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जिन शहरों ने मजदूरों को धकिया कर निकाल दिया. पैदल सैकड़ों किलोमीटर चलने को मजबूर किया. भूखा रखा. बेघर कर दिया. उन्हें अब अहसास हो रहा है कि मजदूर उनके लिए जरूरी हैं. कर्नाटक सरकार ने ट्रेन रुकवा दी ताकि बिहार के मजदूर वहां से निकल न जाएं. राज्य के बिल्डरों से मीटिंग के बाद ये फैसला किया गया.
कर्नाटक सरकार के इस एक फैसले के कई आयाम हैं. देश की इकनॉमी में मजदूरों की अहमियत का सवाल है और मलाल है कि सब जानते हैं कि मजदूर कितने जरूरी हैं लेकिन कोई उनकी कद्र नहीं करना चाहता. और इस न चाहने में भी एक चाल है. बड़ी गहरी. बड़ी पुरानी. सदियों पुरानी.
हालांकि PMI गिरने के पीछे ग्राहकों का न होना भी है, लेकिन मजदूरों की कमी का डर भी बड़ा कारण है. और दिहाड़ी मजदूरों, अस्थाई मजदूरों का देश में इकनॉमी और इंडस्ट्री को चलने में कितना योगदान है, ये समझना हो तो बस ये जान लीजिए कि 2017-18 पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक देश के 90 फीसदी से ज्यादा कामगार संगठित क्षेत्र में आते हैं. यानी इन लोगों के पास पक्की नौकरी नहीं है, और इस कारण पक्की नौकरी के साथ मिलने वाली सहूलियतें भी नहीं.
जब तक सरकार ने लॉकडाउन में राहत नहीं दी थी, यानी इंडस्ट्री चालू करने की इजाजत नहीं दी थी, इन मजदूरों की किसी को फिकर नहीं थी. हालांकि तब भी जानकार चेता रहे थे कि अगर लॉकडाउन खुला तो मजदूर बड़ी संख्या में गांव की ओर लौटेंगे, और इंडस्ट्री चलाना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन तब भी किसी ने ध्यान नहीं दिया. मजदूर शहरों में टिके रहें, इसके लिए न तो उन्हें सहूलियत दी गई और न हीं भरोसा.
वही सिस्टम जो चंद रोज पहले मजदूरों को रत्ती भर पूछने को तैयार नहीं था, अब फैक्ट्री, इंडस्ट्री खोलने की इजाजत मिलते ही मजदूरों को उल्टे-सीधे तरीकों से रोकने की कोशिश कर रहा है. मामला सिर्फ कर्नाटक का ही नहीं है. गुजरात में कई बार मजदूरों ने प्रदर्शन किया, पथराव किया. ऐसी भी खबरें आईं कि यूपी लौटते मजदूरों को पास होते हुए भी सीमा पार नहीं करने दिया गया. पंजाब ने बिहार से गुजारिश की कि वो अपने मजदूरों को वापस न ले जाए.
मशहूर अर्थशास्त्री और समाजसेवी ज्यां द्रेज ने क्विंट से एक इंटरव्यू में कहा कि दरअसल कंपनियों के मालिक नहीं चाहते कि मजदूर गांवों की तरफ लौटें. क्योंकि उन्हें पता है कि एक बार बिहार-झारखंड-यूपी-बंगाल-ओडिशा के मजदूर लौट गए तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी. लेबर मिलेगा नहीं,और मिला भी तो महंगा.
तो इस बैकड्रॉप में समझने की कोशिश की कीजिए कि क्यों जब मजदूर किसी तरह अपने गांव लौटना चाहता है तो उसके रास्ते में हजार बाधाएं खड़ी की जाती हैं. चूंकि पूरा सिस्टम ही रसूखदारों की तरफदारी करता है इसलिए मजदूरों की घर वापसी में बैरिकेड लगाने में पुलिस से लेकर प्रशासन तक जुट जाता है.
तो होना तो ये चाहिए था कि चूंकि इकनॉमी से लेकर इंडस्ट्री तक के लिए मजदूर जरूरी हैं तो उनका पूर ख्याल रखा जाता. सरकार से लेकर पूंजीपति तक उन्हें सिर आंखों पर बिठाते. लेकिन ऐसा नहीं होता है. इस लॉकडाउन से पहले और अफसोस कि बाद में भी भारत में किसी दूर दराज के गांव में जब किसी दबंग के पंजे में फंसे किसी दलित की गर्दन को देखिएगा तो उस पंजे में कर्नाटक सरकार को भी ढूंढिएगा और उस दलित के चेहरे में कर्नाटक में फंसे बिहार के मजूदरों को तलाशिएगा. ज्यादा फर्क नहीं दिखेगा.
ऐसा क्यों होता है? इसका जवाब आप कार्ल्स मार्क्स से लेकर वर्गों की उस पुरानी लड़ाई तक में ढूंढ सकते हैं. अफसोस आज तक ये लड़ाई जारी है, शांति कायम नहीं हुई है. और जब तक शांति-सुलह नहीं होगी, इंडस्ट्री-इकनॉमी सुचारू नहीं होगी. हम जितनी जल्दी सीख जाएं, उतना बेहतर.
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