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80 साल के वरवर राव को जेल में कोरोना: कोर्ट कुछ करते क्यों नहीं?

भारत की जांच एजेंसियां और पुलिस देश भर में राजनीतिक कैदियों की जमानत का विरोध कर रही हैं.

वकाशा सचदेव
भारत
Published:
79 साल के वरवर राव को जेल में कोरोना: कोर्ट कुछ करते क्यों नहीं?
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79 साल के वरवर राव को जेल में कोरोना: कोर्ट कुछ करते क्यों नहीं?
(फोटो: अर्निका काला/ द क्विंट)

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जेल में भीड़ कम करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद, स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों वाले बुजुर्ग कैदियों को जमानत नहीं दी जा रही है. सौ सालों में आई इतनी भयानक महामारी के बावजूद, भारत की जांच एजेंसियां और पुलिस देश भर में राजनीतिक कैदियों की जमानत का विरोध कर रही हैं , चाहे वो भीमा कोरेगांव के कार्यकर्ता हों या CAA का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारी.

इन मामलों के राजनीतिक होने की वजह से हैरानी तो नहीं होती, लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि कोविड-19 के बढ़ते खतरे के बावजूद इन कैदियों में शामिल बीमार बुजुर्गों और गर्भवती महिलाओं की जमानत का भी विरोध हो रहा है.

कवि और सामाजिक कार्यकर्ता वरवर राव का मामला शायद इस नीति के परिणामों का सबसे बेहतरीन उदाहरण है.

79 साल के वरवर राव माओवादियों से साठगांठ के अस्पष्ट आरोपों के तहत पिछले दो सालों से जेल में हैं. दोषी नहीं, विचाराधीन कैदी के तौर पर. पिछले कुछ वक्त से वो बीमार हैं, कुछ हफ्ते पहले सांस की परेशानियों की वजह से उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था.उम्र और सेहत संबंधी दिक्कतों की वजह से उनके कोरोना संक्रमित होने का खतरा बहुत ज्यादा था, जबकि वैसे भी जेल में जिस तरह के हालात होते हैं उससे उनकी सेहत पर खतरा मंडरा रहा था.

इसके बावजूद अदालतों ने उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया, सबसे ताजा आदेश स्पेशल NIA कोर्ट ने 26 जून को दिया. उनकी और आनंद तेलतुंबडे जैसे कई दूसरे कैदियों की तरफ से दायर की गई अर्जी काफी सरल थी: हमारी खराब सेहत के मद्देनजर जेल में कोविड-19 के बढ़ते खतरे को देखते हुए, जब तक हालात सामान्य ना हो जाएं तब तक हमें जमानत दे दी जाए.

यह एक सामान्य मानवीय अपील थी. राव की सेहत और देश के मौजूदा हालात को देखते हुए ये मुमकिन नहीं था कि अर्जी मंजूर होते ही वो भाग जाते और कानून से बचने के लिए जंगल में किसी नक्सली ठिकाने में छिप जाते. इसके बावजूद उनकी अर्जी ठुकरा दी गई.

जून से जुलाई के शुरुआती दिनों तक उनकी तबीयत बिगड़ती चली गई, उनके परिवारवालों ने जेल अधिकारियों से इस पर चिंता जाहिर की. लेकिन उन्हें अस्पताल नहीं ले जाया गया, और इसके बदले एक और कैदी, सह-आरोपी वर्नन गोंसाल्विस, जो कि खुद 60 साल ज्यादा उम्र के हैं, को उनकी देखरेख के लिए कहा गया.

गुरुवार, 16 जुलाई को, आखिरकार उन्हें अस्पताल में भर्ती कराए जाने के तीन दिन बाद, राव कोविड-19 संक्रमित पाए गए.

इसका जिम्मेदार कौन?

ऐसे नतीजे के लिए पुलिस और सरकार और जेल अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराना बहुत आसान है.

लेकिन, इसके लिए सिर्फ ये सब जिम्मेदार नहीं हैं. इस वक्त देश की जेलों में अंडरट्रायल बूढ़े, लाचार, बीमार और कमजोर लोगों के बंद रहने की बड़ी जिम्मेदारी भारत की अदालतों पर है.

