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नेपाल की राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी ने गुरुवार को देश के नए राजनीतिक नक्शे से संबंधित संविधान संशोधन बिल पर हस्ताक्षर कर दिए. इससे कुछ घंटे पहले ही नेपाल की संसद ने इसे मंजूरी दी थी.
भारत ने कहा था कि “कृत्रिम रूप से क्षेत्र के विस्तार” को सहन नहीं किया जाएगा. भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा था कि नेपाल के संशोधित नक्शे में भारतीय क्षेत्र के कुछ हिस्सों को शामिल किया गया है और काठमांडू को इस तरह के ''अनुचित मानचित्रीकरण दावे'' से बचना चाहिए.
चलिए, भारत और नेपाल के बीच इस सीमा विवाद को विस्तार से समझते हैं.
इस सीमा विवाद की जड़ में एक 338 वर्ग किमी की पट्टी है, जो भारत, नेपाल और चीन के बीच के ट्राइजंक्शन पर स्थित है. इसी ट्राइजंक्शन क्षेत्र में लिम्पियाधुरा दर्रा, लिपुलेख और कालापानी स्थित हैं.
इस पूरे विवाद को समझने के लिए, हमें यह समझना होगा कि नेपाल की सीमाएं सुगौली की संधि, 1816 के अनुसार (जिसके तहत देश की सीमाओं का सीमांकन किया गया था) नदियों द्वारा परिभाषित की गई हैं.
यह संधि नेपाल के गोरखा साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच युद्ध के बाद हुई, जो दो साल तक चला था. इस संधि के तहत, जब सीमाओं को चिह्नित किया गया था, यह तय किया गया था कि पश्चिमी तरफ काली नदी सीमा को चिह्नित करेगी, जबकि पूर्वी तरफ, मेची नदी सीमा होगी.
जब एक नदी देश की सीमा बन जाती है, तो नदी की उत्पत्ति वाली जगह अहम हो जाती है. सुगौली संधि में, नेपाली पक्ष और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने किसी भी नक्शे पर हस्ताक्षर नहीं किए.
ब्रिटिश ईस्ट इंडियन कंपनी के नक्शे (संधि के बाद के सालों में) दिखाते हैं कि काली नदी का उद्गम पश्चिमी तरफ लिम्पियाधुरा दर्रे के पास था.
हालांकि, अगले कुछ सालों में, इस दर्रे के व्यापार के महत्व को समझते हुए, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने सीमाओं को कालापानी के पूर्व में शिफ्ट कर दिया. नेपाल ने कोई आपत्ति नहीं जताई और समय के साथ यह भारत और नेपाल के बीच की सीमा बन गई.
सौ सालों से भी ज्यादा समय से भारत और नेपाल के बीच इस ट्राइजंक्शन को लेकर कोई विवाद नहीं था. असल में, चीन के साथ 1962 के युद्ध के दौरान, भारत ने चीनी आक्रामकता का अंदाजा लगाने के लिए इस ट्राइजंक्शन पर सैनिकों को भी तैनात किया था. अब भी, भारतीय सैनिकों की तैनाती वहां कई हिस्सों में जारी है. इसी तरह मानसरोवर जाने वाले तीर्थयात्री लिपुलेख दर्रे से होकर जाते हैं.
मगर 1990 के दशक में स्थिति बदल गई जब नेपाल एक राजशाही से लोकतांत्रिक व्यवस्था की तरफ चला गया. नवनिर्वाचित सरकार ने इस ट्राइजंक्शन को लेकर भारत से आपत्ति जताई.
तब से, भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद एक गंभीर मुद्दा रहा है. इसे हल करने की कोशिश में, 2000 में, तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सीमा पर क्षेत्र सर्वेक्षण करने पर सहमति जताई थी. हालांकि, यह प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ी क्योंकि भारत ने प्रक्रिया खत्म होने तक सैनिकों को ट्राइजंक्शन से हटाने से इनकार कर दिया था.
इसी तरह, 2015 में, भारत और चीन दोनों देशों के बीच व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए लिपुलेख का इस्तेमाल करने पर सहमत हुए. तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला ने इस समझौते पर कड़ी आपत्ति जताई.
पांच साल बाद, भारत और नेपाल के बीच विवाद फिर से शुरू हो गया है. नेपाल द्वारा अपनी सीमा पर सशस्त्र पुलिस तैनात करने के कुछ दिनों बाद, एक भारतीय नागरिक गोलीबारी की घटना में मारा गया. इसके अलावा, नया नेपाली नक्शा नेपाल की सीमाओं के भीतर भारतीय क्षेत्र को दिखाता है.
भारत के लिए, चीन के खिलाफ रक्षा की दृष्टि से यह ट्राइजंक्शन रणनीतिक रूप से अहम है. साथ ही, नेपाली सरकार के लिए, जिसे देश में COVID-19 स्थिति के कुप्रबंधन को लेकर आलोचना का सामना करना पड़ रहा है, इस 'राष्ट्रवादी लड़ाई ’को जीतना राजनीतिक स्थिरता के लिए अहम है.
बहुत से लोग मानते हैं कि दोनों देशों के बीच डिप्लोमैटिक बातचीत से स्थिति को हल किया जा सकता है. हालांकि, सीमा विवाद के इस दौर में स्थिति काफी खराब हो गई है, ऐसे में इस बात को लेकर चिंताएं हैं कि यह विवाद कब तक चलेगा.
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