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रामचंद्र गुहा ने द टेलीग्राफ में लिखे अपने आलेख में नाथूराम गोडसे के समर्थकों के बढ़ते जाने और महात्मा गांधी के प्रति बदलती धारणा के बारे में लिखा है. एक सामाजिक कार्यकर्ता के अनुभव का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है:
लेखक ने बताया है कि अब आरएसएस में ऐसे लोगों की संख्या अधिक हो गई है, जो खुलकर गांधीजी को भारत के विभाजन का जिम्मेदार और नाथूराम गोडसे की ओर से उनकी हत्या को सही ठहराते हैं. ऐसे लोगों का मानना होता है कि यह काम और पहले होना चाहिए था. ऐसे लोग टीवी चैनलों पर दिखने लगे हैं, संसद में चुनकर आने लगे हैं.
लेखक ने आशंका जताई है कि जिस तरीके से इस देश ने गौतम बुद्ध को भुला दिया, कहीं ऐसा न हो कि महात्मा गांधी भी आने वाले दिनों में दुनिया में तो याद किए जाएंगे, लेकिन भारत में उन्हें याद करने वाले न रहें. गोडसे वंदना ऐसे समय में तेज हो रही है, जब महात्मा गांधी की 125वीं जयंती है.
पी चिदंबरम ने जनसत्ता में लिखा है कि दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी को अपना पुराना ढर्रा ध्वस्त करना चाहिए. स्वच्छ भारत और उज्ज्वला योजना से सीख लेनी चाहिए और क्रांतिकारी सुधार की ओर बढ़ना चाहिए, जो लीक से हटकर काम के जरिए ही असर दिखा सकते हैं. वे लिखते हैं कि बड़े राज्यो में गुजरात को छोड़कर की भी खुले में शौच से मुक्ति की घोषणा नहीं कर पाया है. इसी तरह लाभार्थी गैस सिलेंडर को 8 बार भरवाने की आदर्श स्थिति से दूर हैं.
पी चिदंबरम लिखते हैं कि जो मंत्री और अफसर गांवों का निरीक्षण करते हैं वे मुख्य सड़क पर ही रुक जाते हैं. खेतिहर मजदूर और श्रमिकों के खाते में सीधे रकम डालने से उनकी बुनियादी जरूरतें पूरी हो सकती हैं. लेखक मानते हैं कि लोगों को सशक्त किया जाए और उद्योग और क्षमता में भरोसा पैदा किया जाए, तभी देश विकास की वृद्धि दर में छलांग लगा सकता है.
तवलीन सिंह ने जनसत्ता में बेबाक तरीके से खुद को मोदी समर्थक और कांग्रेस विरोधी स्वीकार किया है. वहीं, लोकतंत्र के लिए विपक्ष का, और खासकर कांग्रेस का मजूबत रहना भी जरूरी बताया है. वे लिखती हैं कि कांग्रेस कमजोर इसलिए हुई, क्योंकि अब जमीन से कांग्रेस के ईमानदार और समर्पित कार्यकर्ता गायब होने लगे हैं. राहुल गांधी की संगठन को मजबूत करने की जरूरत से इत्तेफाक रखते हुए वह लिखती हैं कि उन्हें इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए.
तवलीन सिंह का मानना है कि कांग्रेस की बड़ी बीमारी 'वंशवाद' है. इसका असर इतना ज्यादा है कि एक सरपंच भी अपना पद तभी छोड़ना चाहता है, जब वह अपनी जगह अपने परिवार के किसी व्यक्ति का बैठना सुनिश्चित कर लेता है. इस स्थिति को बदलने की जरूरत है.
लेखिका का कहना है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जनेऊ पहनने और उनकी बहन प्रियंका के हर राजनीतिक कार्यक्रम से पहले मंदिर जाने की वजह से मुसलमानों की नजर में भी कांग्रेस और बीजेपी में फर्क खत्म हुआ है. यही वजह है कि मुसलमानों ने भी इस बार बीजेपी को वोट दिया है.