और ना सिर्फ निचली अदालतें जिसने इन आरोपियों की जमानत अर्जी नामंजूर कर दी है, अपराध कानून विशेषज्ञ रेबेका जॉन और मिहिर देसाई के मुताबिक इसके लिए सबसे ज्यादा सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है.

जेलों में भीड़ कम करने का सुप्रीम कोर्ट का आदेश

ये ऐसा नहीं होना चाहिए था जैसा हो गया. 16 मार्च को, चीफ जस्टिस एस ए बोबडे की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने जेलों में भीड़ से कोरोना के खतरे का संज्ञान लिया और इसकी खूब सराहना हुई.

राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की रिपोर्टों की समीक्षा के बाद, न्यायाधीशों ने पाया कि कई जेलों में कोरोनावायरस के संदिग्ध मरीजों के लिए आइसोलेशन, क्वॉरंटीन और इलाज के इंतजाम किए गए थे, लेकिन भीड़ की समस्या बनी थी.

इसलिए एक हफ्ता बाद, 23 मार्च को, उच्चतम न्यायालय ने एक आदेश जारी कर हर राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश को हाई-पावर कमेटी बनाने का आदेश दिया ताकि कैदियों को वर्गीकृत कर जरूरत के हिसाब से पैरोल (अगर दोषी हों) या अंतरिम जमानत (अगर अंडरट्रायल हों) देकर उन्हें छोड़ा जा सके. एक गड़बड़ी नहीं होती तो यह अपने आप में एक वाजिब आदेश था.

राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों को उदाहरण के तौर सात साल या उससे कम की सजा वाले कैदियों को छोड़ने का विकल्प देते हुए, CJI बोबडे ने अपने आदेश में कहा:

‘यह स्पष्ट किया जाता है कि जेल से छोड़े जाने वाले कैदियों की श्रेणी तय करने की जिम्मेदारी हम हाई-पावर कमेटी पर छोड़ते हैं, जो कि कैदियों के अपराध की प्रकृति, सजा की मियाद, विचाराधीन कैदियों पर लगे आरोप या दूसरे जो भी जरूरी आधार हैं उन पर विचार कर फैसला लेंगे.’

जाहिर तौर पर महामारी के मद्देनजर अस्थायी तौर पर कैदियों को छोड़ने का फैसला हाई-पावर कमेटी को देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये तय कर दिया कि इसका आधार मूलभूत तौर पर उनके खिलाफ दर्ज मामला होगा, ना कि उनके संक्रमति होने का खतरा.

कोविड-19 होने के खतरे को नजरअंदाज किया गया

वरिष्ठ वकील रेबेका जॉन, जो कि भारत में क्रिमिनिल लॉ की जानी मानी एक्सपर्ट हैं, ने कहा, ‘मुझे लगता है इस तरह का वर्गीकरण पूरी तरह से गलत है, क्योंकि इसका आधार कैदियों के संक्रमित होने का खतरा होना चाहिए था.’

‘वरवर राव की उम्र के पुरुषों और महिलाओं के किसी भी महामारी के दौरान और खास तौर पर कोविड-19 से संक्रमित होने का खतरा सबसे ज्यादा होता है. और जेल जैसी जगहों पर ही ये फैलता है; हम असम, दिल्ली, बॉम्बे और कश्मीर में ऐसा देख चुके हैं,’
रेबेका जॉन, सीनियर एडवोकेट

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की पहल के बाद, सेहत और उम्र के मुताबिक बीमारी होने के खतरे पर गौर किए जाने के बजाए लगभग सभी राज्यों/केन्द्र शासित प्रदेशों की हाई-पावर कमेटी ने सात-साल की सजा को महामारी के दौरान कैदियों को पैरोल या जमानत दिए जाने का मापदंड बना लिया.

इसका मतलब ये हुआ कि जिन पर UAPA, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, जम्मू-कश्मीर जन सुरक्षा कानून जैसे विशेष कानूनों के तहत अपराध के आरोप लगाए गए हैं वो अपने आप जमानत से वंचित रह जाएंगे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके फरार हो जाने की संभावना क्या है, उनकी उम्र कितनी है या उनकी सेहत कैसी है – क्योंकि इन कानूनों के तहत अपराधियों को आम तौर पर अधिकतम सात साल से ज्यादा की सजा मिलती है.

