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थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन ने दुनिया भर में महिला मामलों के 550 एक्सपर्ट की राय के आधार पर भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश करार दिया है. इस सूची में भारत के अलावा अफगानिस्तान, सीरिया, सोमालिया, सऊदी अरब, पाकिस्तान, कोंगो, यमन, नाइजीरिया और अमेरिका हैं.
इस लिस्ट को तैयार करने के लिए किए गए सर्वे में जो सवाल पूछे गए वे महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं और आर्थिक संसाधनों तक पहुंच, महिला विरोधी संस्कृति और परंपरा, यौन अपराध और उत्पीड़न, यौन अपराध के अलावा महिलाओं के खिलाफ अन्य अपराध और मानव तस्करी से जुड़े थे.
इस सर्वे और इसके नतीजों से भारत में कई लोग खुश नहीं हैं. केंद्रीय महिला और बाल कल्याण मंत्रालय ने इस रिपोर्ट का विरोध किया है और बताया है कि भारत में महिलाएं कितनी खुशहाल हैं. रिपोर्ट जिस तरह से बनाई गई है, उसे भी त्रुटिपूर्ण बताया गया है. सरकार ने बताया है कि भारत में महिलाओं की स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है. थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन की रिपोर्ट अब विवादों के दायरे में है.
दुनिया बड़ी है और हर देश में महिलाओं की स्थिति और उस स्थिति के आकलन के तरीके अलग हैं. इसलिए ये बात तो पक्के तौर पर कतई नहीं कही जा सकती है कि भारत महिलाओं के लिए दुनिया की सबसे खतरनाक जगह है.
इस बात की पुष्टि भारत सरकार की संस्था नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी ने की है. एनसीआरबी भारत में अपराध के सालाना आंकड़े जारी करता है. वह 2016 तक के आंकड़े संकलित कर चुका है.
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2016 में भारत में दर्ज अपराध के आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार के 94.6 प्रतिशत आरोपी या तो रिश्तेदार होते हैं या परिचित. वे पिता, भाई, दादा हो सकते हैं. वे प्रेमी हो सकते हैं. वे पड़ोसी हो सकते हैं. अनजान लोग बलात्कार के आरोपी बेहद कम मामलों में ही होते हैं.
2016 में भारत में बलात्कार के 38,947 मामले दर्ज हुए. उनमें से 36,859 मामलों में अपराधी ऐसे थे जो महिला या लड़की को पहले से जानते थे. 630 ऐसे केस दर्ज हुए जिसमें अभियुक्त पिता, भाई, दादा या बेटा था. 2,174 अभियुक्त अन्य रिश्तेदार थे. 10,520 मामलों में बलात्कार के अभियुक्त पड़ोसी था. 600 मामले ऐसे थे जिसमें बलात्कार का आरोप नौकरी देने वालों पर या साथ काम करने वालों पर लगा. 10,068 मामलों में शादी करने का झांसा देकर बलात्कार किया गया. 11,223 मामलों में अभियुक्त किसी न किसी और तरह से पीड़ित को जानते थे.
आंकड़ों के इस जंजाल से एक बात साफ तौर पर निकलकर आ रही है कि भारत में बलात्कार करने के लिए अक्सर कोई बाहर का डाकू या माफिया या डॉन नहीं आता. वे अपने लोग होते हैं, अपने आसपास और कई बार घर के अंदर रहते हैं. इसलिए बचने की जरूरत है तो घर परिवार से है. बचने की जरूरत मोहल्ले में है. बचने की जरुरत अपने रिश्तेदारों से है, प्रेमियों से है.
दरअसल ये आंकड़े पूरा सच बता भी नहीं रहे हैं. भारत में बलात्कार का मतलब पीड़िता की इज्जत खराब होना है. बदनामी का लगभग सारा बोझ महिला के हिस्से आता है. अगर लड़की अविवाहिता है, तो यह सामान्य स्थिति है कि उसकी शादी में दिक्कत आएगी. कई मामलों में तो बलात्कार करने वालों को कानून की नजर में तो अपराधी माना जाता है कि लेकिन उसके अपने समाज और जाति में वह अपराधी नहीं गिना जाता. बल्कि कई बार तो बलात्कार को परिवार, जाति या धर्म के नुमाइंदों की स्वीकृति भी होती है. इसलिए लांछन के भय से बलात्कार के ढेर सारे मामले तो दर्ज ही नहीं होते.
इस सांस्कृतिक सोच के कारण कई मामलों में पीड़िता को खामोश रहने के लिए राजी कर लिया जाता है. कई बार ऐसी पीड़िताओं को आगे भी ऐसे जुल्म सहने पड़ते हैं क्योंकि अपराधी को पता होता है कि बात बाहर नहीं जाएगी.
इसके अलावा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में सजाएं कम ही होती हैं. मिसाल के तौर पर, बलात्कार के दर्ज आरोपों में 2016 में देश भर में सिर्फ 6,289 लोगों को सजा हुई जबकि 17,409 लोग बरी हो गए. महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित विशेष कानूनों जैसे दहेज निरोधक कानून, वेश्यावृत्ति निरोधक कानून, घरेलू हिंसा निरोधक कानून तथा महिलाओं के अश्लील चित्रण निरोधक कानून में देश भर में 2016 में सिर्फ 32,306 लोग गिरफ्तार हुए. सजा का आंकड़ा तो बेहद बुरा है. इन अपराधों में सिर्फ 2,399 लोगों को सजा हुई. घरेलू हिंसा जहां इतनी आम बात है, वहां इस धारा में पूरे देश में एक साल में सिर्फ 28 लोगों को सजा हुई.
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भारत जैसे बड़े देश में जहां महिलाओं के खिलाफ इतनी बड़ी संख्या में अपराध होते हैं, वहां पूरे देश के लिए यह आंकड़ा अपने आप में एक कहानी कहता है. इसका मतलब है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध करके बच निकलना बेहद आसान है. एक तो मामले ही कम दर्ज होते हैं. उनमें गिरफ्तारी और चार्जशीट दाखिल होना अपने आप में दिक्कत है. और बरसों घिसटने के बाद उन मामलों में सजा हो पाना तो और भी दुर्लभ बात है. अपराधी अगर सजा तक नहीं पहुंच पा रहा है तो इसका मतलब यह भी है कि महिलाएं केस करने के लिए आगे नहीं आएंगी, क्योंकि मुकदमा लड़ना अपने आप में बहुत थका देने वाला और खर्चीला काम है.
हालांकि मौजूदा दशक में महिलाओं के प्रति अपराध को लेकर समाज में संवेदना बढ़ी है, नए सख्त कानून भी बने हैं, लेकिन एक विपरीत यात्रा भी शुरू हो गई है. चंद मामलों में कानून के दुरुपयोग को या अभियुक्तों के छूट जाने को आधार बनाकर यह कहा जाने लगा है कि महिलाओं से संबंधित कानूनों की सख्ती कम की जाए. खासकर दहेज से जुड़े मामलों में ऐसा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट के पास यह मामला फिलहाल विचाराधीन है. उमीद है कि इस मामले में फैसला महिलाओं के पक्ष में होगा.
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