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Sunday View:जुबैर की आवाज उठाने की हिम्मत कैसे? दरक रहा न्यायपालिका पर विश्वास

आज पढ़ें प्रताप भानु मेहता, जूलियो रिबेरो, तवलीन सिंह, टीएन नाइनन, पी चिदंबरम के विचारों का सार.

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भारत
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मंत्री चाहे हिंसा भड़काएं पर जुबैर की आवाज उठाने की हिम्मत कैसे हुई?

प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि जब नरेंद्र मोदी वैश्विक मंचों पर स्वतंत्रता, शालीनता और संवैधानिक मूल्यों की बात कर रहे थे और आपातकाल को याद कर रहे थे तभी मोहम्मद जुबैर की गिरफ्तारी हो रही थी. शासन के बहकावे में न आते हुए यह देखने का अवसर है कि क्या कहा जा रहा है और क्या किया जा रहा है. ऑल्ट न्यूज़ चलाते हुए मोहम्मद जुबैर ने भारतीय लोकतंत्र की सच्ची सेवा की है. उनका साहस एक प्रेरणा है. उन्होंने सबके ध्यान में यह तथ्य लाया कि सत्तारूढ़ बीजेपी की एक उच्च पदाधिकारी नुपूर शर्मा ने ऐसी टिप्पणी की जिसकी दुनिया भर में आलोचना हुई. सत्तारूढ़ दल की भावनाएं उनके बयानों में व्यक्त हुईं, इसलिए यह अधिक खतरनाक है.

प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि मोहम्मद जुबैर पर कार्रवाई विशुद्ध रूप से बदला है. अंतराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम होने के बाद मोदी सरकार ने बदला लेने की राजनीति शुरू की है. एक और मकसद साफ दिख रहा है कि अभिव्यक्ति की आजादी की बहस को सांप्रदायिक राजनीति का बंधक बनाया जा रहा है. सेलेक्टिव ढंग से धारा 153 का इस्तेमाल हो रहा है. बहुसंख्यक सजा की चिंता किए बगैर जो चाहे करें, मंत्री परिणाम की चिंता किए बगैर हिंसा भड़काएं, लेकिन जुबैर को आवाज उठाने की हिम्मत कैसे हुई?

राजनीतिक विरोधियों पर ईडी, सीबीआई का इस्तेमाल, सांप्रदायिक रूप से टारगेट कर बुलडोजर चलाना, मीडिया पर अंकुश...एक अलग किस्म का आपातकाल है, जिसमें धीमी यातना है, सांप्रदायिकता है. 1975 का आपातकाल दमनकारी था, लेकिन उसने हमारी अंतरात्मा को कुंद नहीं किया था.

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दरक रहा है न्यायपालिका पर अटूट विश्वास

जूलियो रिबेरो ने ट्रिब्यून में लिखा है कि उनका न्यायपालिका पर असीम विश्वास रहा है. अफसोस कि यह विश्वास टूट गया है. दूसरे संस्थानों की तरह खासकर मीडिया की तरह यह भी झुक गया है या इस प्रक्रिया में है. लेखक को यह उम्मीद नहीं थी कि अदालत धारा के विपरीत तैरेगी और जकिया जाफरी के पति की हत्या के मामले में ताकतवर प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहराएगी. लेकिन, ऐसी उम्मीद तो किसी को नहीं रही होगी कि तीस्ता सीतलवाड़ और आरबी श्री कुमार के खिलाफ सर्वोच्च अदालत इतनी निराशजनक टिप्पणी करेगी कि इन्होंने पीएम मोदी को नुकसान पहुंचाने की पूर्व नियोजित साजिश रची !