दिल्ली जैसी कुछ जगहों पर हाई-पावर कमेटियों ने पैरोल/जमानत को रोकने के लिए कुछ और कसौटियों को जोड़ दिया, जैसे कि क्या क्राइम ब्रांच या दूसरी कोई विशेष एजेंसी उनके खिलाफ किसी मामले की जांच कर रही है, या क्या उनके खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का ‘गंभीर’ आरोप लगा है.

रेबेका जॉन ने पूछा, ‘लेकिन महामारी का किसी जांच करने वाली एजेंसी से क्या नाता है? या केस किस कानून के तहत चल रहा है इससे क्या फर्क पड़ता है?’

‘इस वर्गीकरण का आधार सिर्फ संक्रमित होने का खतरा होना चाहिए, ना कि ये बनावटी वर्गीकरण जो कि आप अपराध के हिसाब बनाते हैं. अपराधी की शारीरिक परिस्थिति ज्यादा अहमियत रखती है, ना कि अपराध की परिस्थिति. और महामारी के दौरान अगर अपराधी पर संक्रमण का खतरा है, तो उस पर अदालत को सबसे पहले विचार करना चाहिए.’
रेबेका जॉन, सीनियर एडवोकेट

वरिष्ठ वकील महिर देसाई - बॉम्बे के जाने माने मानवाधिकार कार्यकर्ता, जो कई सारे UAPA केस लड़ चुके हैं, जिसमें कि भीमा कोरेगांव के कुछ आरोपी भी शामिल हैं – भी रेबेका जॉन का समर्थन करते हैं कि जमानत दिए जाने का आधार गलत है.

‘अगर आप कोविड से निपटने के लिए जेल की भीड़ कम करना चाहते हैं तो इस तरह का भेदभाव नहीं कर सकते. अगर कैदी की उम्र 60 से ऊपर है और उसे गंभीर बीमारियां है, तो उसे पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए. हां, अगर उसके भाग जाने की संभावना ज्यादा है, उसका ऐसा कोई पुराना रिकॉर्ड है, आप उसे जमानत देने से हिचकिचा सकते हैं, लेकिन ऐसे, <a href="https://hindi.thequint.com/news/india/who-is-coronavirus-positive-elgar-parishad-case-accused-varavara-rao">वरवर राव</a> जैसे, मामलों में जहां ऐसा कोई खतरा नहीं है, इसका कोई मतलब ही नहीं रह जाता.’
मिहिर देसाई, सीनियर एडवोकेट

दिलचस्प बात यह है, देसाई के मुताबिक महाराष्ट्र की हाई-पावर कमेटी ने शुरुआत में UAPA और दूसरे विशेष कानूनों के तहत आने वाले आरोपियों को जमानत नहीं दी जाने की बात कही, जबकि दूसरी बैठक में उन्होंने कहा कि जहां भी आरोपी उम्रदराज हैं और गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं, उन पर विचार किया जाना चाहिए.

देसाई के मुताबिक, ‘इसके बावजूद, वरवर राव के मामले में स्पेशल NIA कोर्ट ने जमानत देने से मना कर दिया. देश के दूसरे इलाकों में निचली अदालतें जरूर ये दावा कर सकती हैं कि हाई-पावर कमेटी के फैसलों, सुप्रीम कोर्ट के आदेश और UAPA और दूसरे ऐसे विशेष कानूनों में जमानत के नियमों से उनके हाथ बंधे हैं, लेकिन महाराष्ट्र जैसे राज्यों में, जहां जमानत दी सकती थी, ऐसा नहीं किया जाना गंभीर भूल है.’

मौत की सजा मिले बिना ही मौत का वॉरंट

यह सब इतना मुश्किलों से भरा क्यों है, आप पूछ सकते हैं, कि जिनको जमानत नहीं मिल रही है उनपर गंभीर अपराधों के आरोप हैं, जबकि जिन्हें पैरोल नहीं दिया जा रहा उन्हें गंभीर अपराधों के लिए दोषी ठहराया जा चुका है?

