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ईद उल फितर (Eid ul Fitra) को दुनियाभर के मुसलमान सबसे बड़े त्योहार के रूप में मनाते हैं. एक महीना रोजा रखने के बाद ये त्योहार और ज्यादा खुशी लेकर आता है. भारत में भी बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं और इस ईद को यहां मीठी ईद भी कहा जाता है. ईद से जुड़ी कई कहानियां और अनसुनी बातें हैं जिन्हें जानकर आप हैरान हो जाएंगे.
ईद पर मुसलमानों के हर घर में सेवइयां बनती हैं और लोग नए कपड़े पहनते हैं. ईद पर सेवइयां बनने के पीछे भी एक वजह है. रिवायात के मुताबिक मोहम्मद साहब जब ईद की नमाज पढ़ने जाते थे तो खजूर खाकर जाते थे. जानकार बताते हैं कि ईद की नमाज पढ़ने जाने से पहले कुछ मीठा खाकर जाना सुन्नत है. अगर आप खजूर खाकर जायें तो और बेहतर वरना कुछ ना कुछ मीठा खार जायें जो सुन्नत है.
मुसलमान दिन में पांच बार नमाज पढ़ते हैं जो मस्जिद में पढ़ी जाती है. लेकिन ईद की नमाज ईदगाह में पढ़ते हैं इसके पीछे की क्या कहानी है. हालांकि कुछ जगहों पर जहां ईदगाह नहीं होती वहां मस्जिद में भी नमाज पढ़ी जाती है. मौलाना मसरूर हुसैन बताते हैं कि पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब से पहले ईदगाह जाकर नमाज पढ़ने का चलन नहीं था. मोहम्मद साहब के वक्त से ही ईदगाह जाकर नमाज पढ़ने की शुरुआत हुई. मौलाना मसरूर कहते हैं कि मस्जिद और ईदगाह दोनों ही जगह ईद की नमाज पढ़ी जाती है.
लेकिन ईदगाह पर जाकर नमाज पढ़ने को बेहतर माना जाता है. उनका कहना था कि, ईदगाह पर नमाज इसलिए पढ़ी जाती है कि लोगों को पता चल सके कि उनका कल्चर और निजाम क्या है. इसके अलावा एक कारण ये भी है कि एक शहर में कई सारी मस्जिदें होती हैं, यहां तक कि बड़े गांवों में भी कई-कई मस्जिदें होती हैं लेकिन ईदगाह एक ही होती है जिसमें आसपास के सभी लोग आकर नमाज पढ़ते हैं. इससे सभी लोग एक दूसरे कसे मिल लेते हैं और एक दूसरे को गले लगाकर ईद की बधाई देते हैं. जिससे आपस में मोहब्बत बढ़ती है.
वैसे अब कुछ लोग सवारी से भी ईदगाह पर नमाज पढ़ने जाते हैं लेकिन ईदगाह तक पैदल जाना इस्लाम में अच्छा माना जाता है. हदीस में आता है कि मोहम्मद साहब ईदगाह तक हमेशा पैदल जाया करते थे. इसीलिए इसे मोहम्मद साहब की सुन्नत माना जाता है.
ये भी हुजूर मोहम्मद साहब की सुन्नत है. हदीस क मुताबिक हुजूरे अकरम ईद की नमाज पढ़ने के लिए एक रास्ते से जाते थे और दूसरे रास्ते से वापस आते थे. इसीलिए सुन्नत अदा करने के लिए मुसलमान एक रास्ते से जाकर दूसरे रास्ते से आना पसंद करते हैं हालांकि ये कोई बाध्यता नहीं है.
फितरा अपनी कमाई का कुछ हिस्सा गरीबों में दान करने को कहा जाता है. वैसे इस्लाम के मुताबिक फितरा वाजिब है, फर्ज नहीं. मतलब हर संपन्न मुसलमान को फितरा अदा करना चाहिए. अब सवाल आता है कि किसे संपन्न माना जाएगा. जिसके पास साढे 52 तोला चांदी या उसकी कीमत की रकम है उसको गरीबों में फितरा देना चाहिए.
इसके बाद सवाल ये आता है कि कितना फितरा दें. तो इसका जवाब है कि एक व्यक्ति के लिए चाहें वो बूढ़ा हो या बच्चा, मर्द हो या औरत उसको 1 किलो 633 ग्राम गेहूं या उसकी कीमत की रकम गरीबों को देनी होती है. और ये रकम और अनाज आपको ईद की नमाज से पहले किसी भी हाल में अदा करना होता है. ये कम से कम रकम है इससे ज्यादा आप अपनी हैसियत के मुताबिक कितना भी दे सकते हैं.
जकात फितरे की तरह वाजिब नहीं बल्कि ये हर मुसलमान पर फर्ज है. जकात में हर व्यक्ति को अपनी आमदनी का 2.5 हिस्सा जकात के तौर पर गरीबों को देना होता है. अब कई लोग ये सवाल करते हैं कि जकात कौन ले सकता है तो इसका जवाब ये है कि जकात उस व्यक्ति को दी जा सकती है जिसके अपने कुल खर्च से आमदनी आधी या उससे कम हो.
ईद पर नए कपड़े पहनना जरूरी नहीं है बल्कि साफ कपड़े पहनना जरूरी है. हालांकि आप वो कपड़े पहनें जो सबसे साफ हों. इसके अलावा कपड़ों पर इत्र लगाने की परंपरा भी मुस्लिमों में है लेकिन ये भी इस्लाम का जरूरी हिस्सा नहीं है.
चांद देखकर ही क्यों मनाते हैं ईद?
इस्लाम के हर त्योहार में चांद का बड़ा महत्व है. दरअसल ईद उल फित्र इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक दसवें महीने की पहली तारीख को मनाई जाती है. इस महीने को शव्वाल कहा जाता है. मलतब रमजान का महीना खत्म होते ही जो पहले दिन चांद दिखेगा उसके अगले दिन ईद मनाई जाती है. जब तक शव्वाल के महीने का चांद नहीं दिखेगा तब तक ईइद नहीं मनाई जाएगी. इसीलिए आप देखते हैं कि किसी बार ईद 29 रोजों के बाद होती है तो कभी 30 रोजों के बाद.
पहली बार ईद कब मनाई गई?
जानकारों और रिवायात के मुताबिक पहली बार 624 ईस्वी में ईद मनाई गई थी, ये वो मौका था जब मोहम्मद साहब जंद-ए-बद जीतकर लौटे थे. वैसे एक और ऐतिहासिक ममनून भी इस दिन से जुड़ा है. दरअसल इसी दिन मोहम्मद साहब ने मक्का से मदीना हिजरत भी की थी.
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