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2001 में थियेटर आर्टिस्ट फिल्ममेकर कीर्तना कुमार की डॉक्यूमेंटरी गुह्य एक समारोह में दिखाई गई थी. इसमें सेक्स वर्क (Sex Workers) को लेकर नए सवाल किए गए थे. आज से बीस साल पहले ऐसे सवाल आसान नहीं थे. इसमें सेक्स वर्क को औरत की सेक्सुएलिटी और प्रोफेशन के इंटरसेक्शन के तौर पर देखा गया था.
सुप्रीम कोर्ट ने जब अपने फैसले में सेक्स वर्क को एक प्रोफेशन कहा तो यह डॉक्यूमेंटरी याद आ गई. एक तरह से अदालत ने उस इंटरसेक्शन की तरफ इशारा जरूर किया है. यानी दया मत दिखाइए. हक दीजिए. दो साल पहले कोविड-19 के लॉकडाउन के दौरान भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सेक्स वर्कर्स को ‘विमेन एट वर्क’ कहा था.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने महिला अधिकारों के संबंध में जो एडवाइजरी जारी की थी, उसमें सेक्स वर्कर्स को ‘विमेन एट वर्क’ के रूप में मान्यता दी गई थी और उन्हें अनौपचारिक श्रमिकों के दायरे में रखा गया था. ऐसे में यह उम्मीद जगी थी कि सेक्स वर्कर्स को सामाजिक कल्याण की योजनाओं के लाभ हासिल करने के लिए जरूरी डॉक्यूमेंट्स आसानी से मिल सकेंगे. यह कदम इस लिहाज से भी सराहनीय था क्योंकि सेक्स वर्कर्स को लेकर अक्सर दो तरह की भावनाएं ही रहती हैं- या तो औरतों की देह के शोषण पर आक्रोश दिखाया जाता है, या फिर पुरुष वासना की शिकार असहाय औरतों पर दया दिखाई जाती है.
ऐसा क्यों है. इसकी वजह यह है कि सेक्स वर्क को लेकर एक हिचक मौजूद है. यह माना जाता है कि सेक्स वर्क औरतों को भ्रष्ट करता है और उनके शोषण का कारण बनता है. उन्हें ‘ऑब्जेक्ट’ में तब्दील कर देता है. यह धारणा इस नजरिये के कारण पैदा होती है कि नकद लेनदेन से सेक्स जैसे अंतरंग कृत्य की पवित्रता दूषित हो जाती है.
इसीलिए ‘अच्छी औरतें’ इस पवित्र काम के लिए पैसे की मांग नहीं कर सकतीं. ‘अच्छी’ औरत आजीविका के साधन के रूप में सेक्स वर्क का विकल्प नहीं चुनती और जो महिलाएं ‘अपनी मर्जी’ से ऐसा करती हैं, वे नहीं समझतीं कि उनका दैहिक शोषण होता है. इसके अलावा सेक्स वर्क को अक्सर मानव तस्करी के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है.
यह उस सुधारवादी दृष्टिकोण से प्रेरित है जिसके तहत यह माना जाता रहा है कि वासना भरे पुरुषों से औरतों को बचाना जरूरी है. बेशक, मानव तस्करी एक जघन्य अपराध है लेकिन इसकी एक बहुत बड़ी वजह गरीबी है. इसके चलते औरतें अक्सर ऐसे एग्रीमेंट्स करती हैं ताकि उन्हें बेहतर आजीविका मिले और बेहतर जिंदगी भी. लेकिन एक्टिविस्ट्स का यह भी मानना है कि सेक्स वर्क हिंसा इसलिए है क्योंकि वह अनिच्छा से, जबरन, बहला-फुसलाकर, ब्लैकमेल करके कराया जाता है.
यह सहमति न होना ही सबसे बड़ी दिक्कत है जो सेक्स वर्कर्स की अपनी एजेंसी पर ही सवाल खड़े करती है. इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है. 2011 के पहले पैन-इंडिया सर्वे ऑफ सेक्स वर्कर्स में रोहिणी साहनी और वी. कल्याण शंकर ने कई दिलचस्प बातें बताई थीं. इस सर्वे में कहा गया था कि गरीबी और अशिक्षा के कारण औरतें बहुत कम उम्र में श्रम बाजार में दाखिल होती हैं. वहां उनके लिए जो तमाम विकल्प मौजूद होते हैं, उनमें से एक सेक्स वर्क भी है. ऐसा नहीं है कि सबसे पहले सेक्स वर्क को ही चुना जाता है.
कई बार श्रम के दूसरे विकल्पों को पहले चुना जाता है और सेक्स वर्क सप्लिमेंटरी आय का जरिया बन जाता है. चूंकि बहुत सी औरतें अकुशल श्रमिकों के तौर पर मैन्यूफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्रों में, बहुत कम मजदूरी पर काम कर रही होती हैं. इसी से सर्वेक्षण में यह बात भी उभरकर आई कि सेक्स वर्कर्स में से ज्यादातर ऐसी औरतें थीं जिन्हें वैकल्पिक श्रम, खासकर अकुशल श्रम, का अनुभव था. इसमें 1488 सेक्स वर्कर्स ऐसी थीं जो सेक्स वर्क से पहले दूसरे पेशों में काम कर चुकी थीं. उनके मुकाबले 1158 औरतें ही ऐसी थीं जो सीधे सेक्स वर्क में ही दाखिल हुई थीं. जाहिर सी बात है, दूसरे पेशों में भी अक्सर च्वाइस का अभाव होता है. न काम की शर्तें तय करने में च्वाइस काम आती है, और न ही मजदूरी के मामले में. काम की स्थितियां दूसरे पेशों में भी बुरी होती हैं और शोषण जारी रहता है- अक्सर दैहिक भी.
