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CJI DY Chandrachud: भारत के नए चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ का अतीत बड़ी उम्मीद जगाता है

CJI DY Chandrachud: निजता, स्वतंत्रता और बोलने की आजादी पर नए चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ के फैसले मील के पत्थर हैं

मेखला सरन
भारत
Published:
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देश के नए CJI डी वाई चंद्रचूड़

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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News CJI DY Chandrachud: फरवरी 2020 में गुजरात हाई कोर्ट में दिए गए एक लेक्चर में जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ (Justice DY Chandrachud) ने असहमति को "लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व" बताया था. उन्होंने आगे कहा था कि : "संवाद और विमर्श के लिए प्रतिबद्ध एक वैध सरकार राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को प्रतिबंधित करने का प्रयास नहीं करती है, बल्‍कि इसका स्वागत करती है."

"कानून के शासन के लिए प्रतिबद्ध सरकार यह सुनिश्चित करती है कि सरकारी तंत्र (राज तंत्र) वैध और शांतिपूर्ण विरोध को रोकने के लिए कार्यरत नहीं है बल्कि विचार-विमर्श के लिए अनुकूल स्थान बनाने के लिए है."
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़

'मीडिया की आजादी के दृढ़ समर्थक...'

उसी साल नवंबर में टीवी न्यूज के क्षेत्र में बडे़ चेहरे अर्नब गोस्वामी को जमानत देते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था :

"भारत की स्वतंत्रता तब तक सुरक्षित रहेगी जब तक पत्रकार प्रतिशोध की धमकी से डरे बिना सत्ता से सच बोलते रहेंगे."

इस साल की शुरुआत में, जब इस देश की कई अदालतों ने पत्रकार मोहम्मद जुबैर से पीठ फेर ली थी, तब जस्टिस चंद्रचूड़ ने न केवल जुबैर को जमानत दी थी, उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उनके (जुबैर के) अधिकार पर रोक लगाने से भी इनकार कर दिया था.

फोटो : द क्विंट

इसी साल मार्च में, जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने मलयालम समाचार चैनल MediaOne की सुरक्षा मंजूरी (सिक्योरिटी क्लियरेंस) को रद्द करने के केंद्र के फैसले पर भी रोक लगा दी थी और इसे प्रसारण फिर से शुरू करने की अनुमति दी.

2021 में मद्रास हाई कोर्ट में चुनाव आयोग के खिलाफ मौखिक टिप्पणियां की गईं थीं. इन टिप्पणियों की मीडिया रिपोर्टों पर प्रतिबंध लगाने के लिए चुनाव आयोग ने खिलाफ सुप्रीम में याचिका लगाई थी. इस याचिका को खारिज करते हुए, जस्टिस चंद्रचूड़ (पीठ के लिए निर्णय लिखते हुए) ने कहा था :

"यह कोर्ट अदालती कार्यवाही की रिपोर्ट करने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता के दृढ़ समर्थक के तौर पर खड़ी है. हमारा मानना है कि बोलने वालों, सुनने और सुने जाने की इच्छा रखने वालों के लिए और इन सबसे बढ़कर न्यायपालिका को उन मूल्यों के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए जो एक संवैधानिक संस्था के रूप में इसके अस्तित्व को सही ठहराते हैं, उनके लिए यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है."

जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में बरकरार रखते हुए यह भी लिखा :

"इस बात से खुद को अलग करना कि गरीबों को किसी नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की आवश्यकता नहीं है और वे पूरी तरह से आर्थिक कल्याण से संबंधित हैं, पूरे इतिहास में कुछ सबसे भयानक मानवाधिकारों के हनन के लिए इस्तेमाल किया गया है. इन सबसे ऊपर, यह समझा जाना चाहिए कि यह सवाल करने का अधिकार, जांच करने का अधिकार और असहमति का अधिकार है जो एक जागरूक नागरिक को सरकार के कार्यों की जांच करने में सक्षम बनाता है."

यह क्यों मायने रखता है

इस साल एक कश्मीरी पत्रकार ने पुलित्जर पुरस्कार जीता, जिसे लेकर खुशी मनानी चाहिए. लेकिन उस पत्रकार को अक्टूबर में पुरस्कार प्राप्त करने के लिए न्यूयॉर्क जाने से रोक दिया गया था.

