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छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव का तीसरा आयोजन 1 नवंबर से किया जा रहा है. इस महोत्सव में छत्तीसगढ़ समेत देश के विभिन्न राज्यों और विदेशों के भी आदिवासी समुदाय के लोग अपनी पारंपरिक कला और संस्कृति की चमक बिखेरने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जुटते हैं. ये आयोजन 1 से 3 नवंबर तक रायपुर के साइंस कॉलेज मैदान में किया जा रहा है. इस बार भी अनेक आदिवासी समूह अपनी पहचान और विशेष अवसरों पर प्रदर्शित किए जाने वाले आदिवासी लोक नृत्यों को लेकर पहुंचेंगे. आयोजन में कई खास नृत्यों को देखा जा सकता है. आइए यहां हम आपको बताते हैं आदिवासियों के बीच कुछ लोकप्रिय नृत्य के बारे में.
बस्तर के दंडामी माड़िया नृत्य को गौर माड़िया नृत्य के नाम से भी जाना जाता है. इस नृत्य में युवक अपने सिर पर गौर नामक पशु के सींग से बना मुकुट (कोकोटा) पहनते हैं, जो कौड़ियों और कलगी से सजा रहता है. युवकों के साथ नृत्य करने वाली युवतियां अपने सिर पर पीतल का मुकुट (टिगे) पहनती हैं और हाथ में लोहे की सरिया से बनी एक छड़ी, गूजरी बड़गी रखती हैं. जिसके ऊपर घुंघरू लगे रहते हैं, जिसे जमीन पर पटकती हैं जो आकर्षक ध्वनि उत्पन्न करती है.
माओ पाटा मुरिया जनजाति का एक खास नृत्य है, इस नृत्य को गौर मार नृत्य भी कहा जाता है. माओ पाटा का आयोजन घोटुल के प्रांगण में किया जाता है, जिसमें युवक और युवतियां भाग लेते हैं. नर्तक विशाल आकार के ढोल बजाते हुए घोटुल में आते हैं. इस नृत्य में गौर पशु है तथा पाटा का मतलब कहानी है, जिसमें गौर के पारंपरिक शिकार को दिखाया जाता है. पोत से बनी सुंदर माला, कौड़ी और भृंगराज पक्षी के पंख की कलगी जिसे जेलिंग कहा जाता है, युवक अपने सिर पर सजाए रहते हैं और युवतियां पोत और धातुई आभूषण (कंघियां और कौड़ी) से श्रृंगार किए हुए रहती हैं. एक व्यक्ति गौर पशु का भेष लिए रहता है, जिसका नृत्य के दौरान शिकार किया जाता है.
हुलकी नृत्य बस्तर के कोंडागांव और नारायणपुर जिले में रहने वाले मुरिया जनजाति का पारंपरिक नृत्य है. इसमें स्त्री-पुरूष दोनों ही शामिल होते हैं. हुलकी नृत्य के बारे में यह मान्यता है कि यह नृत्य आदि देवता लिंगोपेन को समर्पित है. इस नृत्य में सवाल-जवाब की शैली में गीत गाये जाते हैं. जिसमें दैवीय मान्यताओं, किंवदतियों एवं नृत्य की अवधारणाओं से संबंधित प्रसंग पर सवाल-जवाब होते हैं. इस नृत्य में सिर्फ डहकी (वाद्य यंत्र) का इस्तेमाल किया जाता है, जिसका वादन पुरूष नर्तक करते हैं और महिलाएं चिटकुलिंग का वादन करती है. पारंपरिक रूप से हुलकी नृत्य का आरंभ हरियाली त्यौहार के बाद युवागृह से प्रारंभ होता है जो क्वांर महीने तक चलता है.
छऊ नृत्य भारत के तीन पूर्वी राज्यों में लोक और जनजातीय कलाकारों द्वारा किया जाने वाला एक लोकप्रिय नृत्य है, जिसमें मार्शल आर्ट और करतबों की भरमार रहती है. इस नृत्य को पश्चिम बंगाल में पुरूलिया छऊ, झारखंड में सराइकेला छऊ और ओडिशा में मयूरभंज छऊ कहा जाता है.
