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शायद ये ऑरिजनल स्क्रिप्ट है जिसके आधार पर पूरी दुनिया में कोरोना महामारी से लड़ने के तौर तरीके की रूपरेखा तय की गई. मेरा मतलब इंपीरियल कॉलेज लंदन के उस पेपर से है जिसमें कोरोना से होने वाले भयावह नुकसान का अनुमान लगाया गया था और इससे निपटने के तरीके सुझाए गए थे.
16 मार्च को छपे इस पेपर में अनुमान लगाया गया कि वायरस बगैर रोक-टोक फैलता रहा तो अमेरिका में 20 लाख से ज्यादा मौंते हो सकती है और ब्रिटेन में यह आंकड़ा 5 लाख को पार कर सकता है. लेकिन अगर लॉकाडाउन जैसे कड़े फैसले लिए जाते हैं तो वायरस का ट्रांसमिशन कम होगा और दोनों देशों में मौत के आंकड़े में 50 परसेंट तक की कमी आ सकती है. 50 परसेंट कमी के बावजूद वो आंकड़ा काफी बड़ा ही रहने वाला है.
इस पेपर में कहा गया है कि कोरोना संकट 1918 के बाद की सबसे बड़ी महामारी है. 1918 में महामारी रोकने के लिए अमेरिका के कुछ शहरों में लॉकडाउन जैसे कुछ फैसले- जिनमें क्लब, चर्च, पब, स्कूल-कॉलेज को बंद करना शामिल था- लिए गए थे. जब तक पाबंदी रही, वायरस कंट्रोल में रहा. पाबंदी हटते ही फिर से वही हालात. इसीलिए पेपर में कहा गया है कि लॉकडाउन वायरस संकमण को रोकने में कामयाब हो, इसके लिए जरूरी है कि ये तब तक रहे जब तक की वायरस की वैक्सिन या दवा नहीं खोज ली जाती है.
इस पेपर को प्रकाशित हुए 1 महीने से ज्यादा हो गया. तब से जिस तरह के हालात बने हैं उससे लगता है कि या तो वायरस उतना खतरनाक नहीं है, जैसा सबको डर था. या फिर उतने डरावने अनुमान की कोई जरूरत ही नहीं थी. जहां एक ही देश यानी अमेरिका में 20 लाख से ज्यादा मौत की आशंका थी वहां लगता है कि पूरी दुनिया में यह आंकड़ा पांच लाख से भी काफी कम ही रह सकता है. उम्मीद है काफी कम. वायरस अपने आप में इतना खतरनाक नहीं है इस बात का संकेत इससे भी मिलता है कि यूरोप में इसकी वजह से हर 10 में से 8 मौत ऐसे लोगों की हुई है जिनको पहले से कोई बीमारी थी. और मरने वालों में 50 परसेंट से ज्यादा लोग 80 साल के ऊपर के थे.
अमेरिका में भी कमोबेश यही हाल रहा है. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक न्यूयॉर्क में कोरोना से पीड़ित अस्पताल में भर्ती होने वालों में सभी वही थे जिनकी पहले से एक कोई क्रोनिक बीमारी रही हो. और 88 परसेंट मामलों में तो दो-दो क्रोनिक बीमारी. यह भी इस बात का ही साफ संकेत देता है कि कोरोना उतना खतरनाक नहीं है जितना इसे पहले माना गया था. एक तर्क ये दिया जा सकता है कि चूंकि पूरी दुनिया में समय से लॉकडाउन लागू हो गया, इसीलिए वायरस कंट्रोल में होता दिख रहा है. हो सकता है कि ये बात सही हो. लेकिन लॉकडाउन तभी कारगर हो सकता है अगर ये लगातार लागू रहे. तो क्या दुनिया का कोई भी देश 12 से 18 महीने के लॉकडाउन के लिए तैयार है?
अब वहां के हालात पर भी एक नजर डालतें हैं जहां 76 दिन के लॉकडाउन के बाद थोड़ी छूट दी गई है. सीएनएन की एक रिपोर्ट के मुताबिक ह्यूबई, जिसकी राजधानी वुहान है, में लॉकडाउन में तो छूट दी गई है लेकिन सारी गतिविधियां अब भी पूरी तरह से ठप है क्योंकि लोगों को डर है कि कोरोना वायरस अब भी आसपास ही घूम रहा है और कभी भी वापस आ सकता है. लॉकडाउन की वजह से चीन के इस प्रांत की अर्थव्यवस्था में पहली तिमाही में 40 परसेंट की कमी आई. अब रिकवरी तो दूर लोग नॉर्मल होने को तैयार नहीं है. शायद पूरे समुदाय को वायरस के डर ने गहरा सदमा पहुंचा दिया है.
ह्यूबई से अब भी कुछ मामले आ रहे हैं. और खबर है कि 1 करोड़ आबादी वाले हार्बिन शहर में कई मामले सामने आए हैं और शहर में लॉकडाउन लागू किया गया है.
जो हेल्थ की बात करते हैं वो लॉकडाउन के समर्थन में हैं. और उनके तर्क हम जान ही चुके हैं- संक्रमण को रोकना जरूरी है. इसके लिए कड़ा लॉकडाउन ही एक मात्र रास्ता है. नहीं तो अनर्थ हो जाएगा. उनकी बात का मूल यही है कि संक्रमण रोको वरना... वरना क्या का कोई जवाब नहीं है. और चीन का उदाहरण अगर देखें तो लॉकडाउन संक्रमण को रोक पाता है. यह भी पूरी तरह से तय नहीं है. लेकिन जो तय है वो हमारे आंखों के सामने में दिख रहा है. वो यह है कि लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था को बड़ी चोट पहुंचाई है. कुछ आंकड़ों पर नजर डालिए. ये आंकड़े इकनॉमिक टाइम्स और बिजनेस स्टैंडर्ड से लिए गए हैं-
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