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जस्टिस वीएस सिरपुरकर कमीशन (Justice VS Sirpurkar Commission) ने 2019 हैदराबाद एनकाउंटर मामले (2019 Hyderabad encounter case) को लेकर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है, रिपोर्ट में एक ऐसा सवाल का उल्लेख किया गया है जो पुलिस के "अविश्वसनीय" बयानों की खामियों को उजागर करता है. जिसके कारण 2019 में 26 वर्षीय वेटनरी डॉक्टर दिशा के बलात्कार और हत्या के 4 आरोपियों की हत्या हो गई.
आयोग : आपके कहने का मतलब क्या यह है कि वहां जो बचे हुए अन्य दो (संदिग्ध) खड़े थे, वे भागने के बजाय वहां खड़े होकर गोली लगने का इंतजार कर रहे थे?
पुलिस अफसर : मैं कह नहीं सकता.
20 मई 2022 को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है. उसी रिपोर्ट में आयोग ने यह तर्क दिया है कि हैदराबाद पुलिस का मामला कितना विचित्र रहा.
27 नवंबर 2019 को दिशा के साथ बलात्कार और हत्या का आरोप सी चेन्नाकेसावुलु, जोलू शिवा, जोलू नवीन और मोहम्मद आरिफ पर लगाया गया था.
चारों 6 दिसंबर, 2019 को हैदराबाद के पास चटनपल्ली में पुलिस के साथ 'मुठभेड़' में मारे गए थे. उन चारों पर कथित तौर से दस पुलिस अफसरों पर गोली चलाने का और मौके से फरार होने का आरोप लगाया गया था. व्यापक तौर पर इस एनकाउंटर लेकर कहा जा रहा था कि यह फेक यानी फर्जी एनकाउंटर है, इस मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में जस्टिस सिरपुरकर कमीशन को नियुक्त किया था.
पुलिस द्वारा प्रस्तुत 'प्राइवेट डिफेंस' या 'सेल्फ-डिफेंस' के दावे को आयोग ने रिपोर्ट में खारिज कर दिया. आयोग का कहना है कि 10 पुलिस अफसरों पर आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या का मुकदमा चलाया जा सकता है.
आइए देखते हैं आखिर 2021 में महीनों तक गवाहों और सबूतों की जांच करने के बाद जस्टिस वीएस सिपुरकर कमीशन ने क्या कुछ पाया :-
पूछताछ करने वाला एक संदेहात्मक 'सेफ हाउस', मल्टीपल लॉग वाली एक बस, एक ऐसा मैदान जिसमें पुलिस पर फेंकने के लिए कोई लूज गीली मिट्टी या कीचड़ नहीं था, एक बंध जिसका उल्लेख कंफेशन रिकॉर्ड में नहीं है, कई बार रिकवर होने वाला एक पाउच (थैली), गुम हुआ एक कारतूस और पुलिस वाले जो जादुई रूप से एक ही समय पर प्रतिक्रिया भी कर रहे थे और बेसुध भी थे.
आगे पढ़िए क्विंट कैसे-कैसे इस मामले में अंदर तक गया. और कमीशन ने कौन से 5 झूठ पकड़ें:
जिस दिन चारों संदिग्ध मारे गये थे उसके एक दिन पहले 5 दिसंबर 2019 को चारों आरोपियों को पुलिस हैदराबाद के पास मानिकोंडा स्थित रवि गेस्ट हाउस में लेकर गई थी. यह गेस्ट हाउस एक मोटल भी है जिसे लीज पर एक 'सेफ हाउस' की तरह भी माना जाता था.
पुलिस के अनुसार, यही (मोटल या 'सेफ हाउस') पर चारों आरोपी सी चेन्नाकेसावुलु, जोलू शिवा, जोलू नवीन और मोहम्मद आरिफ से पूछताछ (इंट्रोगेशन) की गई. पूछताछ के दौरान पुलिस के सामने कथित तौर पर संदिग्धों ने स्वीकार किया कि उन्होंने दिशा की चीजों सहित महत्वपूर्ण सबूतों को चट्टानपल्ली के पास एक खुले मैदान में छिपाया था.