सच तो यह है कि न्याय प्रणाली ऐसे ही काम करती है. दिल्ली के क्रिमिनल लॉयर और एक्सपर्ट अभिनव सेखरी की दलील है,

जहां तक विचाराधीन कैदियों की बात है, यह निर्दोष होने की संभावना की बात है – आपको तब तक सजा नहीं मिलती जब तक आपका दोष साबित नहीं हो जाता. ‘अगर निर्दोष होने की संभावना का कोई मतलब है तो आप ऐसे बुजुर्ग और बीमार आरोपी की मौत के वॉरंट पर कैसे साइन कर सकते हैं.

‘लेकिन आप तो बिलकुल वैसा ही कर रहे हैं जब 65 साल से ज्यादा उम्र के इंसान को जेल में रखते हैं, जबकि आपको पता है कि उस पर खतरा है. इस तरह के रवैये ने वरवर राव जैसे लोगों की जिंदगी खतरे में डाल दी है, और किसलिए? क्योंकि वो UAPA के तहत आरोपी हैं? संवैधानिक सिद्धांतों को छोड़िए, ये मानव मर्यादा के खिलाफ है.’
अभिनव सेखरी, एडवोकेट

सेखरी बताते हैं, जिन आरोपियों पर लगे अपराध अभी साबित नहीं हुए उनके मामले को समझना जहां आसान है, जो सजायाफ्ता हैं और जेल में सजा काट रहे हैं उनको लेकर भी हमारे रवैये में मूलभूत गड़बड़ी है.

किसी पर लगे आपराधिक आरोप साबित हो जाने का मतलब ये नहीं होता कि उसे मौत की सजा मिल गई है – और अगर किसी को मौत की सजा मिल भी गई हो तो आपराधिक न्याय प्रणाली के तहत सजा ऐसे तो नहीं मिलनी चाहिए. रेबेका जॉन ने सहमति जताते हुए कहा कि यही वजह है कि हमें इसे किसी वरवर राव या किसी सफूरा जरगर के नजरिए से नहीं देखना चाहिए.

रेबेका जॉन बताती हैं, ‘ये इस बारे में नहीं है कि हम इसमें शामिल व्यक्ति के प्रति सहानुभूति रखते हैं या नहीं. ये महामारी कोई भेदभाव नहीं करती, और इसलिए हमें भी दोषियों से भेदभाव नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे निपटने के लिए देश में कानून प्रणाली है, और इसमें नहीं लिखा है कि किसी दोषी को बीमारी से मरने दिया जाए.’

जॉन ने महेन्द्र यादव का उदाहरण दिया, एक 70 साल का व्यक्ति जो 1984 के सिख विरोधी दंगे में शामिल होने का दोषी था. सुप्रीम कोर्ट ने उसे कोविड-19 संक्रमित होने के बाद भी अंतरिम जमानत देने से इनकार कर दिया था और उसने कुछ ही दिन बाद दम तोड़ दिया. वैसे तो कोई भी ऐसे अपराधी की रिहाई की बात से घबरा सकता है, भले ही थोड़ी देर के लिए, लेकिन क्या जिसे 10 साल जेल की सजा मिली हो, उसे वायरस के संक्रमण से मर जाना चाहिए?

यादव के मामले में, असल परेशानी अंतरिम जमानत नहीं मिलना नहीं थी – उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहां उसका इलाज चल रहा था, और आपको कोविड हो तो कोई आपसे मिल नहीं सकता, इसलिए ऐसे मोड़ पर जमानत मिलने से भी उसे कोई मदद नहीं मिलती.

परेशानी इस बात की है कि जेल में रहने की वजह से वो कोरोना संक्रमित हो गया, बजाए इसके कि उसे महामारी के खत्म होने तक पैरोल दे दी जाती.

एक और बात ये कि जेल में कोरोनावायरस के बेकाबू होने से सिर्फ कैदियों को खतरा नहीं होता, बल्कि पुलिस और जेल के स्टाफ भी प्रभावित होते हैं.

