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सुप्रीम कोर्ट ने फेक न्यूज की पड़ताल करने वाली वेबसाइट ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर (Muhammad Zubair) को सुप्रीम कोर्ट ने ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर को उनके खिलाफ उत्तर प्रदेश के सीतापुर में दर्ज एक मामले में अंतरिम जमानत दी है.
सुप्रीम कोर्ट ने जुबैर को 5 दिनों के लिए अंतरिम जमानत इस शर्त पर दी कि वह मामले से संबंधित मुद्दे पर कोई नया ट्वीट नहीं करेंगे और सीतापुर मजिस्ट्रेट की अदालत के अधिकार क्षेत्र को नहीं छोड़ेंगे.
साथ ही इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली जुबैर की याचिका पर यूपी पुलिस को नोटिस भी जारी किया है.
बता दें कि जुबैर (Mohammed Zubair) ने तीन कथित हिंदू संतों -यति नरसिंहानंद सरस्वती, बजरंग मुनि को 'हेट मोंगर्स यानी नफरत फैलाने वाले' कहने वाला कहा था, जिसे लेकर यूपी पुलिस ने जुबैर के खिलाफ एफआईआर दर्ज किया था. हालांकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया था. इसी को लेकर दर्ज FIR को रद्द करने की मांग करते हुए जुबैर ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली थी.
जुबैर की तरफ से सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंसाल्विस ने इस मामले को जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस जेके माहेश्वरी की अवकाशकालीन पीठ के सामने तत्काल सुनवाई के लिए रखा था.
सुनवाई के दौरान जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस जेके माहेश्वरी की खंडपीठ ने कहा कि जुबैर को राहत इस शर्त के साथ दी जाएगी कि वह दिल्ली की अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं जाएंगे (जहां एक और FIR के संबंध में उनकी आवश्यकता है) और आगे कोई ट्वीट पोस्ट नहीं करेंगे. अपने फैसले में जज ने कहा,
जुबैर की ओर से सीनियर वकील कॉलिन गोंसाल्विस ने अदालत में कहा कि यूपी पुलिस की ओर से उनके मुवक्किल के खिलाफ दर्ज FIR से पता चलता है कि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया. जुबैर का काम खबर के फैक्टस को चेक करना है, और वह नफरत फैलाने वाले भाषणों की तथ्य-जांच करने की भूमिका निभा रहे थे.
बता दें कि जुबैर के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 295ए (जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कृत्य, जिसका उद्देश्य किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करना है) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67 (इलेक्ट्रॉनिक रूप में अश्लील सामग्री को प्रकाशित या प्रसारित करना) के तहत मामला दर्ज किया गया था.
गोंसाल्विस ने कहा कि जुबैर असल में धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दे रहे थे. उनके खिलाफ सेक्शन 153ए बिल्कुल लागू नहीं होता है. मेरे क्लाइंट ने नफरत फैलाने वालों से सिर्फ इतना कहा था कि नफरत को बढ़ावा देना बंद करो.
गोनसालविस ने कहा कि जुबैर को परेशान करने के लिए एफआईआर दर्ज की गई है, उसी में आरोप झूठे और निराधार हैं और उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 295 ए और आईटी अधिनियम की धारा 67 के तहत अपराध नहीं बनते. क्योंकि ट्वीट में कहीं भी याचिकाकर्ता ने किसी भी यौन कृत्य का उल्लेख नहीं किया या ऐसा कुछ भी नहीं कहा जो एक उचित और विवेकपूर्ण पाठक के मन में यौन इच्छाएं जगा सके जो कि आईटी अधिनियम की धारा 67 के तहत अपराध के लिए पूर्व आवश्यकता है.
वहीं जांच अधिकारी की ओर से पेश हुए एएसजी एसवी राजू ने तर्क दिया कि किसी धार्मिक संतों को सार्वजनिक रूप से नफरत फैलाने वाला कहने के कृत्य से एक विशेष समुदाय की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने और हिंसा भड़काने की क्षमता है और इस प्रकार, कथित अपराध प्रथम दृष्टया सामने आते हैं.
सुनवाई के दौरान यूपी पुलिस की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल (SG) तुषार मेहता ने याचिका पर आपत्ति जताई. उन्होंने कहा कि जुबैर पुलिस कस्टडी में है. उसकी जमानत याचिका निचली अदालत से खारिज होने से पहले ही यहां याचिका लगाई है. इस पर जुबैर की ओर से कोलिन गोंसाल्विस ने कहा कि ये आरोप गलत है.
वहीं तुषार मेहता ने कहा कि जुबैर के वकील गोंजाल्विस ने कोर्ट को ये नहीं बताया कि एफआईआर 1 जून की है. उनकी जमानत याचिका 7 जुलाई को खारिज कर दी गई और वह पुलिस हिरासत में हैं. कोर्ट के आदेश के बाद जुबैर पुलिस रिमांड पर है. यह याचिका दायर करने से पहले ही 7 जुलाई की सुबह जुबैर की जमानत खारिज कर दी गई थी. जिसपर सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंजाल्विस ने कहा कि निचली अदालत ने जो आदेश दिया था, उसकी कॉपी देर रात आई थी.
वहीं तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि यह मामला किसी एक ट्वीट के बारे में नहीं है. बल्कि वह एक ऐसे सिंडिकेट का हिस्सा है जो देश को अस्थिर करने के इरादे से नियमित रूप से ऐसे ट्वीट पोस्ट कर रहा है.
वहीं तुषार महता ने जुबैर पर विदेश से फंडिंग का आरोप भी लगाया और कहा कि विदेशी फंडिंग के भी कई तथ्य मिले हैं. इसी वजह से कोर्ट ने इनकी जमानत याचिका खारिज की है.
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