जैसा कि कोलकाता में 65,000 से ज्यादा सेक्स वर्कर्स के कलेक्टिव दरबार महिला समन्वय समिति के संस्थापक समरजित जाना का कहना है-
इसीलिए सेक्स वर्क को लैक ऑफ च्वाइस (यानी नापसंदगी) मानना गलत है. सेक्स वर्कर्स पीड़ित नहीं हैं. उन्हें दया की जरूरत नहीं है. जैसे 2018 में कर्नाटक की पूर्व महिला एवं बाल विकास मंत्री जयमाला ने सेक्स वर्कर्स को ‘दमिन्त्रा महिला’ यानी दमित महिला कहे जाने का अभियान चलाया था.
तब लेडीज फिंगर नामक एक वेबसाइट में लिखे एक आर्टिकल में पत्रकार शरण्या गोपीनाथ ने एनएफएचएस के 2015-16 के डेटा का हवाला दिया था, कि देश में सिर्फ 5.6% शादीशुदा औरतें सेक्स के दौरान अपने पति को कंडोम का इस्तेमाल करने को कह पाती हैं. जबकि 2013 के नेशनल सेंटर ऑफ बायोटेक्नोलॉजी इनफॉरमेशन की स्टडी में बताया गया था कि करीब 60% सेक्स वर्कर्स में असुरक्षित सेक्स के लिए अपने क्लाइंट्स को मना करने की क्षमता है. आर्टिकल में सवाल था, इन दोनों समूहों में दमित कौन है, आप ही बताएं.
जहां तक दमन और शोषण का मामला है, शोषण सेक्स सर्विस में नहीं, जिन स्थितियों में यह किया जाता है, उनमें है. दरअसल सेक्स वर्कर की संवेदनशीलता, उसकी वर्नेबिलिटी, काम की असुरक्षित स्थितियों के कारण पैदा होती है. यह क्रिमिनलाइज्ड वातावरण में किया जाता है. यानी सेक्स वर्क तो गैर कानूनी नहीं है लेकिन जिस तरह से यह किया जाता है, वह गैर कानूनी है.
यानी वेश्यालय चलाना, किसी को लुभाना-रिझाना, सेक्स वर्क की कमाई से गुजारा करना, सेक्स वर्कर पाए जाने पर मेजिस्ट्रेट द्वारा महिला को हिरासत में रखना. यानी सेक्स वर्कर्स कानून के साथ विरोध में रहती हैं. अपराधी गैंग, तस्कर, कानून प्रवर्तन करने वाली एजेंसियां, उन्हें पेमेंट न करने वाले क्लाइंट, वेश्यालयों के मालिक, अक्सर उनका शोषण करते हैं (कई बार आर्थिक और कई बार सेक्सुअल).
ऐसे में ज्यादातर एक्टिविस्ट्स यह मांग करते हैं कि सेक्स वर्क को लीगल न करें, डीक्रिमिनलाइज, यानी अपराध मुक्त करें. यानी सेक्स वर्क वैध न हो, पर अपराध भी न रहे. 2015 में संयुक्त राष्ट्र की महिलाओं से हिंसा पर स्पेशल रेपोटर राशिदा मंजू ने अपने एक अध्ययन में कहा था कि जिन देशों में सेक्स वर्क को डीक्रिमिनलाइज किया गया है, वहां सेक्स वर्कर्स ज्यादा सुरक्षित हैं. इसके अलावा सेक्स वर्क को डिक्रिमिनलाइज करने से यौन संक्रमणों और यौन शोषण के खतरे भी कम होते हैं, जैसा कि अमेरिका के रोड आइलैंड के मामले में देखा गया. कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के यूसीएलए लस्किन स्कूल ऑफ पब्लिक अफेयर्स ने यह पाया गया.
कुल मिलाकर, सेक्स वर्क को बाइनरी में न देखा जाए. यानी अच्छा या बुरा, नैतिक या अनैतिक. उसे जीवन के एक ऐसे ढंग के रूप मे देखा जाए जिसमें हिंसा, विक्टिमहुड, स्वायत्तता और एजेंसी सब कुछ है. यह देखने की जरूरत है कि सेक्स वर्क में तरह तरह के रंग है, सिर्फ काला या सफेद नहीं. सेक्स वर्कर्स महिलाओं का एक ऐसा समूह है जो रोजी-रोटी के लिए काम कर रही हैं, और उन्हें देश के बाकी मजदूरों की ही तरह सुरक्षित कार्यस्थल और सामाजिक सुरक्षा की दरकार है.
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