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"आर्टिकल 370 की आलोचना करना कोई अपराध नहीं"- प्रोफेसर को SC ने किया बरी, मामला क्या?

Article 370 protest: महाराष्ट्र के एक प्रोफेसर जावेद अहमद हजाम 5 अगस्त 2019 को 'काला दिन' बताया था.

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<div class="paragraphs"><p>महाराष्ट्र के प्रोफेसर पर 'पाकिस्तान' और 'अनुच्छेद 370' को लेकर आरोप, SC ने किया बरी</p></div>
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महाराष्ट्र के प्रोफेसर पर 'पाकिस्तान' और 'अनुच्छेद 370' को लेकर आरोप, SC ने किया बरी

(फोटो:PTI)

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Article 370 Protest: सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने गुरुवार, 7 मार्च को एक याचिका पर सुनवाई करते कहा कि अगर कोई अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने पर आलोचना करता है तो इसे अपराध की तरह नहीं देखा जाना चाहिए.

दरअसल, ये मामला महाराष्ट्र के एक प्रोफेसर जावेद अहमद हजाम से जुड़ा है. उनपर व्हाट्सएप स्टेटस में पाकिस्तान की स्वतंत्रता दिवस पर बधाई देने और जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने को लेकर आलोचना करने का आरोप था. उन्होंने 5 अगस्त 2019 (अनुच्छेद 370 निरस्त किया गया था) को 'काला दिन' बताया था.

शीर्ष अदालत ने कहा कि पुलिस महकमे को देश की लोकतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर संवेदनशीलता दिखानी चाहिए.

प्रोफेसर जावेद अहमद हजाम के व्हाट्सएप स्टेटस को आधार बनाकर महाराष्ट्र पुलिस ने उनपर IPC की धारा 153 (A) के तहत मुकदमा दर्ज किया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने क्या तर्क दिए?

जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां की बेंच प्रोफेसर जावेद अहमद हजाम के मामले की सुनवाई कर रही थी. बेंच ने कहा कि 5 अगस्त, 2019 को 'काला दिवस' बताना विरोध और पीड़ा की अभिव्यक्ति है. 

बेंच ने कहा, "वैध और कानूनी तरीके से असहमति का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (A) के तहत गारंटीकृत अधिकारों का एक अभिन्न अंग है. प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों के असहमति के अधिकार का सम्मान करना चाहिए. सरकार के फैसलों के खिलाफ शांतिपूर्वक विरोध करने का अवसर लोकतंत्र का एक अनिवार्य हिस्सा है. वैध तरीके से असहमति के अधिकार को अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत सम्मानजनक और सार्थक जीवन जीने के अधिकार के एक हिस्से के रूप में माना जाना चाहिए."

जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस उज्जल भुइयां ने कहा, "विरोध या असहमति लोकतांत्रिक व्यवस्था में दायरों के भीतर होना चाहिए. यह अनुच्छेद 19 के खंड (2) के अनुसार लगाए गए उचित प्रतिबंधों के अधीन है. वर्तमान मामले में अपीलकर्ता ने बिल्कुल भी सीमा पार नहीं की है."

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले बॉम्बे हाईकोर्ट ने प्रोफेसर हजाम के खिलाफ चल रहे मुकदमे में उन्हें राहत देने से इनकार कर दिया था. हाइकोर्ट ने कहा था कि प्रोफेसर हजाम की टिप्पणी से समाज के अलग-अलग समूहों में दुर्भावना और वैमनस्य को शह मिल सकती है.

उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, "उच्च न्यायालय ने माना है कि लोगों के एक समूह की भावनाओं को भड़काने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "जैसा कि जस्टिस विवियन बोस ने कहा था कि इस्तेमाल किए गए शब्दों का प्रभाव अपीलकर्ता को उसके व्हाट्सएप स्टेटस पर उचित महिला और पुरुष के मानकों के आधार पर परखना होगा. हम कमजोर और अस्थिर दिमाग वाले लोगों को मानक नहीं मान सकते हैं. हमारा देश 75सालों से ज्यादा समय से एक लोकतांत्रिक गणराज्य रहा है. हमारे देश के लोग लोकतांत्रिक मूल्यों के महत्व को जानते हैं. इसलिए यह इस नतीजे पर आना संभव नहीं है कि ये शब्द अलग-अलग धार्मिक समूहों के बीच वैमनस्य या दुश्मनी, घृणा या दुर्भावना की भावनाओं को बढ़ावा देंगे."

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