जूलियो रिबेरो ने आश्चर्य जताया है कि अपने ही पूर्व वरिष्ठ अधिकारी आर बी श्री कुमार के खिलाफ गुजरात पुलिस इतना सख्त रवैया अपनाएगी. अदालत की टिप्पणी को बीजेपी के दिग्गज नेताओं ने तुरंत हाथों हाथ लिया और पुलिस ने तीस्ता और श्री कुमार के खिलाफ केस दर्ज कर लिए. लेखक व्यक्तिगत रूप से दोनों को जानते हैं. वे कहते हैं कि तीस्ता ने अहमदाबाद दंगे में बीजेपी के एक मंत्री को सजा दिलवायी. बाबू बजरंगी को जेल भिजवाया. इन सफलताओं से तीस्ता को शायद ऐसा लगा हो कि वह इस केस में भी सफल होंगी लेकिन इस बार उनके निशाने पर ऐसे व्यक्ति थे जिन पर हाथ डालने की हिम्मत जज भी नहीं करते।

लेखक बताते हैं कि जब गोधरा कांड हुआ था तब बी श्री कुमार छुट्टी पर थे, इसलिए उस मीटिंग का हिस्सा नहीं थे, जो मुख्यमंत्री के आवास पर बुलायी गयी थी. संजीव भट्ट उनके असिस्टेंट थे लेकिन जूनियर होने की वजह से उन्हें वहां दूसरे कमरे में बिठाकर रखा गया. सेना जरूर बुलायी गयी लेकिन उसकी तैनाती में विलंब हुआ. लेखक ने महसूस किया कि निर्देश एक दिन सुस्त चाल से चलने का था. तीस्ता को हिरासत में लेने के बाद अब सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए ताकतवर लोगों के खिलाफ आवाज उठाना मुश्किल होगा. लेखक ने एनएसए अजित डोभाल के भाषण की भी याद दिलायी जिसमें उन्होंने आगे की लड़ाई ‘सभ्य समाज’ से होने की बात कही है.

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जहर फैलने से रोकना होगा

इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं कि यह अजीब संयोग है कि जिस सप्ताह उदयपुर में पहली जिहादी शैली की हत्या हो रही थी उसी सप्ताह फ्रांस में जिहादियों को सजा दी गयी. फ्रांस में इन जिहादियों ने 13 नवंबर, 2015 को कई बेगुनाहों की जानें ली थीं. भारत में पहले भी आतंकी हमले हुए हैं लेकिन कन्हैया लाल की हत्या अलग है. पहली बार उसको मारने का तरीका वही था जो इस्लामी मुल्कों में इस्तेमाल होता है. दोनों हत्यारे गौस मौहम्मद और रियाज पाकिस्तान गये थे जिहादी प्रशिक्षण पाने के लिए.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि यह बताने के लिए कट्टरपंथी इस्लाम असली इस्लाम है और उसका विरोध नहीं हो सकता, बर्बरता के वीडियो वायरल किए गये हैं. जब आईएसआईएस की अपनी सेना बनी थी तो अमेरिका, यूरोप से हजारों युवक उसमें शामिल होने पहुंचे थे. भारत से बहुत कम मुसलमान गये थे. उनमें केरल की हिस्सेदारी ज्यादा थी.

अफसोस हुआ जब भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं ने राजस्थान की इस घटना को कांग्रेस सरकार की तुष्टिकरण की नीतियों का नतीजा बताया. यह समय राजनीति करने का नहीं है, जहरीली सोच से लड़ने का है. आरिफ मोहम्मद खान का सुझाव अच्छा है जिन्होंने बताया कि मदरसों में सिखाया जाता है कि इस्लाम के रसूल के साथ कोई गुस्ताखी करता है तो उसकी जान लेने वाला सवाब पाएंगे जन्नत में. ऐसे मदरसों की जांच की जानी चाहिए.

न्यू इंडिया में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है जिस पर लगाम लगना जरूरी है. मुस्लिम बुद्धिजीवियों पर कार्रवाई गलत है. बीते हफ्ते मोहम्मद जुबैर को गिरफ्तार किया गया जो गलत है. सवाल यह है कि नूपुर शर्मा की गिरफ्तारी क्यों नहीं?

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डॉलर से कमजोर बाकी मुद्राओं से मजबूत हुआ है रुपया

टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में पी चिदंबरम के हवाले से अखबारों में छप रही उन खबरों की सच्चाई की ओर ध्यान दिलाया है जिसमें रुपये की गिरावट को ‘रिकॉर्ड’ बताया जा रहा है. जब कभी रुपया गिरा है तो अमूमन वह रिकॉर्ड ही रहा है. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के बयानों की ओर संकेत कर लेखक बताते हैं कि दुनिया की सभी मुद्राओं में गिरावट देखी जा रही है और उस मुकाबले भारतीय रुपये में गिरावट कम है. इसका मतलब यह है कि वास्तव में डॉलर के अलावा बाकी मुद्रा के मुकाबले रुपया मजबूत हो रहा है. मगर, यह खबर कहीं बतायी नहीं जा रही है.

