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संडे व्यू: जिंदा हो सकती है कांग्रेस! क्रिकेट पर भारी मोदी का कद?

पढ़ें आज करन थापर, तवलीन सिंह, प्रताप भानु मेहता, टीएन नाइनन और मुकुल केसवान के विचारों का सार.

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भारत
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Sunday View

(फोटो: Altered by Quint Hindi)

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‘जिंदा’ हो सकती है कांग्रेस!

करन थापर हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि निराशा के बीच अगर कोई नेता अपनी पार्टी के पुनरोद्धार के बारे में सोचता है तो यह स्वाभाविक है. ऐसा अगले चुनाव में या आने वाले कई एक चुनाव के बाद हो सकता है. मगर, दो चुनावों में लगातार पराजय के बाद पुनरोद्धार के विचार को खारिज नहीं किया जा सकता. हमें न तो ब्रिटेन में लिबरल्स के गौरवशाली अतीत को भूलना चाहिए और न ही अपने देश में स्वतंत्र पार्टी, जनता पार्टी और शायद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को भी. कांग्रेस के मामले में देखें तो बिहार, यूपी, तमिलनाडु, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में सिमटने के बाद कांग्रेस कभी दोबारा सत्ता में नहीं आ सकी.

करन थापर राजनीतिक विश्लेषक पालशिकर के हवाले से लिखते हैं कि कांग्रेस को संगठनात्मक रूप से और राजनीतिक गोलबंदी के मोर्चे पर काम करने की जरूरत है. संगठन को लोकतांत्रिक होना होगा. कांग्रेस वर्किंग कमेटी में चुनाव जरूरी है. मंथन से ही पार्टी को जिंदगी मिल सकती है.

गांधी परिवार को अपवाद रखते हुए कांग्रेस अपने संगठन में ‘एक परिवार एक पद’ का नारा लागू कर सकती है. इससे क्षेत्रीय स्तर पर काबिज दबंग परिवारों का एकाधिकार खत्म होगा. राजनीतिक गोलबंदी पर पालशिकर के हवाले से लेखक कहते हैं कि कांग्रेस को और विनम्र होना होगा. नेतृत्व करने की जिद भी कांग्रेस को छोड़नी होगी. क्रोनी कैपिटलिज्म और सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे पर कांग्रेस आम जनता को कितना जगा पाती है, यह भी महत्वपूर्ण है. फिलहाल जनता इन मुद्दों से खुद को कनेक्ट नहीं कर पा रही है.

विकेंद्रीकरण के 30 साल

भानु प्रताप मेहता द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि 73वें और 74वें संविधान संशोधन के 30 साल पूरे हो रहे हैं. पंचायत और नगरी निकायों को मजबूत बनाने वाले इन संशोधनों के बावजूद भारतीय प्रशासन हमेशा से ही जरूरत से ज्यादा केंद्रीकृत रहा है. आजादी के बाद से ही भारतीय लोकतंत्र वास्तव में कभी विकेंद्रीकरण के प्रति समर्पित नहीं रहा है. शुरू से ही यह धारणा रही है कि केंद्रीकृत शक्तियां स्थानीय सत्ता केंद्रों को तोड़ने का काम करती हैं. भारत सरकार स्थानीय प्रशासन पर कम से कम संसाधन खर्च करती रही है. गांधीवादी विकेंद्रीकरण महज आदर्श ही बने रहे हैं.

भानु प्रताप मेहता लिखते हैं कि विकेंद्रीकरण में कभी सत्ता और संसाधनों का हस्तांतरण नहीं होता. फिर भी 73वें और 74वें संविधान संशोधन से विभिन्न क्षेत्रों में करोड़ों नागरिकों को फायदा हुआ है. आम धारणा रही है कि राज्य सरकारों की स्थानीय निकायें सक्षम नहीं रही हैं. सच्चाई इससे उलट है.

