयास किया है और सिखों को मुसलमानों के विरुद्ध बनाया है.
बहरहाल अकाल तख्त और एसजीपीसी जैसी सिख संस्थाओं, सिख इतिहासकारों और धार्मिक विद्वानों के साथ-साथ कई आम सिखों ने भी लगातार इस सोच का विरोध किया और इस बात पर जोर दिया कि मुगलों के साथ संघर्ष इस्लाम के विरुद्ध संघर्ष नहीं था बल्कि यह अत्याचार का विरोध था.
इस तरह स्वतंत्र भारत के संदर्भ में सिखों के लिए इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरेंद्र मोदी मुगलों की तरह हो सकते हैं न कि भारतीय मुसलमान.
ज्यादातर सिख नहीं चाहते कि कोई उन पर रौब दिखाए. जब कभी भी मोदी सरकार ने या फिर हिन्दुत्व के पहरेदारों ने किसी अल्पसंख्यक समुदाय को अपना शिकार बनाना चाहा तो सिख ही बचाव के लिए सामने मोर्चे पर नजर आए.
इसका सबूत तब भी मिला जब कश्मीरियों की रक्षा के लिए सिख सामने खड़े दिखे जब पुलवामा हमले के बाद उन पर हमले होने लगे. यहां तक कि सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान भी पंजाब के सिख और किसान समूहों ने मुसलमानों के साथ एकजुटता दिखलायी. ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सिख शरणार्थियों को इस कानून का फायदा मिल रहा था.
अगर सिख किसी अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के लिए उस मामले में भी खड़े हो सकते हैं जिससे उसका कोई लेना देना नहीं है तो यह सोचना मूर्खतापूर्ण है कि जिस मुददे से सीधे किसानों का जीवन जुड़ा है और जो सिख समुदाय का बड़ा हिस्सा है उसके पीछे वे खड़े ना हों.
मोदी सरकार ने सिखों का दिल जीतने के लिए जो एक काम नहीं किया, जो उसे करना चाहिए था वह है- विनम्रता.
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