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23 अगस्त की शाम 6:04 बजे जब लाखों भारतीयों ने भारत के चंद्रयान-3 (Chandrayaan-3) मिशन के विक्रम लैंडर (Vikram Lander) को चांद के दक्षिणी ध्रुव पर कामयाबी से लैंड होते देखा तो यह एक ऐतिहासिक लम्हा था.
भारत न सिर्फ चांद की सतह पर कंट्रोल्ड लैंडिंग करने वाला चौथा देश (संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और पूर्व सोवियत संघ के बाद) बन गया है, बल्कि यह चांद के दक्षिणी ध्रुव पर, जहां तक कोई नहीं पहुंचा था, वहां लैंडिंग करने वाला पहला देश बन गया.
चांद का दक्षिणी ध्रुव (moon's south pole) एक ऊबड़-खाबड़ इलाका है, जहां गहरे गड्ढे स्थायी रूप से अंधेरे में रहते हैं, और जहां ‘कोल्ड ट्रैप’ (cold trap) नाम की बर्फ की संभावित मौजूदगी से भविष्य के मिशन के लिए पानी, ऑक्सीजन और फ्यूल मिल सकता है.
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि भारत की अंतरिक्ष एजेंसी, ISRO को कामयाबी, रूस के दशकों बाद लांच किए गए पहले मून मिशन स्पेसक्राफ्ट लूना 25 (Luna 25) के चंद्रमा की सतह पर दुर्घटनाग्रस्त होने के कुछ दिनों के अंदर मिली है.
आखिर दुनिया के देश चंद्रमा की ओर क्यों भाग रहे हैं? इसका क्या असर हो सकता है?
द क्विंट ने आपके लिए इसे समझने को विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और प्रोफेसरों से बात की.
20वीं सदी के मध्य में द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद एक नई तरह की लड़ाई शुरू हुई— शीत युद्ध (The Cold War). इसने लोकतांत्रिक, पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका को साम्यवादी सोवियत संघ के सामने लाकर खड़ा कर दिया. 1950 के दशक से दोनों महाशक्तियां इस बात को लेकर कड़ी प्रतिस्पर्धा में उलझी हुई थीं कि आउटर स्पेस पर पहले कौन जीत हासिल करता है.
चंद्रमा को लेकर रिसर्च पर रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका का शुरू से कब्जा रहा है, मगर हाल के सालों में कई और देश इस दौड़ में शामिल हुए हैं.
एक्सपर्ट्स का कहना है कि खासतौर से दो देशों पर नजर रखने की जरूरत है– भारत और चीन.
नई दिल्ली में विज्ञान प्रसार के वैज्ञानिक डॉ टी वेंकटेश्वरन ने द क्विंट को बताया कि पिछले पांच सालों में, “चंद्रमा पर खोज की कोशिशें दोबारा शुरू” हुई हैं, और ऐसी सात हाई-प्रोफाइल कोशिशों में से सिर्फ तीन कामयाब हुई हैं— चीन की दो और भारत की एक.
उन्होंने द क्विंट से कहा, “यह बताता है कि दो देश– चीन और भारत– जिनके पास 1970 के दशक तक ठीक से कोई स्पेस एजेंसी भी नहीं थी, अचानक चमकते सितारे बन गए हैं. यह स्पेस डिप्लोमेसी में बदलते समीकरणों का एक अच्छा उदाहरण है.’’
संयुक्त राज्य अमेरिका में नेब्रास्का कॉलेज ऑफ लॉ में स्पेस लॉ के प्रोफेसर डॉ. फ्रैंस जी वॉन डेर डंक ने द क्विंट से कहा कि मून मिशन “एक राष्ट्र के लिए प्रतिष्ठा की बात” है.