इसका भी कोई रिकॉर्ड नहीं था उस जगह के किराए का कोई भुगतान किया गया हो. सबसे अहम बात यह है कि जिस पुलिस अफसर के बारे में ऐसा माना जा रहा है कि उसने पूछताछ की थी, वह अफसर 21 घंटे से सेफ हाउस पर नहीं आया था. अगर संदिग्धों से पूछताछ करनी ही नहीं थी उन्हें सेफ हाउस क्यों लाया गया था?
जबकि आरोपियों ने पहले कहा था कि उन्होंने नेशनल हाइवे NH 44 के पास एक अलग जगह पर जहां दिशा का शव मिला था वहां पर मटेरियल ऑब्जेक्ट्स यानी भौतिक वस्तुओं को डिस्पोज किया था. लेकिन इसके बावजूद भी आरोपियों को उस जगह पर क्यों ले जाया गया जहां बाद में एनकाउंटर हुआ था?
इसके बाद पुलिस चारों आरोपियों को एक बस में चटनपल्ली ले गई, जिसकी रजिस्ट्रेशन नंबर TS 09 PB 4760 था. आयोग ने अपनी जांच में पाया कि इस बस में "गंभीर विरोधाभास" थे.
उनमें से एक पुलिसवाला 6 जनवरी 2019 को सुबह 12 बजे बस लेकर सेफ हाउस पहुंचा था. इसका मतलब यह हुआ कि संदिग्धों द्वारा कथित रूप से कबूल किए जाने से पहले बस को लाया गया था.
पुलिस के अनुसार स्पॉट पर पहुंचने के बाद आरोपी उन्हें (पुलिस को) "पांचवें बंध" या ऊंचे मैदान में ले गए. ऐसा माना जाता है कि सबूतों को यहीं पर दफनाया गया था.
ऐसे में फिर क्यों संदिग्धों को मैदान के दूर तक पुलिस क्यों ले गई, और फिर वहां क्या हुआ?
पुलिस के अनुसार, संदिग्धाें ने मिट्टी फेंकी और वहां से चंपत होने से पहले उन्हें (पुलिस को) अक्षम बना दिया. हालांकि, आयोग ने पाया है कि ऐसा नहीं हो सकता था क्योंकि जमीन पर पेड़-पौधे ग्रोथ कर रहे थे, ऐसे में लूज मिट्टी या कीचड़ ढूंढ पाना मुश्किल था.
इसके अलावा कमीशन ने अपनी जांच में यह भी पाया कि न तो पुलिस की वर्दी में और न ही मारे गए लोगों के शवों में मिट्टी पायी गई. ऐसे में फिर पुलिस ने फायरिंग क्यों की?
पुलिस के अनुसार, उनमें से एक संदिग्ध मोहम्मद आरिफ ने एक पुलिस अफसर की पिस्टल छीन ली और गोली चला दी. हालांकि वह पिस्टल पुलिस अफसर के शरीर पर बंधे एक काले पाउच से छीनी गई थी. रिकवरी रिकॉर्ड्स का अध्ययन करने के दौरान आयोग ने पाया कि इस पाउच को कई स्थानों से कई बार बरामद (रिकवर) किया गया था.
चलिए अभी के लिए मिस्ट्री पाउच को अकेला छोड़ देते हैं. लेकिन क्या फायरिंग की "अविश्वसनीय" व्याख्या को नजरअंदाज किया जा सकता है?
पुलिस के अनुसार, आरिफ ने 99 एमएम की पिस्टल छीनते हुए पुलिस अफसरों पर अंधाधुंध फायरिंग कर दी. लेकिन आयोग ने यह पाया कि उस समय पिस्टल "मैग्जीन लोड" मोड पर थी. इसका मतलब यह हुआ कि पिस्टल से तभी गोली चलाई जा सकती थी जब किसी ने इसे "चैंबर लोड" मोड पर डाला हो. ऐसे में वे आरोपी, जो इसके लिए प्रशिक्षित नहीं थे, क्या ऐसा कर सकते थे?