पिछले कुछ वर्षों में सिद्दीकी कप्पन, सज्जाद गुल और फहद शाह सहित कई भारतीय पत्रकारों को उनके काम के सिलसिले में या उनके काम के दौरान गिरफ्तार किया गया और कई तरह के आरोपों में उन्हें सलाखों के पीछे रखने का काम लगातार किया जाता रहा. दो साल की कैद के बाद कप्पन को यूएपीए UAPA मामले में सर्वोच्च अदालत ने सितंबर में जमानत तक दे दी थी, लेकिन उनके खिलाफ पीएमएलए PMLA मामले में लखनऊ की एक अदालत ने उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया था.

सिद्दीकी कप्पन

फोटो : ट्विटर / अल्टर्ड बाय द क्विंट

प्रेस फ्रीडम इंडेक्स (रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स) 2022 में भारत अपने सबसे निचले स्थान पर आ गया है. 180 देशों की रैंकिंग में भारत 150वें पायदान पर आ गया है.

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रभावी रूप से हथियारों के हिंसक प्रयोग की तुलना करते हुए आपत्तिजनक भाषण में 28 अक्टूबर को कहा : "नक्सलवाद का हर रूप, चाहे वह बंदूक वाला हो या कलम वाला हो, उन्हें उखाड़ फेंकना होगा." इससे कुछ दिन पहले ही भारत के सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि "अर्बन नक्सल" हाउस अरेस्ट (नजरबंद) का अनुरोध कर रहे हैं, इस प्रकार टीवी डिबेट में प्रयोग होने वाले शब्द (अर्बन नक्सल) को लिया गया है और सुप्रीम कोर्ट के पवित्र पोर्टलों पर रखा जा रहा है.

अब तक यह कोई नहीं जानता कि कौन सा एक्ट, प्रावधान, धारा या कानून "अर्बन नक्सलों" को परिभाषित या दंडित करता है.

इस संदर्भ में और ऐसे समय में जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की भूमिका निभा रहे हैं और उसके सामने कार्य की जो चुनौतीपूर्ण प्रकृति है उसके बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है. लेकिन फिर भी, उनके पदभार ग्रहण करने को लेकर भी बहुत अधिक अपेक्षा और उत्साह है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के तौर पर उनका इतिहास, फ्री स्पीच (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) की रक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का एक मजबूत संकेत है.

स्वतंत्रता, निजता, गरिमा :  जस्टिस चंद्रचूड़ द्वारा बार-बार मौलिक अधिकारों का बचाव किया गया

सिर्फ पत्रकार ही नहीं जिनके मौलिक और संवैधानिक अधिकारों का चंद्रचूड़ ने जोरदार बचाव किया है. समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने वाले अपने अभूतपूर्व फैसले में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था :

"ह्यूमन सेक्सुअलिटी को एक बाइनरी फॉर्मूलेशन में कम नहीं किया जा सकता है और न ही इसके कार्य के संदर्भ में इसे संतान पैदा करने के साधन के रूप में संकीर्ण रूप से परिभाषित किया जा सकता है. यदि इसे क्लोज्ड कैटेगरियों तक सीमित रखा जाएगा तो इसका परिणाम संवैधानिक अधिकार के तौर पर मानव स्वतंत्रता को उसकी पूर्ण संतुष्टि से वंचित करना होगा."

377 फैसले के बाद दिल्ली में हुई पहली प्राइड परेड की फोटो

(फोटो सौजन्य : पार्थवी सिंह / द क्विंट)

यह फैसला न केवल समलैंगिकता को मान्यता देने और प्रतिबंध के नजरिए को खारिज करने के लिए खास है बल्कि निजता, गरिमा और स्वायत्तता के अधिकारों पर जोर देने के लिए भी प्रतिष्ठित है.

लेकिन केएस पुतुस्वामी बनाम भारत संघ में उनके (चंद्रचूड़) ऐतिहासिक फैसले के संदर्भ के बिना निजता के अधिकार पर जस्टिस चंद्रचूड़ के विचारों के बारे में कोई बात नहीं कर सकता.