नाइनन लिखते हैं कि चीन और जापान जैसे देशों में जो दीर्घावधि का सफल विकास नज़र आता है उसकी वजह यह है कि उसने ‘कमजोर मुद्रा’ की नीति को सहजता से लिया. अगर वे ऐसा नहीं करते तो यह बात स्पष्ट थी कि तकनीक या उत्पाद की गुणवत्ता के मामले में दुनिया से ये देश मुकाबला नहीं कर सकते थे.

कमजोर मुद्रा से निर्यात बढ़ता है और जब निर्यात बढ़ता है तो कमजोर मुद्रा की स्थिति भी नियंत्रित रहती है. नेहरू के आत्मनिर्भरता के वर्षो समेत अधिकांश समय भारत ने रुपये को अधिमूल्यित रखा. नतीजा यह हुआ कि एशियाई देशों का व्यापार बढ़ा लेकिन भारत का विश्व व्यापार में हिस्सा गिरते हुए 2.5 प्रतिशत के स्तर पर आ गया. लेखक का मानना है कि रुपये को मजबूत करने के लिए रिजर्व बैंक से अरबों डॉलर झोंकते रहना गलत है.

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बंटे हुए हैं दुनिया के दो बड़े लोकतंत्र

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे में यह बात सामने आयी है कि 61 फीसदी अमेरिकी वयस्क गर्भपात को वैध बनाने के पक्ष में हैं जबकि 37 प्रतिशत विरोध में. यह विभाजन राजनीतिक तौर पर भी वहां है. 1973 में रो बनाम वेड मामले में जिस गर्भपात के अधिकार को मान्यता दी गयी थी और जिसकी पुष्टि 20 साल बाद ‘प्लान्ड पेरेंटहुड ऑफ साउथइस्टर्न पेन्सिलवेनिया बनाम केसे’ मामले में हुई थी. अमेरिकी महिलाएं तीन पीढ़ियों से गर्भपात का अधिकार इस्तेमाल कर रही हैं.

24 जून 2022 को ‘डाब्स बनाम जैकसन वुमेंस हेल्थ आर्गनाइजेशन’ मामले में पांच-तीन के बहुमत से सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि संविधान गर्भपात का अधिकार प्रदान नहीं करता.

चिदंबरम लिखते हैं कि गृहयुद्ध के बाद अमेरिका कभी इतना विभाजित कभी नहीं रहा था. संयुक्त राज्य अमेरिका के आधे से ज्यादा राज्य गर्भपात को व्यावहारिक रूप से गैरकानूनी बना देंगे और बाकी आधे राज्य गर्भपात की अनुमति देंगे. सुप्रीम कोर्ट का फैसला दोषयुक्त है क्योंकि इसका आधार यह तर्क है कि गर्भपात को लेकर संविधान में कोई संदर्भ नहीं है. ऐसी कई बातें हैं जिसका संदर्भ अमेरिकी संविधान में नहीं है. जैसे, निजता का अधिकार, नस्लवाद, गर्भनिरोधकों की इजाजत, समान लिंग में दैहिक संबंध आदि. सवाल यह है कि क्या इन विषयों पर बने कानून बदल दिए जाएंगे?

लेखक शुक्र मनाते हैं कि भारत में गर्भपात का अधिकार निजता के अधिकार में आता है. भारत में 24 हफ्ते तक के गर्भ की अवधि में गर्भपात का अधिकार है. जाति, धर्म, भाषा और लैंगिक समानता को लेकर भारत पहले से बंटा हुआ है और अब भाजपा का बहुसंख्यकवाद और उसकी केंद्रीयकृत नीतियां बंटवारे की खाई को और अधिक चौड़ी कर रही हैं. दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र इस तरह से लोगों को बांट देंगे, क्या कभी किसी ने सोचा होगा?

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