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दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल पत्रिका द लांसेट की इस स्टडी ने हर किसी को चौंकाया है कि दुनिया में आत्महत्या करने वाली हर तीसरी महिला भारतीय है. ये आंकड़े विश्वसनीय हैं और इन्हें लेकर न सिर्फ मेडिकल बिरादरी में, बल्कि नीति-निर्माताओं से लेकर समाज में व्यापक चिंता है.
लेकिन अखबारों में छपी खबरें आम तौर पर यह नहीं बता रही हैं कि भारत में वे कौन महिलाएं हैं, जो खुद अपनी जान ले रही हैं.
लांसेट के रिसर्च पेपर को विस्तार से देखने से पता चलता है कि वे महिलाएं ज्यादातर:
भारत में आत्महत्याएं बढ़ रही हैं. 1990 में 1.64 लाख लोगों के मुकाबले 2016 में भारत में 2.30 लाख लोगों ने आत्महत्या की. पूरी दुनिया में जितनी औरतें आत्महत्या करती हैं, उनमें से 36.2 फीसदी भारतीय हैं. भारतीय पुरुषों का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है. दुनिया में पुरुषों की आत्महत्याओं में 24.3 फीसदी हिस्सा भारतीय पुरुषों का है. यानी आत्महत्या करने वाला हर चौथा मर्द भारतीय है.
संख्या की दृष्टि से देखें, तो दुनिया में 5.59 लाख मर्द आत्महत्याएं करते हैं, जिनमें से 1.35 लाख भारतीय हैं. वहीं दुनिया में आत्महत्या करने वाली 2.57 लाख औरतों में से 94 हजार से ज्यादा भारतीय हैं.
जाहिर है कि आत्महत्या कोई महिला समस्या नहीं है और इसे रोकने या कम करने के लिए कुछ नीतियां तो यूनिवर्सल यानी हर किसी के लिए होंगी. लेकिन लांसेट की स्टडी ने दो पहलुओं की ओर खास तौर पर ध्यान दिलाया है. एक तो यह कि आत्महत्या के मामले में जबर्दस्त क्षेत्रीय असमानताएं हैं. कुछ राज्यों में आत्महत्या की दर बेहद ज्यादा है. कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्य में आत्महत्या दर ज्यादा है. दूसरा कि युवाओं में यानी 15 से 39 आयुवर्ग में महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा आत्महत्याएं कर रही हैं.
फिर 15 से 39 साल की महिलाओं में ऐसा क्या खास है कि इस आयुवर्ग में उनमें आत्महत्या की दर इतनी ज्यादा (71.2%) है?
भारत से मिलती-जुलती आर्थिक हैसियत वाले देशों में महिलाओं की आत्महत्या की दर भारत से एक-तिहाई है. इसका मतलब है कि गरीबी या भुखमरी या बेरोजगारी वह वजह नहीं है, जो भारतीय महिलाओं को आत्महत्या करने के मजबूर कर रही है. इसकी वजह समाज, भारतीय परिवार और विवाह संस्था में खोजने की जरूरत है.
दुनिया का अनुभव है कि शादीशुदा महिलाएं कम आत्महत्या करती हैं. लेकिन भारत में इसका उलट है. इसकी कुछ संभावित वजहें ये हो सकती हैं:
लड़की की समस्या यह होती है कि ससुराल की संपत्ति और घर में उसका कोई हिस्सा नहीं होता और शादी के बाद माता-पिता भी उससे अपना पिंड छुड़ा लेते हैं. पैतृक संपत्ति में लड़की को हिस्सा देने का कानून तो बन गया है, लेकिन उसका जमीन पर अमल अभी दुर्लभ है. कानूनी हिस्सा मांगने वाली लड़कियों को खलनायिका के तौर पर देखा जाता है.
ऐसे में विवाह टूटने और सेपरेशन की स्थिति में इसकी आशंका ज्यादा है कि महिला को बेघर होना पड़ेगा. या फिर बोझ बनकर माता-पिता के घर लौटना पड़ता है. पश्चिमी देशों में बिगड़ चुकी शादियों में लोग नहीं रहते. वहां तलाक आसान है, क्योंकि वहां भारत जैसी गरीबी नहीं है और महिलाओं और पुरुषों की आर्थिक हैसियत में फर्क नहीं है. जिन केस में आर्थिक हैसियत में फर्क है, वहां महिलाओं को अक्सर मुआवजे या भरण-पोषण के तौर पर अच्छी रकम मिल जाती है.
भारतीय युवा महिलाओं में ज्यादा आत्महत्याओं की एक और संभावित वजह यह हो सकती है कि नए दौर के साथ महिलाएं महत्वाकांक्षी हो रही हैं, लेकिन परिवार और समाज का पुराना ढांचा उनकी महत्वाकांक्षाओं में अड़चन बन रहा है. लांसेट का अध्ययन इस ओर भी इशारा करता है.
भारतीय महिलाओं की वर्क फोर्स में हिस्सेदारी लगातार घटी है और परिवार की आर्थिक हैसियत बढ़ते ही महिलाओं को घर के अंदर बंद रखने की कोशिश होती है. महिलाओं में घुटन की यह भी एक वजह हो सकती है.
जाहिर है कि आत्महत्याएं अब महामारी का शक्ल ले रही हैं. ये स्थिति किसी भी समाज के लिए खतरनाक है. सरकार और समाज को इस क्षेत्र में सजग होना होगा.
महिलाओं की आत्महत्याएं रोकने के मामले में चीन की परफॉर्मेंस शानदार रही है. वहां 1990 से 2016 के बीच महिलाओं की आत्महत्याओं में 70 फीसदी की कमी आई है. चीन ने यह कैसे किया, और क्या उस अनुभव से भारत भी सीख सकता है, इसका अध्ययन होना चाहिए.
(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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