Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019India Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019संडे व्यू: बच्चों की मौत से सबक जरूरी, लक्षद्वीप में ‘गुंडा एक्ट’

संडे व्यू: बच्चों की मौत से सबक जरूरी, लक्षद्वीप में ‘गुंडा एक्ट’

पढ़ें पीटर जे होटेज-अल्बर्ट, पी चिदंबरम, टीएन नायनन, अन्ना हलीस पीटरसन-आकाश हसन और रामचंद्र गुहा के लेखों का सार.

क्विंट हिंदी
भारत
Updated:
संडे व्यू में पढ़ें अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स
i
संडे व्यू में पढ़ें अखबारों के बेस्ट आर्टिकल्स
(फोटो: क्विंट हिंदी)

advertisement

ब्राजील में बच्चों की मौत से दुनिया लेगी सबक?

द न्यूयॉर्क टाइम्स में पीटर जे होटेज और अल्बर्ट आई. को साझा आलेख में लिखते हैं कि आधुनिक इतिहास में जब कभी भी संक्रमण का दौर आया है, ब्राजील में बच्चों को नतीजे भुगतने पड़े हैं. 2007 और 2008 में जब डेंगू की महामारी आई तो मरने वालों में आधे बच्चे थे. जब 2015 में गर्भवती महिलाओं में ‘जीका वायरस’ का प्रकोप हुआ, तो 1600 नवजात विकृति के साथ पैदा हुए. अब कोविड की चपेट में जिस तरह से ब्राजील में बच्चे आए हैं, उसका दूसरा उदाहरण दुनिया में नहीं मिलेगा.

एक अध्ययन के मुताबिक ब्राजील में 10 साल से कम उम्र के 2200 बच्चों की मौत कोविड-19 से हुई है. ब्राजील में हुई 4.67 लाख मौत के मुकाबले यह महज 0.5 फीसदी है. इनमें 5 साल से कम उम्र के 900 बच्चे हैं. अगर अमेरिका से तुलना करें तो वहां कोरोना महामारी से 6 लाख से ज्यादा मौतें हुई. इनमें 5 साल से कम उम्र के 113 बच्चे शामिल थे.

पीटर और अल्बर्ट लिखते हैं कि ब्राजील में किशोरों और बच्चों की संख्या मिला दें तो इनकी तादाद 20 फीसदी हो जाती है. दोनों लेखक जानना चाहते हैं कि ब्राजील में बच्चों की मौत की वजह क्या रही? एक संभव वजह है ब्राजील में उभरता नया वेरिएंट. ब्राजील में गामा वैरिएंट उभरा. पहले के वेरिएंट की तुलना में यह अधिक संक्रामक है. कोविड के संक्रमण और टीके से बचकर इस वेरिएंट का जन्म हुआ. यह संभव है गामा वेरिएंट से भी कुछेक और म्यूटेशन हुए हों जिससे यह अधिक संक्रामक हो गया हो.

अमेरिका में 7 फीसदी मामले गामा वेरिएंट की वजह से हुए. हालांकि, अमेरिका में दो तिहाई संक्रमण के लिए अल्फा वेरिएंट जिम्मेदार है. गामा वेरिएंट का फैलाव वैक्सीनेशन के प्रयासों को कमजोर कर रहा है. जितना ज्यादा वेरिएंट फैलेगा उतना ही ही बड़ा संकट पैदा होगा, जैसा कि दक्षिण अमेरिका, भारत, कांगो में देखने को मिल रहा है.

अगर दुनिया की सरकारें और वैश्विक समुदाय कड़ा फैसला नहीं करती हैं तो बच्चों को इसका अंजाम भुगतना होगा.

