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‘बिहार के मजदूरों को कर्नाटक में रोकना गुलामी और गैरकानूनी’

कर्नाटक सरकार ने मजदूरों को वापस घर भेजने वाले ट्रेन को रोकने का फैसला लिया है.

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कर्नाटक सरकार ने प्रवासी मजदूरों को उनके घर ले जाने वाली ट्रेनों को कैंसिल करने का फैसला किया है. राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव कर्नाटक सरकार के इस फैसले को बंधुआ मजदूरी से जोड़कर देखते हैं. गिरमिटिया मजदूरों का जिक्र करते हुए योगेंद्र यादव कहते हैं कि इन प्रवासी कामगारों की स्थिति गिरमिटिया मजदूर जैसी हो गई है.
वहीं सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े कहते हैं कि कर्नाटक सरकार का ये कदम न सिर्फ निंदनीय बल्कि असंवैधानिक भी है.

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गिरमिटिया मजदूरों जैसा प्रवासी कामगारों का हाल

दरअसल, 19वीं सदी के अंत में 20वीं सदी की शुरुआत में मजदूरों को बिहार, झारखंड जैसे इलाकों से लिया जाता था. उनसे किसी समझौते पर अंगूठा लगवा लिया जाता था. मजदूर सोचते थे कि वो कोलकाता जा रहे हैं, लेकिन उन्हें फिजी, केन्या, ट्रिनिडाड, श्रीलंका जैसे देशों में लाया जाता था और उन्हें एक गुलाम मजदूर की तरह इस्तेमाल किया जाता था.

शोषण किया जाता था. मजदूरों को ले जाने से पहले जो ‘एग्रीमेंट’ साइन कराया जाता था वो ‘एग्रीमेंट’ मजदूरों की भाषा में बन गया ‘गिरमिट’. इससे निकला गिरमिटिया मजदूर.

योगेंद्र यादव कहते हैं कि कर्नाटक सरकार जो आदेश दिया है वो गिरमिटिया मजदूरी से कम नहीं है. मजदूरों को बंद करके रखेंगे, खाना नहीं देंगे, मजदूरों नहीं देंगे, बाहर जाने के लिए ट्रेन नहीं देंगे, ट्रेन का अरेंजमेंट हो गया तो किराया मांगेंगे और फिर किसी तरह से जब मजदूर किराया इकट्ठा करके तैयार हो जाएगा जाने के लिए तो ट्रेन बंद करवा देंगे. ये बंधुआ मजदूरी नहीं तो और क्या है? ये आधुनिक समय की दासता-गुलामी है ये?

द क्विंट के पास वो लेटर मौजूद है, जो नोडल ऑफिसर एन मंजूनाथ प्रसाद ने लिखा है, जिसमें साफ लिखा है कि 6 मई से ट्रेन सर्विस की कोई जरूरत नहीं है. योगेंद्र यादव कहते हैं कि ये चिट्ठी साफ-साफ कहती है कि पहले रेलवे से आग्रह किया गया था कि हर रोज दो ट्रेन बेंगलुरु से दानापुर, बिहार के लिए चलाई जाए यानी उस वक्त जरूरत थी. फिर अचानक चिट्ठी में ऐसा है कि ये जरूरत खत्म हो गई है.
योगेंद्र यादव पूछते हैं क्या मजदूरों की स्थिति अचानक सुधर गई? ऐसा नहीं है. SWAN नेटवर्क की हालिया रिपोर्ट बताती है कि

  • जो प्रवासी मजदूर हैं उनमें से 78 फीसदी को उनके मालिकों ने एक भी रुपया नहीं दिया है.
  • 16 फीसदी को थोड़ा-बहुत दिया गया है
  • 8 फीसदी को ही उनकी मजदूरी मिली है
  • तीन चौथाई मजदूरों के पास 300 रुपये से ज्यादा नहीं है
  • ज्यादातर लोगों के पास सिर्फ दो तीन का खाना है, हर ऐसे कामगार घर वापस जाना चाहते हैं
योगेंद्र यादव पूछते हैं तो दिक्कत क्या है उन्हें वापस भेजने में? क्या मजदूरों ने कहा कि हमें जरूरत नहीं है? क्या बिहार सरकार ने कहा कि हम इन्हें लेने को तैयार नहीं हैं, नहीं, बिहार सरकार तो कह रही है कि हम खर्च उठाने के लिए तैयार हैं. ऐसा भी नहीं है कि कोरोना वायरस की दिक्कत है. फिर ऐसा क्यों किया गया?
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बंधुआ मजदूरी कराना चाहती है सरकार: हेगड़े

हेगड़े कहते हैं कि सरकार ये चाहती है कि मजदूर वापस अपने राज्यों में ना जाए और कर्नाटक में ही मजदूरी करते रहें बंधुआ मजदूर की तरह. ये पूरी तरह असंवैधानिक है. साथ ही संविधान में ये भी है कि भारत का कोई भी नागरिक भारत के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक जा सकता है. अगर आप इसमें कोई रुकावट डालते हैं और अगर आप ये चाहते हो की सस्ते दाम पर मजदूर काम करते रहें तो ये बिलकुल असंवैधानिक और निंदनीय है.

कारोबारियों से क्यों नहीं कहा गया?

हेगड़े कहते हैं कि महामारी के ऐसे दौर में लोग अपने घर जाना चाहेंगे. अपने लोगों के साथ जीना मरना पसंद करेंगे. हां कुछ लोग होंगे जो बाहर रहकर पैसे कमाना चाहेंगे या पैसे कमाकर घर भेजना चाहेंगे. ऐसे में किसी ने कर्नाटक के उद्योगपतियों से ये नहीं कहा है कि आप ज्यादा वेतन देकर इन मजदूरों को रोक लें. उन पर कोई पाबंदी नहीं लगाएं. अब घर जाने के लिए ट्रेन तक रोक लेना असंवैधानिक है.

कर्नाटक सरकार के फैसला के पीछे का खेल?

योगेंद्र यादव कहते हैं कि रिपोर्ट्स बता रही हैं कि इसके पीछे का खेल तब शुरू हुआ जब मुख्यमंत्री की मीटिंग हुई बिल्डर्स के साथ, रियल एस्टेट के लोगों के साथ. ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि इन लोगों ने सरकार से कहा होगा कि हमारे मजदूरों को भेजा जा रहा है तो काम कौन करेगा?

कर्नाटक के स्थानीय मजदूर भी खाली बैठे हैं, शायद काम करने के लिए तैयार होगें. लेकिन वो सस्ते में काम नहीं करेंगे. ऐसे में इन लोगों को मजदूर चाहिए, सस्ता मजदूर चाहिए, बिना शर्त पर काम के लिए तैयार मजदूर चाहिए.

योगेंद्र यादव कहते हैं कि ऐसे मजदूर चाहिए इन लोगों को, इन मजदूरों को खाना नहीं मिलता, पगार नहीं मिलता, उनका ध्यान नहीं रखा जाता. अगर वो घर जाने को तैयार हैं तो ट्रेन कैंसिल कर दी जा रही है.
अगर ये आधुनिक लोकतंत्र के अंदर की दासता-गुलामी नहीं है तो और क्या है. योगेंद्र यादव पूछते हैं कि कहां है न्याय व्यवस्था? कहां है कानून? कहां है सुप्रीम कोर्ट? क्या आप और हम इस आधुनिक गिरमिटिया मजदूर की व्यवस्था को चलने देंगे.

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