आयोग ने पाया है कि एक वर्जन था जहां दो संदिग्धों (आरिफ और चेन्नाकेसावुलु) द्वारा अंधाधुंध फायरिंग की गई, जिसकी वजह से बचे हुए दो संदिग्धों की गोलियां लगीं और उनकी मौत हो गई.
हालांकि, आयोग ने इस दावे को खारिज कर दिया है क्योंकि जिन गोलियों से संदिग्धों की मौत हुई वे गोलियां 'हाई वेलोसिटी यानी कि उच्च वेग' वाली थीं, जो AK 47 और पुलिस के अन्य हथियारों से चलाई जाती हैं न कि 'लो वेलोसिटी यानी कम वेग' वाली थीं जैसे कि कथित तौर पर पुलिसवालों से छीनी गई पिस्टल की तरह.
आयोग के मुताबिक झूठ यहीं खत्म नहीं हुआ. जो कथित हमला हुआ था उसमें कथित रूप से दो पुलिस अफसर भी घायल हुए थे. हालांकि एक समय में वहां एक अफसर प्रतिक्रिया भी कर रहा था और बेसुध भी था.
इसके बाद जो घटनाएं हुईं वो और भी अजीबोगरीब थीं.
क्या यह एक साइंस फिक्शन ट्रांसपोर्टेशन का मामला है? आयोग ने यह भी पाया है कि क्राइम सीन यानी जहां अपराध हुआ उस जगह से केवल 19 कारतूस बरामद किए गए थे, जबकि वहां पर 41 राउंड फायर किए गए थे.
इससे भी बदतर क्या हो सकता है? आयोग ने अपनी जांच में यह भी पाया कि ये न्यायिक चूक थी और इस तथ्य को जानबूझकर छिपाया गया था कि उन चार में तीन आरोपी नाबालिग थे.
आयोग के मुताबिक, न्यायिक मजिस्ट्रेट ने संबंधित दस्तावेजों के साथ-साथ आरोपियों की उम्र साबित करने वाले दस्तावेजों को बिना देखे ही पुलिस हिरासत की अनुमति दी थी.
सबसे अहम बात यह है कि न तो संदिग्धों को न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया और न ही उन्हें कानूनी सलाह या वकील दिया गया. पूरी तरह से अनुरोध याचिका यानी रिक्वेस्ट प्रिटीशन के आधार पर पुलिस को कस्टडी यानी हिरासत की अनुमति दी गई थी.
तीन आरोपी जिन स्कूलों में पढ़ते थे, वहां के शिक्षकों ने उम्र का निर्धारण करने वाले रिकॉर्ड प्रस्तुत किए. जिसमें यह पता चला कि जोलू शिवा, चेन्नाकेशवुलु और जोलू नवीन का जन्म क्रमशः 2002 और 2004 में हुआ था. इस वजह से जब उनकी मौत हुई तब वे नाबालिग थे. वहीं मोहम्मद आरिफ 26 साल का था.
इसके मुताबिक मोहम्मद आरिफ के अलावा तीन आरोपियों को जेल की जगह किशोर सुधार केंद्र भेजा जाना चाहिए था.
क्या इससे कथित एक्स्ट्राज्यूडिशल किलिंग को रोका जा सकता था?
जो 400 पन्नों की जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है उसमें एक बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि आयोग ने तेलंगाना के कानूनी सलाहकार का खंडन किया है. आयोग ने सुप्रीम कोर्ट का हवाला देते हुए अपने बयान में कहा है कि 'ऐसे पुलिसकर्मी जो मामूली से उकसावे में आकर हिंसक प्रतिक्रिया (विशेष तौर पर गोली मारने के लिए) के लिए तैयार हो जाते हैं. जो अपराधियों को निपटा देते हैं और घटना को एक मुठभेड़ के रूप में पेश करते हैं.' उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए.
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