उधार लो, खर्च करो, नोट छापो

पी चिदंबरम द इकनॉमिक टाइम्स में लिखते हैं कि देश की आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने के लिए सरकार को उधार लेकर भी खर्च करने और जरूरत पड़ने पर नोट छापने से भी परहेज नहीं करना चाहिए. वे लिखते हैं कि आंकड़े झूठ नहीं बोलते. खासकर आंकडे अगर नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस यानी एनएसओ के हों. बीते 12 क्वार्टर की जीडीपी का आंकड़ा रखते हुए चिदंबरम ने कहा है कि लगातार जीडीपी का गिरता जाना गंभीर चिंता की बात है. जीडीपी का आधार स्तंभ रहा है निजी उपभोग. इसमें स्थिरता बनी हुई है. इसका मतलब है कि लोग कम उपभोग कर रहे हैं. देश की प्रति व्यक्ति आय तीन साल पहले वाले स्तर पर पहुंच चुकी है. इसका मतलब यह है कि भारतीय लगातार गरीब होते जा रहे हैं.

सीएमआईई के हवाले से चिदंबरम बताते हैं कि मार्च महीने में 50 लाख और अप्रैल एवं मई महीने में 2.2 करोड़ लोगों की नौकरी जा चुकी है. चिदंबरम बताते हैं कि देश की आर्थिक स्थिति संभालने के लिए स्टिमुलस वित्तीय पैकेज लाने होंगे और वित्तीय आधार को बढ़ाना होगा. गरीबों में नकद बांटे जाने चाहिए. मुफ्त में अनाज का उदार तरीके से वितरण होना चाहिए.

इसके अलावा लघु व मझोले उद्योगों को ब्याज रहित लोन दिए जाने चाहिए. इसके साथ ही पुराने लोन माफ किए जाने चाहिए. लेखक चिंता जताते हैं कि सरकार की ओर से ये कदम उठाए नहीं जा रहे हैं. केवल ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे दिए जा रहे हैं. चिदंबरम नोट छापे जाने की वकालत भी करते हैं. चिदंबरम का कहना है कि भारत सरकार को चाहिए कि वह सभी भारतीयों को वैक्सिनेट करने की स्पष्ट नीति लेकर सामने आए. बीते 14 महीनों में भारत सरकार ने देश की जनता को फेल साबित कर दिखाया है.

हकीकत हो सकता है सपनों का घर

टीएन नायनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि घर आज भी आम लोगों के लिए सपना बना हुआ है. म्यूनिसिपल, राज्य सरकार और केंद्र मिलकर इसे हकीकत में बदल सकते हैं. वे लिखते हैं कि देश का हाऊसिंग मार्केट स्वामित्व मॉडल पर आधारित है. शहरों में भी 30 फीसदी मकान ही किराए पर लगे होते हैं. गांवों में आंकड़ा और भी छोटा है. फिर भी यह संख्या छोटी नहीं है. केंद्र सरकार आदर्श किराया कानून लेकर आ रही है. इस पर अमल होने से राज्य सरकारों को कुछ वर्ष लगेंगे. इससे किराए के कारोबार और हाऊसिंग के क्षेत्र में बदलाव देखने को मिलेंगे.

नायनन लिखते हैं कि तीन दशक पहले बहुत कम मकान बना करते थे. निजी बिल्डरों के आ जाने के बाद स्थिति बदली. जहां 1991 में हाऊसिंग फिनान्स जीडीपी का 1 फीसदी हुआ करता था, आज यह 10 फीसदी तक जा पहुंचा है. आज भी रीयल इस्टेट इसलिए महंगा है क्योंकि जमीन के भाव अप्राकृतिक रूप से महंगे हैं. यही वजह है कि दो तिहाई मकान दो-तीन कमरों वाले हैं. मकान की लागत के मुकाबले किराए से आमदनी कम है. बमुश्किल यह दो फीसदी होता है. देश में करीब 1 करोड़ मकान खाली पड़े हैं क्योंकि मकान मालिक उन्हें किराए पर लगाने का जोखिम उठाना नहीं चाहते. यह संपत्ति की बर्बादी है.