स्थानीय स्तर पर खुद राज्य सरकार अक्षम रही है. इसकी वजह शीर्ष स्तर से समर्थन और सहयोग का अभाव रहा है. वास्तव में स्थानीय राजनीतिक स्पर्धा कई प्रदेशों में बढ़ चुकी है. स्थानीय सरकारों को कई तरह की तकनीकी, प्रशासनिक और वित्तीय स्थितियों से जूझना पड़ता है. जयललिता ने मुख्यमंत्री रहते पहली बार जिला स्तर पर एकीकृत स्थानीय सरकार को मजबूत किया. शहरी और ग्रामीण इलाकों में फर्क के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया. भारत के शहरी करण के लिए कई फैसलों के दूरगामी परिणाम निकले. इसके अलावा विकेंद्रीकरण के पीछे के दर्शन में संस्थानों के प्रति विश्वास मजबूत रहा है.

विकेंद्रीकरण के जरिए शासन मजबूत होता है. भारत को एक देश के रूप में पुनर्स्थापित करने के लिए यह एक सुधार है. लोकतंत्र के प्रति हमारे व्यवहार पर यह विषय निर्भर करता है. 73वें और 74वें संशोधनों के प्रति गंभीरता की कमी वास्तव में स्वयं लोकतंत्र के प्रति हमारी गंभीरता को बयां करता है.

क्रिकेट पर भारी 'कद'

द टेलीग्राफ में मुकुल केसवान लिखते हैं कि क्रिकेट के दीवाने देशों के प्रधानमंत्रियों को क्रिकेट इवेंट के एल्बम से बाहर कर पाना मुश्किल है. 1991 में कॉमनवेल्थ देशों के प्रमुख जुटे थे जहां पाकिस्तानी मिशन को पूरा करने के लिए नवाज शरीफ ने एक चैरिटी मैच का आयोजन किया था. इसमें ब्रिटेन के जॉन मेजर, ऑस्ट्रेलिया के बॉब हॉक, मालदीव्स के अब्दुल गयूम और खुद नवाज शरीफ शामिल हुए थे. सभी सफेद कपड़ों में नजर आए. क्लाइव लॉयड, डेव हॉटन और ग्रीम हिक भी उसमें शरीक हुए. शरीफ ने अपने कदमों का इस्तेमाल करते हुए एक गेंद को छह रन के लिए आसमानी शॉट खेला था.

मुकुल केसवान ऐसी कई घटनाओं का जिक्र अपने लेख में करते हैं जब विभिन्न राष्ट्राध्यक्ष खेल के रंग में रंगे और खेलप्रेमियों के बीच दिखे. अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में क्रिकेट पर मोदी का कद हावी होता दिखा. जब इस स्टेडियम का नाम नरेंद्र मोदी के नाम पर रखा गया था तब राष्ट्रपति ने स्टेडियम का उद्घाटन किया था. फरवरी 2020 में नमस्ते ट्रंप रैली इसी स्टेडियम में हुई थी. यह स्टेडियम मोदी के नाम का स्मारक है.

प्रैक्टिस मैच से दूर क्रिकेट खिलाड़ी भेज दिए गए, मैच देर से शुरू हुआ और विशालकाय स्क्रीन पर मोदी और अल्बनीज एंथोनी छाए रहे. दोनों नेता एक बग्गी पर सवार हुए, मोटरबोट पर कैद हुए और मैदान के चारों ओर भीड़ का अभिवादन स्वीकार किया. नरेंद्र मोदी के लिए यह नया नहीं था, लेकिन अल्बनीज के लिए यह निश्चित ही अनोखा अनुभव रहा होगा.

नरेंद्र मोदी अपने हाथों में नरेंद्र मोदी की तस्वीर लेकर नरेंद्र मोदी स्टेडियम में फोटो खिंचा रहे थे.
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क्यों मची है कर्ज चुकाने की होड़?