सुप्रीम कोर्ट की नौ-जजों की एक बेंच ने 2017 में सर्वसम्मति से निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में माना था. जस्टिस चंद्रचूड़ ने तत्कालीन सीजेआई जेएस खेहर, जस्टिस आरके अग्रवाल, जस्टिस एस अब्दुल नजीर और खुद की ओर से मुख्य फैसला सुनाते हुए लिखा :

"जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता संविधान द्वारा सृजित नहीं हैं. संविधान द्वारा इन अधिकारों को प्रत्येक व्यक्ति में अंर्तनिहित मानव तत्व के आंतरिक और अविभाज्य हिस्से के रूप में मान्यता दी गई है जो उसके अंदर बसा रहता है..."

"निजता संवैधानिक रूप से एक संरक्षित अधिकार है जो मुख्य तौर पर संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी से निकलकर आता है. भाग III में निहित मौलिक अधिकारों द्वारा मान्यता प्राप्त और गारंटीकृत स्वतंत्रता और गरिमा के अन्य पहलुओं से अलग-अलग संदर्भों में निजता के तत्व भी दिखाई देते हैं."
केएस पुतुस्वामी बनाम भारत संघ के मामले में जस्टिस चंद्रचूड़

इतना ही नहीं, जस्टिस चंद्रचूड़ ने एडीएम जबलपुर मामले (जिसमें स्वतंत्रता के अधिकार पर नियम कायदे लादे गए थे) में अपने ही पिता (पूर्व सीजेआई वाईवी चंद्रचूड़) द्वारा लिए गए एक फैसले को भी खारिज कर दिया था.

एक और उल्लेखनीय हस्तक्षेप में, जस्टिस चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली एक बेंच ने मानवीय संकट में "मूक दर्शक" बनने से इनकार कर दिया और स्वत: संज्ञान लेते हुए एक मामले में सरकार से उसकी COVID वैक्सीन नीति पर सवाल किया. सुप्रीम कोर्ट की आचोलना के बाद, केंद्र सरकार ने अपनी वैक्सीन नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव की घोषणा की और पीएम मोदी ने सभी पात्र आयु समूहों के लिए मुफ्त टीकों की घोषणा की थी.

और जब जरूरत पड़ी तब उन्होंने असहमति जताई...

हालांकि हमेशा ऐसा नहीं होता है कि जस्टिस चंद्रचूड़ की राय बेंच के अन्य सदस्यों से मिलती हो.

रोमिला थापर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में भीमा कोरेगांव मामले में पांच कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका और मामले में एक स्पेशल इंवेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) के गठन की मांग गई थी. सितंबर 2018 में बहुमत की राय से असहमति जताते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि अदालत को एसआईटी नियुक्त करने की जरूरत है.

उन्होंने आगे कहा, "यह बताने के लिए परिस्थितियों को हमारे संज्ञान में लाया गया है कि क्या महाराष्ट्र पुलिस ने वर्तमान मामले में निष्पक्ष और पक्षपात रहित जांच एजेंसी के तौर पर काम किया है."

इसके अलावा, सितंबर 2018 में, जब पांच-जजों की बेंच ने आधार प्रोजेक्ट की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था, तब जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि आधार एक्ट को धन विधेयक की तरह पास करना संविधान के साथ धोखा है. क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 110 का उल्लंघन है. संविधान का अनुच्छेद 110 धन विधेयक के रूप में परिभाषित की जा सकने वाली चीजों पर प्रतिबंध लगाता है.

यह मानते हुए कि आधार में सर्विलांस (निगरानी) करने की क्षमता है, जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा :

"संवैधानिक गारंटी टेक्नोलॉजी के उतार-चढ़ाव के अधीन नहीं हो सकती."

सितंबर 2018 में जो हुआ, उसकी पुनरावृत्ति में, जस्टिस चंद्रचूड़ ने 2021 में आधार के फैसले को चुनौती देने वाली समीक्षा याचिकाओं को खारिज करने के खिलाफ असहमति जताई.

