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कमाल का जुझारूपन! बतौर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल की एक साल की कहानी

5 राज्यों में जीत के बाद राहुल गांधी में एक गरिमा दिखी. जीत को स्वीकार करते हुए उन्होंने बेहद छोटा भाषण दिया.

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किसी भी कैंपेनर के लिए जीत टॉनिक जैसी होती है. इससे हौसला बढ़ता है. आत्मविश्वास आता है. लोगों की तरफ से अपनाए जाने का पता चलता है. हार के बाद अगर ऐसी जीत मिले, तो वह खास हो जाती है.

राहुल गांधी को मंगलवार को ऐसी ही जीत मिली, जब कांग्रेस ने बीजेपी को उसके गढ़ छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में 3-0 से हराया. अक्सर ऐसी जीत में लोग बहक जाते हैं. अपनी ही पीठ थपथपाने लगते हैं. प्रधानमंत्री मोदी को हमने अक्सर ऐसा करते देखा है, मानो उन्होंने इसका पेटेंट करा लिया है. राहुल ने जीत के बाद ऐसा नहीं किया. उनमें एक गरिमा दिखी. जीत को स्वीकार करते हुए उन्होंने बेहद छोटा भाषण दिया.

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सच्चे लीडर की पहचान हमेशा मुश्किल घड़ी में होती है. क्या उसने हार मान ली है या उसमें मैराथन धावक की तरह दमखम है? क्या हर बार लड़खड़ाने, जख्मी होने के बाद वह फिर से उठकर खड़ा हुआ है? इस मामले में 2014 की जबरदस्त हार के बाद राहुल लंबा सफर तय कर चुके हैं.

3-0 से जीत के बाद अचानक उस मीडिया ने राहुल में लीडरशिप क्वॉलिटी ढूंढ निकाली, जो कल तक उन्हें जी भर के कोस रहा था. जो पूर्वाग्रह का शिकार था. अजीब बात है कि आज वही मीडिया राहुल को ‘सबसे बड़ा विजेता’ बता रहा है.

उधर, प्रधानमंत्री मोदी पर ‘बड़ी हार’ का लेबल लग गया है. यह वही मोदी हैं, जिनके बारे में कहा जाता था कि वह तो गलती कर ही नहीं सकते. इस मामले में मीडिया ने दिखा दिया कि असल पलटी मारने वाले कैसे होते हैं. मीडिया की तरफ से राहुल की तारीफ ऐसे समय में हो रही है, जब कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर वह एक साल पूरा कर रहे हैं. इसलिए उनके पॉलिटिकल अचीवमेंट के विश्लेषण का यह बिल्कुल सही समय है.

कहीं आप यह न समझ लें कि मैंने भी अचानक राहुल पर राय बदली है, इसलिए मैं पहले कही गई अपनी बातों को टाइम स्टैंप कर रहा हूं. मैं पहले दिन से कह रहा हूं कि राहुल स्मार्ट और बोल्ड पॉलिटिशियन हैं. वह तेजी से मेच्योर लीडर में बदले हैं.

गुजरात में करीब-करीब जीते (दिसंबर 2017)

पॉलिटिक्स में एक वक्त ऐसा आता है, जब किसी नेता में नई जान पड़ती है. इंदिरा गांधी के साथ 1978 में कर्नाटक में, वीपी सिंह के साथ एक दशक बाद इलाहाबाद में, ब्रिटेन की लेबर पार्टी में इस साल और मैं कहना चाहता हूं कि राहुल की कांग्रेस के साथ आज ऐसा ही हुआ है.

प्रधानमंत्री मोदी गुजरात का पर्याय हैं. वह इस धरती के लाल हैं, जिन्हें चुनौती देने की हिम्मत करने की भी कोई सोचता नहीं था. हालांकि राहुल शेर की इस मांद में घुसे, जबकि वह चाहते तो इससे बाहर रह सकते थे.