बिजनेस स्टैंडर्ड में टीएन नाइनन लिखते हैं कि हिंडनबर्ग रिसर्च ने शॉर्ट सेलिंग के माध्यम से अडानी समूह पर जो हमला किया उसका एक अनचाहा लेकिन अच्छा परिणाम यह हुआ है कि कंपनियां अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के क्रम में अत्यधिक ऋण लेने के खतरों के प्रति सचेत हुई हैं. कर्ज चुका कर अडानी आत्मविश्वास बहाल करने की कोशिशों में जुटे हैं. वेदांत समूह के अनिल अग्रवाल भी मध्यम अवधि में एक लाख करोड़ से अधिक का कर्ज चुकता कर ऋण शून्य की स्थिति प्राप्त करने का दावा कर रहे हैं. मुकेश अंबानी ने तीन साल पहले 1.6 लाख करोड़ रुपये का कर्ज चुका कर ऐसा ही किया था. हालांकि, अडानी पर कर्ज 3.39 लाख करोड़ रुपये का है.

नाइनन लिखते हैं कि हिंडनबर्ग मामले के बाद अडानी समूह पहले की कुछ निवेश योजनाओं को ठप कर चुका है. अब यह देखना होगा कि क्या वेदांत समूह, जिसने सेमी कंडक्टर परियोजना के लिए फॉक्सकॉन के साथ समझौता किया है, उसे अभी अपनी कुछ योजनाओं को इसी तरह बंद करना पड़ेगा?

जेएसडब्ल्यू समूह पर 1 लाख करोड़ का कर्ज भी प्रबंधन योग्य माना जा रहा है लेकिन उसके पास भी और अधिक कर्ज की गुंजाइश नहीं है. कई कंपनियों ने अपने कर्ज-इक्विटी अनुपात को हाल के वर्षों में सुधारा है लेकिन क्या वे इतनी बड़ी हैं कि भारी-भरकम परियोजनाओं को संभाल पाएं? मुश्किल यह है कि बजट के जरिए दिया गया पूंजी निवेश पहले ही बहुत अधिक है और अगर सरकार आगे और मदद करती है तो राजकोषीय गणित का बिगड़ना तय है. आखिर में कुछ योजनाओं पर पुनर्विचार करना ही होगा.

गालियां देकर मोदी को नहीं हरा सकती कांग्रेस

तवलीन सिंह जनसत्ता में लिखती हैं कि राहुल गांधी विदेश नीति पर पूछे गए सवाल का जवाब देकर उलझ गए. उन्होंने ऐसी स्थिति पैदा कर दी मानो विदेश नीति के बारे में वे अपनी कोई समझ ही नहीं रखते. विदेश नीति में गुटनिरपेक्ष जैसी चीज लाने का इरादा है या नहीं- इसका जवाब राहुल ‘हां’ या ‘ना’ में देकर निकल सकते थे. लेकिन, जवाब ऐसा दिया कि विरोधियों को उन्हें ट्रोल करने का मौका मिल गया.

इस बयान के पहले तक राहुल गांधी का लंदन दौरा बहुत कामयाब माना जा रहा. कई वरिष्ठ पत्रकार भारत में राहुल गांधी की प्रशंसा में जुटे थे. 2024 में उन्हें मोदी को चुनौती देने वाला बता रहे थे. लेकिन, अब वही लोग ये कहने लगे कि जब राहुल के आसपास उनके सलाहकार नहीं होते हैं तो उनके लिए साधारण सवालों के जवाब देना भी कठिन हो जाता है.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि निजी तौर पर उन्हें पहले से अंदेशा रहा है कि राहुल गांधी दिल से राजनीति में नहीं हैं. 2014 में चुनाव हारने के बाद हफ्तों विदेश में गायब हो जाना और लौटकर नरेंद्र मोदी पर हमला करना बड़ा उदाहरण है. 2019 के आम चुनाव में भी राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया. प्रियंका गांधी को चुनाव मैदान में उतारकर जो दावे किए गये थे, सब हवा हो गए. लगातार हार के बाद कभी राहुल गांधी ने चिंतन नहीं किया. नतीजा यह है कि अब भी कांग्रेस के पास एक ही मुद्दा है और वह है मोदी को गालियां देना.

खुद को मोदीभक्त नहीं मानते हुए लेखिका का दावा है कि वर्तमान स्थिति यह है कि मोदी को हराने वाला कोई राजनेता दूर तक नहीं दिखता है. कांग्रेस ही मुकाबला दे सकती है लेकिन अभी तक उसकी कोई चुनावी रणनीति नहीं दिखती है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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