नायनन लिखते हैं कि मोदी सरकार में 1.2 करोड़ मकान ग्रामीण इलाकोंम बने हैं. प्रवासी मजदूरों के लिए यह वरदान है. रेरा (रीयल इस्टेट रेगुलेशन एंड डेवलपमेंट एक्ट) के आने से भी फ्लैट बायर को सहूलियत हुई है. अब मॉडल रेंटल लॉ यानी आदर्श किराया कानून आ जाने के बाद स्थिति और अनुकूल होगी. 2011 के सर्वेक्षण के मुताबिक 23 करोड़ मकानों में आधे रहने लायक नहीं रह गये हैं. ऐसे में नगर निगम, राज्य और केंद्र सरकारें मिलकर रीयल इस्टेट में बड़ा बदलाव ला सकती हैं.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

दुनिया सुरक्षित, तभी अमीर देश भी

चेतन भगत द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने ध्यान दिलाया है कि गरीब देशों की तुलना में अमीर देशों ने 30 गुणा तेज गति से लोगों को वैक्सीन दी है. इसी तरह डब्ल्यूएचओ के डायरेक्टर जनरल ट्रेड्रॉस एडोनम ने बताया है कि महज 10 फीसदी देशों में 75 फीसदी वैक्सीन लगाई गयी हैं. गरीब देशों में महज 0.3 फीसदी वैक्सीन पहुंच पाए हैं. लेखक कहते हैं कि यूएन को दुनिया चलाने वाला संगठन मान लेने की भूल न करें. यह सबको वैक्सीन देने का आग्रह तो कर सकता है लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता.

जिन देशों को वैक्सीन उपलब्ध नहीं हो रही है वहां कोविड की महामारी तेजी से फैल रही है और मौत हो रही है. अमेरिका, इंग्लैंड और इजराइल में जन-जीवन पटरी पर लौट रहा है क्योंकि वहां आधी से अधिक आबादी को वैक्सीन लग चुकी है.

चेतन भगत का मानना है कि करीब 100 देशों में जब वैक्सीन न हों और कुछेक देशों को ही वैक्सीन की तकरीबन पूरी आपूर्ति की जा रही हो तो दुनिया के स्तर पर मानवता के साथ जरूर कुछ भयानक घट रहा है. बड़ी फार्मा कंपनी ही नहीं, यहां तक कि सरकारें भी लालफीताशाही और वैक्सीन राष्ट्रवाद या फिर समय रहते आपात स्थिति को भांप नहीं पाने की दोषी रही हैं. यहां तक कि कोवैक्स कार्यक्रम भी मदद आधारित है. जबकि, इसे लक्ष्य आधारित होना चाहिए.

लेखक मानते हैं कि वर्तमान परिस्थिति का सही समाधान अधिक से अधिक वैक्सीन का उत्पादन है. नैतिकता की बात करना समय बर्बाद करना है. यूएन, डब्ल्यूएचओ, डब्ल्यूटीओ और दुनिया के नेताओं को पेटेंट मुक्त कराने के लिए उचित मुआवजा लेकर सामने आना चाहिए. यह रकम सारे देश मिलकर दें. पूरी मानवजाति को मिलकर काम करने की जरूरत है. अन्यथा वैक्सीन देने में तीन साल लग जाएंगे. अमीर देश खुद को मूर्ख बना रहे हैं. पूरी दुनिया को वैक्सीन दिए बगैर कोई देश सुरक्षित नहीं रह सकता.

प्रफुल्ल पटेल के कदम रखते ही लक्षद्वीप में शुरू हो गया खेल!

हन्ना एलीस-पीटरसन और आकाश हसन द गार्जियन में लिखतें हैं कि लक्ष्यद्वीप में समस्या की शुरुआत तब हुई जब प्रशासक के तौर पर प्रफुल्ल खोडा पटेल के कदम 2 दिसंबर 2020 में वहां पड़े. उस समय तक यह इलाका कोरोना की महामारी से मुक्त था. लक्षद्वीप आने वाले लोगों के लिए क्वॉरन्टीन होने की शर्त हटा ली गयी. नतीजा है कि आज 10 फीसदी स्थानीय आबादी कोरोना से पीड़ित है.

समस्या तब शुरू हुई जब पटेल ने जब अपने आधिकारिक आवास जाते समय रास्ते में विवादास्पद नागरिकता कानून के विरोध वाले पोस्टर देखे. उन्होंने उस पोस्टर को तुरंत हटाने का आदेश दिया और तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया, जिनकी जमीन पर ये पोस्टर लगे थे. दर्जनों सांसदों ने केंद्र सरकार के पास लक्षद्वीप को बचाने के लिए चिट्ठी लिखी.