आज सुबह तक जिस शख्स को राजनीतिक तौर पर अजेय और अमर माना जाता था, राहुल उसे मटियामेट करने के बहुत करीब पहुंच गए थे. वह सिर्फ 4 पर्सेंट वोटों से लक्ष्य से चूक गए. 2014 में कांग्रेस ने गुजरात में बीजेपी से 12 पर्सेंट और 2012 में 6 पर्सेंट कम वोट पाए थे. इसलिए यहां प्रधानमंत्री मोदी की जीत नहीं हुई है और राहुल भी नहीं हारे हैं. राजनीतिक साहस के इंडेक्स पर राहुल ने इस चुनाव में बड़ा स्कोर खड़ा किया.

जो संभव है, उसकी राजनीति सीखना (जुलाई 2018)

राहुल ने कर्नाटक में मौके की नजाकत को देखते हुए जल्द समझौते का सबक सीखा. वह राज्य सरकार की कमान जूनियर पार्टनर को देने को तैयार हो गए. आप इसे बेताबी कह सकते हैं, लेकिन खुले मन से सोचें, तो यह 2019 केआखिरी हमले से पहले की रणनीतिक चाल है. मैं इसे अक्लमंदी मानता हूं. राहुल ने टॉप लीडरशिप में बदलाव किए हैं. कुछ बड़े नामों को हटाया गया है, लेकिन कुछ को बनाए रखा गया है, ताकि उथल-पुथल न मचे. कई यंग टैलेंट को इसमें जगह दी गई है.

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विरोधियों ने कीचड़ उछाला और फब्तियां कसीं (दिसंबर 2017)

बीजेपी सरकार चिड़चिड़ी, अहंकारी और हमेशा गुस्से में दिखती है. मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री ने अपने प्रवक्ताओंको प्राइमटाइम शो में देखा है? अगर नहीं देखा है, तो उन्हें तुरंत देखना चाहिए. हर शाम वे राहुल गांधी के बारे में ऐसी बातें कहते हैं, जिन्हें पब्लिश तक नहीं किया जा सकता. जनता राहुल से नफरत नहीं करती. यहां तक कि नेहरू के कटु आलोचक भी उन्हें 'आधुनिक भारत के निर्माता' मानते हैं. इंदिरा गांधी की भले ही इमरजेंसी के लिए आलोचना होती है, लेकिन उनके प्रशंसकों की भी कमी नहीं है.

राजीव ने बोफोर्स, शाहबानो, अयोध्या और श्रीलंका में सेना भेजने जैसी गलतियां की हों, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को आधुनिक राह पर बढ़ाने का श्रेय उन्हीं के नाम है. इतना ही नहीं, देशहित में काम करने के कारण इंदिरा और राजीव की हत्या की गई. बीजेपी के प्रवक्ताओं को पता होना चाहिए कि भारतीय उन लोगों को पसंद नहीं करते, जो दुनिया से जा चुके लोगों को भला-बुरा कहते हैं. इसलिए जब बीजेपी प्रवक्ता उनके ‘वंशवाद’ का भद्दा मजाक उड़ाते हैं, तो वह कई भारतीयों को पसंद नहीं आता.

बेशक, जनता को संसदीय भाषा में उनकी आलोचना पर कोई ऐतराज नहीं है. जब राहुल इन लोगों को उनकी भाषा में जवाब देने से इनकार कर देते हैं, तो यह बात भारतीय मध्यवर्ग के दिल को छू जाती है, जिसे रोज-रोज नफरत का यह खेल पसंद नहीं है.