डॉ डंक कहते हैं, “इस बात से किसी खास देश या संस्था के आर्थिक, वाणिज्यिक और साथ ही स्ट्रेटजिक हितों को फायदा होगा अगर वे वहां पहले पहुंचने में कामयाब होते हैं, और फिर इस लिहाज से असरदार स्थिति में होंगे.”
मुंबई में होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन (HBCSE) के एसोसिएट प्रोफेसर अनिकेत सुले कहते हैं, ऐसे मिशन का मकसद “बातचीत के दौरान हिस्सेदारी का दावा करना” है.
तीनों एक्सपर्ट का द क्विंट से कहना था कि कोई देश अगर मून मिशन की दिशा में काम कर रहा है तो उसके पास स्पेस डिप्लोमेसी में बेहतर सौदेबाजी की ताकत होगी.
वाशिंगटन डीसी में नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (NASA) के प्लेनेटरी साइंटिस्ट डॉ. अमिताभ घोष इससे सहमत नहीं हैं. वह कहते हैं, “स्पेस मिशन का भू-राजनीति से कोई रिश्ता नहीं है.”
वह कहते हैं, “भारत को सिर्फ इसलिए कुछ नहीं करना चाहिए क्योंकि चीन या अमेरिका कुछ कर रहे हैं.”
डॉ डंक बताते हैं, कानूनी तौर पर कहें तो आउटर स्पेस संधि के अनुसार चंद्रमा के उपनिवेशीकरण की अनुमति नहीं है.
लेकिन, क्या अब संधि पर दोबारा विचार करने का समय आ गया है?
टेक स्टार्टअप ब्लू हालो (Blu Halo) के CEO विवेक दौलतानी, जो स्पेस लॉ के एक्सपर्ट हैं, द क्विंट से कहते हैं, “यह देखते हुए कि आने वाले समय में इंसानी बस्तियां बनना स्वाभाविक है, मौजूदा हालात में ‘आधी सदी पुरानी’ संधि का नवीनीकरण और इसे और ज्यादा व्यावहारिक बनाना जरूरी हो गया है. हालांकि भू-राजनीतिक मुद्दों को देखते हुए यह मुश्किल है. लेकिन चंद्रमा या किसी दूसरे खगोलीय पिंड पर विवादों से बचने के लिए ऐसा करना जरूरी है.”
दौलतानी का कहना है कि चंद्रयान-3 की कामयाबी “दूसरे देशों के लिए वहां पहुंचने की जरूरत” की ख्वाहिश जगाती है.
वह द क्विंट को बताते हैं, “भारत के लिए, यह एक रणनीतिक कदम है. यह वह इलाका है जहां चंद्रयान-1 ने पानी की खोज की थी. मौजूदा मिशन मिनरल्स और एलिमेंट्स का पता लगाने के लिए मिट्टी के नमूनों की जांच करेगा. यह डेटा भविष्य के मिशंस के लिए एक अनमोल इनपुट होगा. अगर हमें इंसानी बस्तियां बनानी हैं तो हमें इसी क्षेत्र में जाना होगा. और भारत पहले से ही यहां है.’’
डॉ टी वेंकटेश्वरन के मुताबिक, देशों को अंतरिक्ष से जुड़े मिशनों के लिए वैज्ञानिक नजरिये से एक-दूसरे से सहयोग करने के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए.
वह कहते हैं, “आपने 60 के दशक में कभी नहीं सोचा होगा कि अमेरिका जैसी महाशक्ति को अंतरिक्ष संबंधी समझौते पर दस्तखत करने के लिए देशों से बात करनी पड़ेगी.”
डॉ. डंक ने द क्विंट को बताया, “इनमें से कुछ देशों के मिशन कामयाब होने की उम्मीद है, लेकिन यह निश्चित रूप से प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देगा– जो हमेशा दोस्ताना नहीं हो सकती है. हथियारबंद लड़ाइयों की बात छोड़ दें, तो भी सवाल है कि क्या असल लड़ाइयां होंगी, यह एक और सवाल है.
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