इसमें दो छऊ नृत्यों की प्रस्तुति में मुखौटों का उपयोग किया जाता है, जबकि तीसरे प्रकार के मयूरभंज छऊ में मुखौटे का प्रयोग नहीं होता है. इस नृत्य में रामायण, महाभारत और पुराण की कथाओं को कलाकारों द्वारा मंच पर प्रस्तुत किया जाता है. इसमें गीत-संगीत का प्रमुख स्थान है.
प्रस्तुति के समय लगातार चल रही वाद्य संगीत को विशेष माना जाता है. नृत्य में प्रत्येक विषय की शुरूआत एक छोटे से गीत से होती है, जिसमें उस विषय वस्तु का परिचय होता है. छऊ नृत्य केवल पुरूष कलाकारों द्वारा ही किया जाता है. छऊ ने अपने कथावस्तु, कलाकारों की ओजस्विता, चपलता और संगीत के आधार पर न सिर्फ भारतवर्ष और विदेशों में भी अपनी खास पहचान बनाई है.
मुंडा झारखंड की एक प्रमुख जनजाति है. मुंडा जनजाति झारखंड के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा और असम में भी निवास करती है. मुण्डा लोगों की पाइका नृत्य का विशेष स्थान है. पाइका युद्ध कला से संबंधित नृत्य है जिसे मुण्डा, उरांव, खड़िया आदि आदिवासी समाजों के नर्तकों द्वारा किया जाता है.
इस नृत्य में केवल पुरूष ही हिस्सा लेते हैं. नर्तक योद्धाओं के पोषाक धारण करते हैं और अपने हाथों में ढाल, तलवार आदि अस्त्र लिए रहते हैं. नृत्य के अवसर पर प्रयोग होने वाले वाद्य ढाक, नगाड़ा, शहनाई, मदनभैरी आदि है. पाइका नृत्य विवाह उत्सवों के साथ ही अतिथि सत्कार के लिए किया जाता है.
दमकच झारखंड राज्य के आदिवासी और लोक समाजों का एक लोकप्रिय नृत्य है. यह नृत्य खासकर विवाह के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य है जिसमें महिलाएं और पुरूष दोनों ही सम्मिलित होते हैं.
पुरूष वर्ग इस नृत्य में गायक वादक और नर्तक के रूप में महिलाओं का साथ देते हैं. इस नृत्य में कन्या और वर को भी पारंपरिक रूप से सम्मिलित किया जाता है. दमकच नृत्य में उपयोग किए जाने वाले वाद्य में ढोल, नगाड़ा, ढाक, मांदर, बांसुरी, शहनाई और झांझ हैं. यह नृत्य कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के देवउठनी एकादशी से शुरू होकर आषाढ़ मास के रथयात्रा तक किया जाता है.
बाघरूम्बा असम की बोडो जनजाति का एक प्रसिद्ध और लोकप्रिय नृत्य है. बोडो असम का सबसे बड़ा जनजातीय समूह है, जो वहां की कुल जनजातीय जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत है. बोडो जनजाति की ज्ञान परंपराओं में अनेक सर्जनात्मक और प्रस्तुतिकारी कलाएं सम्मिलित हैं, जिनमें बाघरूम्बा नृत्य का खास स्थान है. बाघरूम्बा नृत्य महिलाओं द्वारा त्यौहारों के परिधान धारण करती है. इस नृत्य में ढोल जिसे स्थानीय भाषा में खाम कहा जाता है, प्रमुख वाद्य है, जिसे सिफुंग (बांसुरी) और बांस में बने गोंगवना और थरका आदि वाद्यों के साथ बजाया जाता है.
बोडो नृत्य लोगों के प्रकृति प्रेम को दर्शाता है.
मरयूराट्टम केरल की माविलन जनजाति का एक नृत्य है, जिसे केरल और तमिलनाडू के सीमा क्षेत्र में स्थित मरायूर नामक स्थान में निवास करने वाली माविलन जनजाति के लोगों के द्वारा किया जाता है.
मरायूर केरल के पल्ल्ककाड़ जिले में स्थित है, जहां इस नृत्य को मुख्यतः विवाह समारोहों और उत्सवों के अवसर पर किया जाता है. इस नृत्य में स्त्री और पुरूष दोनों ही सम्मिलित होते हैं.
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