कांग्रेस को ताजगी की जरूरत है (मार्च 2018)

मैंने एआईसीसी के पूर्ण अधिवेशन में स्वीकार किए गए आर्थिक प्रस्ताव को अभी-अभी पढ़ा है. मुझे इसे दोबारा पढ़ना पड़ा, क्योंकि इसमें कांग्रेस के पहले के ‘गरीबी हटाओ’, समाजवाद और ‘गरीबी हटाने वाली योजनाओं’ का जिक्र नहीं था. इसलिए पहली बार में मुझे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ था. 12 पेज के इस डॉक्यूमेंट में एक बार भी इनका जिक्र नहीं है. इतना ही नहीं, इसे बहुत अच्छी तरह लिखा गया है और इसमें टाइपिंग या दूसरी गलतियां भी नहीं हैं. इसमें एक नया और आधुनिक फ्रेज है.

रोजगार पैदा करने के लिए निजी क्षेत्र पर भरोसा किया गया है (इस संदर्भ में सरकारी क्षेत्र का जिक्र नहीं करना बिल्कुल नई बात है. सरकारी क्षेत्र के बारे में इस डॉक्यूमेंट में कुछ नहीं कहा गया है, जिसमें कमर्शियल एक्टिविटी में सरकार को लगाई गई पूंजी से बहुत कम प्रॉडक्टिविटी हासिल होती है). इसमें मध्यवर्ग के वेल्थ क्रिएशन पर जोर दिया गया है. यह बात आखिर में नहीं जोड़ी गई है, न ही गुमनाम फुटनोट के तौर पर इसका जिक्र है. काफी सोच-समझकर यह बात कही गई है.

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CJI दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का राजनीतिक जोखिम (अप्रैल 2018)

ऐसा बहुत कम हुआ है कि जब किसी राजनेता ने सोच-समझकर ऐसा जोखिम उठाया है, जिससे उसे नुकसान हो सकता है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा के खिलाफ राहुल गांधी के महाभियोग प्रस्ताव लाने के फैसले को मैं इसी कैटेगरी में रखता हूं. यह खलबली मचाने वाला कदम था. यह दोधारी तलवार थी, लेकिन जरा देखिए कि कैसे बूमरैंग किसी नेविगेटेड मिसाइल की तरह बिल्कुल सटीक दिशा में जा रहा है.

आलोचक पहले कह रहे थे कि यह सरकार जस्टिस रंजन गोगोई की सीनियरिटी की अनदेखी करके किसी और को चीफ जस्टिस बना सकती है, क्योंकि उसे जस्टिस गोगोई पसंद नहीं हैं. हालांकि महाभियोग प्रस्ताव की कोशिश के बाद इस मुद्दे पर जनता की एक रायबनी है. इसलिए अगर प्रधानमंत्री मोदी अब ऐसे किसी कदम पर अपनी राजनीतिक पूंजी नहीं गंवाना चाहेंगे. उन्हें चेकमेट कर दिया गया है और शायद उनकी मात हो गई है?

राहुल गांधी ने महाभियोग प्रस्ताव पर दस्तखत के लिए 6 राजनीतिक दलों को मनाया. इनमें हिंदी पट्टी की बीएसपी, एसपी जैसी ताकतवर पार्टियां, एनसीपी, सीपीएम और आईयूएमएल शामिल हैं. यह किसी राजनीतिक तख्तापलट से कम नहीं है.

मोदी से फासला मिट रहा है (जून 2018)

ये बातें गलत या बढ़ा-चढ़ाकर कही गई साबित हो सकती हैं, लेकिन उपचुनाव डेटा के हिसाब से इनमें कुछ सचाई भी दिख रही है:

  • मोदी और राहुल, दोनों को 43 पर्सेंट लोग पसंद करते हैं और राहुल को नापसंद करने वालों की संख्या कम है, इसलिए उनकी ‘नेट लाइकेबिलिटी’ मोदी से बेहतर है.
  • राहुल ‘ना कहने वाले’ 30 पर्सेंट लोगों को ‘समर्थक’ बनाने में सफल रहे हैं, जबकि मोदी ने अपने 35 पर्सेंट पूर्व समर्थकों को विरोधी बना लिया है.
  • राहुल की स्वीकार्यता मिडल एज और बुजुर्ग वोटरों में बढ़ी है (इस वर्ग के ज्यादातर लोग वोट देते हैं), मोदी का आधार मध्यवर्ग और लोअर क्लास के वोटरों में घटा है.
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‘मोदी को गले लगाकर’ राहुल पॉलिटिकल फोटो-ऑप के मास्टर बने (जुलाई 2018)

राहुल ने अपने शस्त्रागार में वह चीज भी जोड़ ली, जो अब तक नहीं थी. वह बड़ा पॉलिटिकल फोटो-ऑप क्रिएट करने में सफल रहे और इस पर अब चारों तरफ चर्चा हो रही है. राहुल के गले लगने से ‘मास्टर’ सन्न रह गए. वह बिना हरकत के अपनी कुर्सी पर बैठे रहे, जबकि सुर्खियां गांधी ने बटोरीं. सत्ताधारियों को राहुल ने बेचैन कर दिया. उन्हें इसका जवाब तक नहीं सूझा.

गृहमंत्री ने इसकी तुलना चिपको आंदोलन से की. वह शायद तंज कसना चाहते थे, लेकिन नर्वस दिखे. एक और मंत्री ने राहुल पर ड्रग्स लेने का आरोप लगाया, एक सांसद ने राहुल की हरकत को 'अशोभनीय' बताया. लोकसभा की अध्यक्ष ने तो इसे अमर्यादित घोषित कर डाला. राहुल का कसूर सिर्फ इतना था किउन्होंने प्रधानमंत्री को गले लगाया था.

आखिर में, भूल सुधार और उदारवादी हिंदूवाद पर दावा (दिसंबर 2018)

कई साल से कांग्रेस, बीजेपी-आरएसएस के आक्रामक हिंदुत्व के जाल में फंस रही थी. बचाव में वह ‘गैर-धार्मिक, वामपंथी धर्मनिरपेक्षता’ को अपना रही थी. इस वजह से धार्मिक, लेकिन उदारवादी हिंदू उससे दूर हो गए थे. इससे बीजेपी-आरएसएस के लिए कांग्रेस पर ‘हिंदू-विरोधी’ होने का आरोप लगाना आसान हो गया था. जब भी पार्टी ने इस गलती को सुधारने की कोशिश की, तब उस पर ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ का आरोप मढ़ दिया गया. कहा गया कि वह बीजेपी कीमुख्य विचारधारा की नकल कर रही है.

इन आलोचनाओं के बीच राहुल अडिग रहे. उन्होंने लुटियंस दिल्ली के लिबरल अयातुल्लाओं को किनारे किया और बिना किसी हिचक के महात्मा गांधी के ‘उदारवादी हिंदूवाद’ को अपनाया. यह बीजेपी-आरएसएस के नफरत वाले हिंदुत्व का जवाब था.

मुझे लगता है कि इन चुनावों में कांग्रेस को इसका फायदा मिला है, जिससे इस पर उनका भरोसाऔर बढ़ेगा. महात्मा गांधी ने इसी के आधार पर आजादी का समूचा आंदोलन खड़ा किया था. राहुल इसकी मदद से बीजेपी-आरएसएस की नफरत भरी धर्म की राजनीतिक को कुंद कर सकते हैं.

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आखिरी बात

राहुल ने कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर पारी आत्मविश्वास के साथ शुरू की है. उन्हें कुछ सफलताएं भी मिली हैं. मुझे भरोसा है कि वह समझेंगे कि यह लंबे सफर की तरफ शुरुआती कदम हैं. उन्हें बीजेपी को 2019 में हराने के लिए विपक्ष को एकजुट करना होगा. इसके बाद उन्हें देश के बड़े इलाकों में कांग्रेस को फिर से खड़ा करना होगा, जहां से वह खत्महो गई है.

मैं अपनी बात एक शेर से खत्म करना चाहूंगा:

''सुर्खरू होता है इंसान ठोकरें खाने के बाद, रंग लाती है हिना पत्थर पे पिस जाने के बाद''

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