पटेल ने एक के बाद एक नये कदम उठा. इनमें जीव संरक्षण के नाम पर बीफ खाने पर प्रतिबंध लगाना और दो से अधिक बच्चे होने पर चुनाव नहीं लड़ पाना शामिल हैं. इसके अलावा इलाके के सभी डेयरी फार्म बंद करा दिए गये. दूध उत्पादन और बिक्री के लिए गुजरात से एक कारोबारी को अनुमति दी गयी. पटेल ने लक्षद्वीप में गुंडा एक्ट लगा दिया. इसके तहत पुलिस किसी को भी बिना कारण बताए पुलिस एक साल के लिए गिरफ्तार कर सकती है. 96 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले इस इलाके में विकास के नाम पर लोगों को परेशान किया जा रहा है. स्थानीय लोगों ने पटेल को वापस बुलाने की मांग की है.

गांधीवादी धागे से जुड़ीं तीन हस्तियां

द टेलीग्राफ में रामचंद्र गुहा ने उन तीन विभूतियों को उनके साझा गुणों को साथ रखते हुए याद किया है जिन्होंने एक हफ्ते के भीतर दुनिया छोड़ दी- सुंदरलाल बहुगुणा, एचएस डोरेस्वामी और नटराजन. एक 70 से अधिक उम्र के, दूसरे 90 से ज्यादा और तीसरे 100 की उम्र पार कर चुके थे. ये क्रमश: उत्तराखण्ड, कर्नाटक और तमिलनाडु से थे. तीनों के तीनों गांधीवादी, प्रखर वक्ता और सादगी के साथ समाज को समर्पित रहे. सुंदरलाल बहुगुणा ने 70 के दशक में ‘चिपको आंदोलन’ चलाकर पर्यावरण को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया.

ऊर्जा, साहस, बुद्धि और करिश्मे में बहुगुणा जैसे ही थे एचएस डोरेस्वामी. छात्र रहते डोरेस्वामी महात्मा गांधी के संपर्क में आए और फिर छह साल बाद भारत छोड़ा आंदोलन में हिस्सा लिया. 50 और 60 के दशक में सर्वोदय आंदोलन का हिस्सा रहे. जब आपातकाल आया तो उन्होंने सामाजिक कार्यों से तौबा कर ली और फिर से जेल को घर बना लिया. भारतीय लोकतंत्र पर हिंदुत्व बहुसंख्यकवाद से जब खतरा दिखा तो डोरेस्वामी का आंदोलनकारी रूप फिर नजर आया. वे नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में चले आंदोलन में शरीक हुए. वहीं उनको सुनने लेखक भी पहुंचे.

डोरेस्वामी बोले, “यहां के मुसलमानों ने भारतीय होना स्वीकार किया है. उनसे नागरिका का सबूत नहीं मांगा जा सकता.”

रामचंद्र गुहा ने ने तीसरी हस्ती नटराजन की चर्चा करते हुए बताया है कि वे रचनात्मक व्यक्तिव थे. गांधी से प्रेरित थे और उन्होंने विनोबा भावे के साथ भूदान आंदोलन को आगे बढ़ाया. उन्होंने समस्त जीवन ग्रामीणों के उत्थान में लगा दिया. जातिगत भेदभाव से संघर्ष, खादी और ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देते हुए नटराजन जी ने बढ़-चढ़ कर काम किया.

तीनों हस्तियां न सिर्फ संविधान के प्रति वफादार रहीं बल्कि मानवता के झंडाबरदार भी रहीं. अलग-अलग जीवन, अलग-अलग तरीकों के साथ इन तीनों ने अपने-अपने गृह प्रदेश और गृह जिले में काम करते हुए देश और दुनिया के लिए हमेशा चिंतित रहे. लेखक इसे अपनी खुशकिस्मती मानते हैं कि तीनों के साथ उनकी नजदीकी रही.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 06 Jun 2021,08:11 AM IST

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT