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कल तक जहां बच्चों की क्लास लगतीं थीं वहां आज स्वादिष्ट मशरूम उगाए जा रहे हैं. शिक्षक, कर्मचारी, रसोइए सभी अच्छे क्वॉलिटी के मशरुम उगाने में लगे हैं. अच्छे मशरूम ज्यादा से ज्यादा तैयार होंगे तभी तो सबको पूरी सैलरी मिलेगी और उनका घर-परिवार चलेगा!
ये सारी स्थिति वैश्विक महामारी कोरोना के चलते लगे लॉकडाउन के कारण स्कूलों के लम्बे समय तक बंद रहने की वजह से पैदा हुई है. क्योंकि स्कूलों में बच्चे नहीं जा रहे तो अभिभावक पूरी ट्यूशन फीस देने से कतरा रहें हैं. स्कूलों के बंद रहने के चलते बच्चे भी हॉस्टल से घर आ चुके हैं. इसने स्कूलों, खासकर आवासीय स्कूलों की पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था को ही बिगाड़कर रख दिया है.
ऐसे में बिहार के स्कूल ने अपने शिक्षकों और कर्मचारियों को समय पर तनख्वाह देने के लिए एक बहुत ही नायब तरीका ढूंढ निकाला है. इस बात पर भरोसा करना थोड़ा मुश्किल जरूर है, लेकिन बिहार की राजधानी पटना से करीब 150 किलो मीटर दूर जमुई जिले में स्थित ये स्कूल कोरोना के चलते बेरोजगार हुए लाखों लोगों के लिए आज वाकई में एक रोल मॉडल बनकर उभरा है.
ये कहानी इसलिए भी जरूरी है कि जमुई शहर स्थित “मणि द्वीप अकादमी” ने लॉकडाउन के चलते पैदा हुई आर्थिक समस्या के आगे सरेंडर करने के बजाय इससे मुकाबला करने की सोची. सभी आधुनिक सुख-सुविधाओं से भरपूर इस स्कूल के सारे 32 क्लासरूम एयर-कंडिशन्ड हैं.
इसे लेकर स्कूल डायरेक्टर अभिषेक कुमार कहते हैं, "लॉकडाउन लगातार बढ़ता जा रहा था, फीस कम आ रही थी और स्टाफ को सैलरी देने में बड़ी परेशानी आ रही थी. स्कूल का भारी भरकम बिजली बिल आ रहा था. हमें लगा कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो फिर तो सब कुछ लुट जाएगा.हमने बड़ी मेहनत से ये स्कूल खड़ा किया था और लोगों का विश्वास जीता था. हमने कुछ करने की ठानी जिससे जल्द से जल्द इस समस्या से निजात पाई जाए." उन्होंने कहा,
स्कूल के डायरेक्टर ने आगे बताया, "सारी जानकारियां इकट्ठा करने के बाद मैंने जुलाई महीने के आखिर में अपने स्कूल के क्लास रूम में मशरूम फार्मिंग शुरू किया. आज ये बिजनेस हमारी संस्था के लिए वरदान बनकर उभरा है. हम अपने सारे शिक्षकों, कर्मचारियों को समय से तनख्वाह दे पा रहे हैं और बच्चों की पढ़ाई भी डिस्टर्ब नहीं हुई है. शिक्षक ऑनलाइन क्लास ले रहे हैं तो नॉन-टीचिंग कर्मचारी मशरूम फार्मिंग में हाथ बंटा रहें हैं. अगर ये काम नहीं करते तो स्टाफ को निकलना पड़ता जिसका समाज में काफी बुरा मैसेज जाता और उनका परिवार भी तबाह होता."
अपने अनुभव को विस्तार से साझा करते हुए अभिषेक कहते हैं, "इसका (मशरुम फार्मिंग) इकॉनमिक मॉडल जबरदस्त है. कोई भी व्यक्ति जिनके पास मात्र 10,000 की पूंजी हो और एक छोटा सा कमरा हो वो इस पूंजी को डेढ़ से दो महीने में सीधा 30,000 में कन्वर्ट कर सकता है. इतना अच्छा रिटर्न और कोई बिजनेस नहीं दे सकता. अभी इस स्कूल के पांच कमरों में प्रति महीने करीब 250 से 300 किलो मशरूम तैयार हो रही है, जिससे इस स्कूल को करीब 70,000 से 75,000 रुपये की कमाई हो जाती है, जबकि स्कूल का लक्ष्य प्रति महीने कम से कम 1,000 किलो मशरुम पैदा करने का है. ऐसा होने से स्कूल की प्रति माह कमाई कम से कम 2.5 लाख रुपये हो जाएगी."
अपने सफल बिजनेस मॉडल से प्रभावित होकर, स्कूल प्रशासन ने अब बच्चों की क्लास शुरू होने के बाद भी मशरुम की खेती जारी रखने का फैसला किया है. अभिषेक कहते हैं,
अभिषेक के अनुसार, उनके स्कूल में तैयार ताजे मुशरूम की लोकल मार्केट में काफी अच्छी डिमांड है. उन्होंने कहा, "अभी स्थिति ये है कि हम मार्केट की डिमांड को पूरा भी नहीं कर पा रहे हैं. सबसे अच्छी बात ये है कि ये न केवल कम समय में तैयार होता है बल्कि पौष्टिक भी है जो इंसान की इम्युनिटी पावर को बढ़ाता है."
अभिषेक जैसे बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिन्होने कोरोना के सामने हथियार नहीं डाला बल्कि उससे लड़कर जिंदगी को और खुशनुमा बनाने की सोची. एक ऐसे ही शख्स हैं पटना के राजू चाटवाला जिसने अपना बिजनेस ही बदल डाला. कोरोना काल में लोगों ने जब राजू के ठेले पर चाट खाना बंद कर दिया तो वो निराश होकर घर पर नहीं बैठ गए, बल्कि उन्होंने अपने उसी ठेले पर ताजी-हरी सब्जियां बेचना शुरू किया. आज उनका परिवार आराम से चल रहा है.
नेशनल एसोसिएशन ऑफ स्ट्रीट वेंडर्स ऑफ इंडिया के बिहार प्रोग्राम मैनेजर श्याम दीपक के अनुसार कोरोना काल में बिहार में करीब 15,000 वेंडर्स ने अपने पहले के व्यवसाय को चेंज किया है. ज्यादा लोग आज सब्जियां बेच रहे हैं क्योंकि इसकी जरूरत तो हर किसी को है. दीपक के अनुसार बिहार में करीब 64,000 रजिस्टर्ड स्ट्रीट वेंडर्स हैं जो तरह-तरह के रोजगार करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं.
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