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इसके लिए कोर्ट के पास क्या उपाय है?

अभिनव सेखरी की सलाह है कि इस मामले में पहला कदम निचली अदालतों को उठाना चाहिए जिसमें अंतरिम जमानत या पैरोल के लिए दी गई अर्जी की व्यापक तरीके से छानबीन की जाए. हालांकि निचली अदालतों को इस मामले में मिली छूट सीमित है, और वो अंतरिम जमानत या पैरोल दिए जाने के मानदंड नहीं बदल सकते.

मिहिर देसाई सलाह देते हैं कि जब तक हाई-पावर कमेटियां इन पैमानों को नहीं बदलती – जिसकी मौजूदा हालात को देखते हुए उन्हें जरूर समीक्षा करनी चाहिए – निचली और उच्च अदालतें ये सुनिश्चित कर सकती हैं कि संक्रमण का खतरा झेल रहे कैदियों की मदद के लिए दूसरे उपाय किए जाएं.

इस प्रक्रिया में ये भी सुनिश्चित किया जाए कि किसी तरह की परेशानी आने पर उनकी हालत बुरी तरह बिगड़ने का इंतजार करने के बजाए, जैसा कि राव के मामले में हुआ, उन्हें बेहतर इलाज मुहैया कराई जाए.

उच्च न्यायालय जेलों में सभी कैदियों की अनिवार्य टेस्टिंग का आदेश दे सकते हैं. ‘सोशल डिस्टेसिंग की कमी और जेलों में भारी भीड़ को देखते हुए कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है,’ देसाई ने आगे बताया, ‘तलोजा जेल जैसी जेलों (जहां राव को रखा गया है) में पहले भी लोगों के मरने के मामले सामने आ चुके थे, इसलिए बीमारी के लक्षण से जुड़े प्रोटोकॉल के बावजूद हालात को देखते हुए वहां हर किसी की टेस्टिंग होनी चाहिए थी.’

लेकिन इस मूलभूत गलती को ठीक करने के लिए, फिर से सुप्रीम कोर्ट के पास जाना होगा. क्योंकि हाईकोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक और हाई-पावर कमेटियां भी इस मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन कर रहे हैं.

‘मैं यहां सुप्रीम कोर्ट से और ज्यादा नेतृत्व की उम्मीदें लगा रही हूं,’ रेबेका जॉन ने कहा, ‘उन्होंने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया था, और इसलिए एक बार फिर वो मौजूदा हालात को देख सकते हैं. क्योंकि ये पाखंड ही होगा, कि अदालत द्वारा जेल में भीड़ कम करने के मामले को गंभीरता से लेने के बाद, किन कैदियों को छोड़ा जाए इस पर हाई-पावर कमेटियां बनाने के बाद, जो हमारे सामने है वो कैदियों को जेल में बंद रखने का मापदंड है.

जॉन और सेखरी दोनों की राय में, अगर हम इसका उपाय निकालने में नाकाम रहे तो ये हमारे लिए नैतिक विफलता होगी, क्योंकि ये न्याय नहीं होगा. जॉन ने सटीक तरीके से पूरे मामले को समझाते हुए कहा:

‘न्यायशास्त्र में और किसी भी चीज से ज्यादा करुणा जरूर होनी चाहिए. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट कहता है, सिर्फ करुणा की वजह से, कि उसके दरवाजे मौत की सजा पा चुके कैदियों के लिए भी खुले हैं. यही हमें तानाशाही और उन देशों से अलग करता है जहां कानून का शासन नहीं है, क्योंकि कानून आखिरकार करुणा के बारे में ही है. और इसलिए न्यायशास्त्र में हमें अपराध या आरोपों की प्रकृति से प्रभावित नहीं होना चाहिए, हमें उसे प्राथमिकता देनी चाहिए जो कमजोर है. क्या वास्तव में यह समझना कठिन है कि संक्रमण का खतरा झेलने वाले लोगों के साथ ऐसे समय में खास बर्ताव करना चाहिए? अगर इनमें से कुछ लोगों को थोड़े समय के लिए रिहा कर दिया जाए तो शक्तिशाली राष्ट्र का क्या बिगड़ जाएगा?’

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