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मुख्यमंत्री की कुर्सी के इतने करीब पहुंचकर भी ज्योतिरादित्य सिंधिया उससे दूर रह गए और कमलनाथ बाजी मार गए. आपको 25 साल पहले फ्लैशबैक में ले चलते हैं तब उनके पिता माधवराव सिंधिया मध्यप्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता थे.
बात 1993 की है बीजेपी की सुंदरलाल पटवा की सरकार को बर्खास्त करने के बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस बहुमत में आई. मुख्यमंत्री के तौर पर माधवराव सिंधिया का नाम भी चर्चा में आ गया. माधवराव भी एकदम तैयार थे लेकिन तभी पासा पलट गया और कुर्सी दिग्विजय सिंह के पास पहुंच गई.
बात साल 1993 की है. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को जबरदस्त जीत मिली थी. काउंटिंग के अगले दिन सुबह-सुबह ग्वालियर राजघराने के महाराज माधवराव सिंधिया को संदेश मिला कि वो मुख्यमंत्री बनने के लिए तैयार रहें. संदेश देने वाले ने सिंधिया को कहा कि उन्हें किसी भी वक्त फोन आ सकता है. दिल्ली में माधवराव सिंधिया ने विमान तैयार रखने को कहा और फोन का इंतजार करने लगे. लेकिन न फोन आया और ना ही विमान दिल्ली से भोपाल के लिए उड़ान भरी.
दो नामों को लेकर पार्टी में पहले से ही गुटबाजी थी, ऐसे में तीसरा नाम सामने आने के बाद विवाद और बढ़ गया.
विधायक दल की बैठक में किसी भी नाम पर आम सहमति नहीं बन पाई. दिग्विजय सिंह भी पिक्चर में आ गए. वो उस वक्त मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे. इस बैठक के लिए कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रणब मुखर्जी और सुशील कुमार शिंदे पर्यवेक्षक के तौर पर पहुंचे थे.
बैठक में आम सहमति नहीं बनी, तो तय हुआ कि सीक्रेट वोटिंग से मुख्यमंत्री का फैसला किया जाए. मुख्यमंत्री की रेस में अब भी दो ही लोग थे, पहले श्यामाचरण शुक्ल और दूसरे दिग्विजय सिंह. सीएम पद की दौड़ में अब माधवराव सिंधिया की जगह अब दिग्विजय सिंह ने ले ली थी.
कहते हैं कि इस पूरे खेल के मास्टरमाइंड अर्जुन सिंह थे. बहरहाल, इससे माधवराव सिंधिया मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से रह गए.
इस इलेक्शन में ज्योतिरादित्य ने खूब पसीना बहाया. प्रदेश में 110 से ज्यादा चुनावी सभाएं की, दर्जनभर से ज्यादा रोड शो किए. इलेक्शन जीतने के बाद सिंधिया के समर्थकों को पूरा यकीन था कि इस बार श्रीमंत ही मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन एक बार फिर पुत्र भी पिता की तरह भोपाल से दिल्ली की राजनीति में पिछड़ गया.
जानकारों के मुताबिक ज्योतिरादित्य के मुख्यमंत्री न बन पाने के पीछे कई कारण हैं.
कांग्रेस नेताओं का ये भी कहना है कि ज्योतिरादित्य के पास अभी राजनीति में अपना दम दिखाने के लिए काफी वक्त है. जबकि पार्टी का पूरा फोकस फिलहाल 2019 चुनाव की चुनौती पर है. खैर, पार्टी की रणनीति जो भी हो, लेकिन मध्य प्रदेश की राजनीति का इतिहास तो दोहराया ही जा चुका है.
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