यह मानते हुए कि आधार में सर्विलांस करने की क्षमता है, जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा : "संवैधानिक गारंटी टेक्नोलॉजी के उतार-चढ़ाव के अधीन नहीं हो सकती."

फोटो : सौम्या पंकज / द क्विंट

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ये दोनों मामले न केवल बेंच के अन्य सदस्यों के साथ असहमति जताने की जस्टिस चंद्रचूड़ की क्षमता के सबूत हैं, बल्कि जब यह पक्का हो जाता है कि न्याय, स्वतंत्रता और संवैधानिकता खतरे में है तब यह सरकार की मुखर आलोचना के रूप में भी कार्य करते हैं.

भीमा कोरेगांव मामले में, भले ही उनके साथी जज उनसे असहमत थे, लेकिन तब भी जस्टिस चंद्रचूड़ ने महाराष्ट्र पुलिस की जांच से जुड़ी चिंताओं को व्यक्त करने में संकोच नहीं किया.

भीमा कोरेगांव मामले में अपनी असहमति जताते हुए उन्होंने लिखा था "जो लोग सत्ता वर्ग के लिए अलोकप्रिय हो सकते हैं, वे अभी भी उन स्वतंत्रताओं के हकदार हैं जिनकी गारंटी संविधान द्वारा दी गई है."

आधार मामले में जस्टिस चंद्रचूड़ की असहमति काफी महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इससे पता चलता है कि कानून निजता (प्राइवेसी) को गंभीरता से लेता है और यह कि बढ़ी हुई निगरानी लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है. जिस तरह से संसद में कानून ने (एक धन विधेयक के माध्यम से) आकार लिया, उसकी निंदा करने और सरकार से महत्वपूर्ण सवाल पूछने का क्रेडिट भी उन्हें दिया जाता है.

सब कुछ हिट नहीं रहा, आलोचना भी हुई

कभी-कभी बातचीत को पर्याप्त रूप से आगे बढ़ाने या अपने स्वयं के लिए निर्धारित (निस्संदेह) उच्च मानकों को पूरा करने में सक्षम नहीं होने के कारण जस्टिस चंद्रचूड़ की आलोचना भी हुई है.

जस्टिस बीएच लोया की मौत की स्वतंत्र जांच की मांग वाली याचिकाओं को खारिज करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट (सीजेआई दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर और खुद चंद्रचूड़ की ओर से) ने सुनाया था. इस फैसले के लिए जस्टिस्ट चंद्रचूड़ की आलोचना हुई थी. हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय के पास किसी भी याचिका को खारिज करने का अधिकार है, जैसा कि वह उचित समझे,आलोचना शायद उन सवालों से उत्पन्न होती है जो लगातार बने रहते हैं और इस तथ्य से हो सकती है कि कोर्ट ने उन लोगों द्वारा की गई दलीलों को बिना किसी जांच के स्वीकार कर लिया, जो जज लोया के साथ उनके जीवन के आखिरी घंटों में थे.

इसके अलावा, जस्टिस चंद्रचूड़ द्वारा अयोध्या मामले और ज्ञानवापी मस्जिद मामले को लेकर जो फैसला सुनाए गए उन पर भी सवाल उठे हैं. वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने द वायर के लिए एक साक्षात्कार में कहा था कि ज्ञानवापी फैसले ने "एक पैंडोरा बॉक्स को खाेल दिया है." (एक प्रक्रिया जो एक बार शुरू होने के बाद कई जटिल समस्याएं उत्पन्न करती है.)

जहां क्रेडिट दिया जा सकता है : फेमिनिस्ट, फ्यूचरिस्टिक और ट्रांसफॉर्मेटिव दृष्टिकोण

हालांकि, उपरोक्त कारकों के बावजूद कोई भी जस्टिस चंद्रचूड़ से इसका श्रेय नहीं छीन सकता कि वो अपने फैसलों से प्रभाव डालते हैं. उपरोक्त मामलों पर चंद्रचूड़ की आलोचना करने के बावजूद खुद दवे ने उन्हें "एक जज के तौर पर असाधारण गुणों" के साथ "एक बौद्धिक दिग्गज" कहा है. जस्टिस चंद्रचूड़ को उनके फेमिनिस्ट, फ्यूचरिस्टिक और ट्रांसफॉर्मेटिव दृष्टिकोण के लिए भी अक्सर सराहा जाता है.

हाल ही में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में एक कार्यक्रम में बोलते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने लॉ ग्रेजुएट्स से कहा है कि "कानून से निपटने के तरीके में नारीवादी (फेमिनिस्ट) सोच को शामिल करें" और उन्होंने दिखाया है कि इसे निर्णयों की एक श्रृंखला में कैसे शामिल करना है, जिसमें नवतेज जौहर (समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करना) शामिल है, लेकिन यह इसी मामले (नवतेज जौहर) तक सीमित नहीं है.

जस्टिस चंद्रचूड़ ने यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य मामले में मासिक धर्म वाली महिलाओं के सबरीमाला मंदिर में जाने के अधिकार को बरकरार रखा.

जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ मामले में जस्टिस चंद्रचूड़ उस बेंच का हिस्सा थे जिसने व्यभिचार (एडल्ट्री) को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था.

जस्टिस चंद्रचूड़ और हेमा कोहली की पीठ ने 31 अक्टूबर 2022 को कहा कोई भी व्यक्ति जो यौन उत्पीड़न से बचे लोगों पर "टू-फिंगर टेस्ट" करता है, वह कदाचार का दोषी होगा. मार्मिक रूप से यह नोट किया गया कि "यह सुझाव देना पितृसत्तात्मक और सेक्सिस्ट है कि एक महिला पर विश्वास नहीं किया जा सकता है जब वह कहती है कि उसके साथ केवल इसलिए बलात्कार किया गया, क्योंकि वह सेक्सुअली एक्टिव है."

जस्टिस चंद्रचूड़ ने हाल ही में सितंबर 2022 में यह माना कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट का लाभ केवल अविवाहित / एकल महिलाओं को मिलना चाहिए. इसके अलावा जस्टिस चंद्रचूड़ ने मैरिटल रेप (वैवाहिक बलात्कार) की एक प्रभावशाली स्वीकृति में कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के एकमात्र उद्देश्य के लिए, रेप की मीनिंग में मैरिटल रेप जरूर शामिल होना चाहिए.

"अगर हम यह स्वीकार नहीं करेंगे कि अंतरंग साथी (इंटीमेट पार्टनर) द्वारा की जाने वाली हिंसा वास्तविकता है और बलात्कार का रूप ले सकती है, तो हम चूक जाएंगे. यह गलत धारणा है कि यौन और लिंग आधारित हिंसा के लिए विशेष रूप से अजनबी जिम्मेदार हैं, यह समझ खेदजनक है."

यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण के मुद्दे पर दिल्ली हाई कोर्ट के विभाजित फैसले की पृष्ठभूमि और वैवाहिक बलात्कार अपवाद (आईपीसी की धारा 375 के तहत) को चुनौती देने के सुप्रीम कोर्ट के आसन्न विचार के विपरीत है.

CJI चंद्रचूड़ की चुनौतियां

यह बताने की जरूरत नहीं है कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने निष्पक्षता, विषय निष्ठता, मानव अधिकारों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति बुद्धि और प्रतिबद्धता के साथ न्याय देने की जबरदस्त क्षमता का प्रदर्शन किया है. लेकिन यह भी उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि वह भारतीय लोकतंत्र के एक चुनौतीपूर्ण समय में शपथ ले रहे हैं.

लाइव लॉ (Live Law) के संस्थापक-संपादक मनु सेबेस्टियन ने एक लेख में लिखा है कि "तो, एक चीफ जस्टिस जो सामाजिक पदानुक्रमों के परिवर्तन की वकालत करता है, जो पारंपरिक रूढ़ियों को तोड़ने का आह्वान करता है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पोषित करता है, जो असहमति की ताकत को महत्व देता है, जो एक बहुसंख्यक शासन के उत्थान को देख रहा है, जो हिंदुत्व की राजनीति से उत्साहित एक बहुसंख्यकवादी शासन के उदय को देख रहा है, जो सामाजिक-सांस्कृतिक रूढ़िवाद का उदय और परंपरावाद का पुनरुत्थान देख रहा है. वह "नए" भारत में कैसे गुजर-बसर कर पाएगा?"