कीर्ति श्रीधरन ने द हिन्दू में मिथक के बहाने भारतीय राजनीति और हाल में हुए चुनाव नतीजों को देखने और समझने की जरूरत बतायी है. उन्होंने लिखा है कि ‘चौकीदार’ ऐसा ही रूपक रहा जिसके इर्द-गिर्द भारतीय चुनाव 2019 घूमा. विपक्ष ने ‘चौकीदार चोर है’ का नारा बुलंद किया, वहीं सत्ता पक्ष ने अपने बचाव में ‘मैं भी चौकीदार हूं’ का नारा लगाया.
लेखक ने लिखा है कि शहरों की तरह राजनीतिक दलों की मौत नहीं हुआ करती. शायद ही वे कभी अपने आपको बदलते हैं. बीजेपी की जीत को लेखक शंघाई से जोड़ते हैं जहां नकदी है, ऊर्जा है. इसी तरह बीजेपी में पार्टी का नेतृत्व है और जहां सामूहिक आशावाद है.
वहीं लेखक कांग्रेस की तुलना कोलकाता से करते हैं जो अपने भविष्य को लेकर निराशावाद लिए जी रहा है. इस तरह से दोनों राजनीतिक दलों की चुनौतियां भी अलग-अलग हैं. बीजेपी की चुनौती है कि किस तरह वह अपने अभियान को गतिशील बनाए रखे और किस तरह नौकरशाही और गुटबाजी पर जीत हासिल करे और किस तरह खुद को देशभर में स्वीकार्य बनाए रखे. वहीं कांग्रेस की स्थिति अपने अस्तित्व की चिन्ता से जुड़ी है. कांग्रेस को एक बडे़ जनांदोलन की आवश्यकता है. यही उसे बचा सकती है.
संजीव सिंह द टाइम्स ऑफ इंडिया में नारदमुनि में लिखते हैं कि डिजिटल ट्विन मार्केट से भारत का भी भविष्य जुड़ा हुआ है. माना जा रहा है कि 2025 तक डिजिटल ट्विन मार्केट वर्तमान में 3.2 बिलियन डॉलर से बढ़कर 29.1 बिलियन डॉलर का हो जाएगा. इसमें चीन, भारत और जापान की नेतृत्वकारी भूमिका होगी. ऐसे में नई मोदी सरकार का फोकस भी यही होना चाहिए.
डिजिटल ट्विन का मतलब बताते हुए लेखक लिखते हैं कि इसमें भौतिक रूप में परिसम्पत्ति और व्यवस्था बनायी जाती है. यह भौतिक और काल्पनिक दुनिया का सम्मिश्रण है.
यह सस्ती व्यवस्था गुणवत्तापूर्ण डेटा के इस्तेमाल के साथ-साथ उसके बेहतर प्रबंधन को सुनिश्चित करेगा. भारत जैसे देशों के लिए जहां रेलवे, हाईवेज, रक्षा और औद्योगिक उत्पादन का विशाल नेटवर्क है, यहां अधिक उपयोगी होगा. इससे देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार को बढ़ाने में मदद मिलेगी.
न्यूयॉर्क टाइम्स में निकोलस क्रिस्टोफ ने चीन के श्यानमेन चौक की घटना को याद किया है. 1989 में तब लेखक बीजिंग में बतौर पत्रकार रह रहे थे जब देर रात उनके पास फोन आया और वे साइकिल चलाते हुए घटनास्थल पर पहुंचे थे. भ्रष्टाचार के खिलाफ हफ्ते भर से चल रहा देशव्यापी आंदोलन का एक अलग रूप था. देर रात छात्रों-नौजवानों की भीड़ को चीनी पुलिस निशाना बना रही थी. यहां तक कि बालकनी से झांक रहे लोगों को भी नहीं बख्शा गया.
इनमें से ही एक ने लेखक को कहा था- दुनिया को बताओ. यही आवाज लेखक के कानों में गूंजती रहती है और इसी आवाज से प्रेरित होकर वे घटना के 30 साल बाद भी दुनिया को उसका ब्योरा बताने के लिए प्रेरित नजर आते हैं.
लेखक का माना है कि चीन अगर अपने ही लोगों के खिलाफ गोलियां बरसाकर भी संभल सका तो इसकी वजह है कि यहां औसतन 82 साल में मृत्यु होती है और गरीबी दूर करने में भी इसने दुनिया के देशों के बीच मिसाल पेश की है.
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