जैसा कि सेबस्टियन ने अपने लेख में बताया कि जब जस्टिस चंद्रचूड़ के नाम की घोषणा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया के रूप में की जानी थी तब एक विशेष वर्ग ने उनके खिलाफ सोशल मीडिया में शातिर ट्रोलिंग की थी. उन्हें बदनाम करने के लिए तुरंत ही फर्जी खबरों और गुस्से वाले लेटर्स की झड़ी लगा दी गई थी. उनकी कुछ टिप्पणियों को भी दुर्भावनापूर्ण इरादे से तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया था.

इन सबके बावजूद भी, न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए कार्यपालिका द्वारा पेश की गई चुनौती के सामने प्रचारकों का यह गुस्सा भरा संदेश फीका पड़ जाता है.

सेबस्टियन आगे लिखते हैं कि केंद्र सरकार कुछ सिफारिशों को लंबित रखने के लिए कॉलेजियम के प्रस्तावों को अलग करके और पदोन्नति/स्थानांतरण के लिए कॉलेजियम द्वारा सुझाए गए नामों की "बेशर्मी से खुलेआम अनदेखी" करके न्यायिक मिसालों और परंपराओं का घोर अनादर कर रही है.

इसके अलावा, केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना और बयान पर भी चिंता जताई गई है. उनके अनुसार "न्यायाधीशों की नियुक्ति सरकार का कार्य है". यह चिंता इसलिए मायने रखती है क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति में कॉलेजियम की स्वतंत्रता न्यायपालिका की समग्र स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण है. यदि नियुक्तियों का कार्य सरकार के हाथों में पड़ गया, तो सरकार और कार्यपालिका के बीच अंतर करने वाली जो रेखा है वह धुंधली हो सकती है.

जो लोग सरकार द्वारा चुने जाएंगे या हाई कोर्ट में जिनकी नियुक्ति कार्यपालिका की इच्छा पर निर्भर करेगी, उनसे खास तौर पर राजनीतिक महत्व के मामलों में निष्पक्ष मूल्यांकन और पक्षपात रहित निर्णय लेने की अपेक्षा कैसे जा सकती है?

फोटो : पीटीआई

जैसे ही जस्टिस चंद्रचूड़ भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI), और रोस्टर के मास्टर और कॉलेजियम के प्रमुख की भूमिका निभाएंगे, वैसे ही न्यायपालिका की स्वतंत्रता, लोकतंत्र का भविष्य और देश का भाग्य उनके पास होगा.

वर्तमान CJI जस्टिस चंद्रचूड़ के कई पूर्ववर्तियों ने खेदजनक विरासतों को पीछे छोड़ दिया है, और कुछ कारणों की एक श्रृंखला की वजह से स्पष्ट इरादे होने के बावजूद वे पर्याप्त काम करने में भी विफल रहे हैं. लेकिन खराब प्रदर्शन करना या यहां तक कि पर्याप्त काम नहीं करना कोई लग्जरी नहीं है जिसे सीजेआई चंद्रचूड़ वहन कर सकते हैं. उनका कार्यकाल लंबा रहा है, उनका अतीत आशाजनक है और लोकतंत्र को शायद ही कभी किसी को सहारा देने की जरूरत पड़ी है, जैसा कि आज की तत्काल आवश्यकता है.

जस्टिस चंद्रचूड़ के खुद के शब्दों में : "अधिकार अपने आप में तब तक कागजी शेर हैं जब तक कि उन्हें अदालत दांत नहीं देती."

हम बड़े ही उत्साह के साथ, दिल से उम्मीद करते हैं कि हमारी जुबान को बंद नहीं होने दिया जाएगा, हमारी कलम को नहीं रोकने दिया जाएगा, लोकतंत्र के हमारे सपनों को टूटने नहीं दिया जाएगा और जस्टिस चंद्रचूड़ सीजेआई के रूप में भी हमारे अधिकारों की रक्षा उतने ही प्रभावी ढंग से करते रहेंगे, जैसे कि उन्होंने पहले की है.

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