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मां के लिए देवी और करुणा की मूर्ति जैसे भारी भरकम और गैर जरूरी उपमाएं अगर दरकिनार भी कर दें, तब भी मातृत्व किसी भी स्त्री के लिए बहुत सुखद और परिपूर्ण करने वाला अनुभव होता है. ये औरतों के जीवन की धारा बदल देने वाला पड़ाव भी होता है. हालांकि पिछली कुछ पीढ़ियों से विज्ञान ने औरतों के लिए मां बनने को वैकल्पिक बना दिया है, लेकिन चूंकि व्यक्तिगत और सामाजिक सोच में इस तरह का कोई बदलाव नहीं हुआ, इसलिए देर से ही सही, शादी के बाद बच्चे, ज्यादातर औरतों के लिए फैसले की तर्कसगंत कड़ी होते हैं.
दुनिया के ज्यादातर देशों में मां बनने का मतलब औरतों के करियर की गाड़ी का तीसरे गीयर से पहले गीयर में आ पहुंचना होता है. ऐसा अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन यानी आईएलओ के आंकड़े भी कहते हैं.
आईएलओ ने 1919 में अपनी स्थापना के साल में ही संस्थागत नौकरियों में औरतों की सहभागिता को अपनी प्रस्तावना में शामिल किया था. इसके सौ साल बाद पिछले महीने आईएलओ ने दुनियाभर में कामकाजी औरतों के ऊपर जारी विस्तृत रिपोर्ट में हैरान कर देने वाले तथ्य सामने रखे हैं. रिपोर्ट में पाया गया कि शुरुआती दशकों में उत्साह बढ़ाने वाली प्रगति के बाद भी पिछले बीस सालों में न केवल नौकरियों में औरतों की भागीदारी सुस्त पड़ी है, बल्कि ये तेजी से उल्टी दिशा में लौट भी रही है.
बहरहाल, यहां हम केवल उन्हीं पक्षों की बात करेंगे, जिनका सीधा संबंध मातृत्व से है. रिपोर्ट में ये कहा गया है कि 2005-2015 के बीच Motherhood Employment Penalty यानी मां बनने की वजह से नौकरी नहीं कर पाने की संभावना में 38.4 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. रिपोर्ट में इससे मिलते जुलते दो और वाक्यांश भी इस्तेमाल किए गए हैं, Motherhood Wage Penalty और Motherhood Leadership Penalty.
इसका सीधा असर उनकी नौकरी और उनकी तनख्वाह पर पड़ता है. आईएलओ का मानना है कि कम तनख्वाह और ऊंचे ओहदे पर नहीं पहुंच पाने का ये असर मांओं के करियर पर तब भी बना रहता है जब उनके बच्चे बड़े हो चुके होते हैं.
घर और परिवार की देखभाल में बिताया गया समय यानी वो काम जिसके लिए औरतों को कोई तनख्वाह नहीं मिलती, अब भी दुनियाभर में औरतों की दिनचर्या के दो तिहाई हिस्से पर काबिज हैं. आंकड़े बताते हैं कि 1997 के मुकाबले 2012 में औरतें इन कामों में औसतन 15 मिनट कम समय व्यतीत करती हैं जबकि इस दौरान घर के कामों में मर्दों की हिस्सेदारी दिनभर में केवल 8 मिनट बढ़ी है.
दुनियाभर के आंकड़ों के इतर हमारे देश की सोशल कंडीशनिंग इस स्थिति को और खराब कर रही है. जरूरत पड़ी तो नौकरी छोड़ेगी या नहीं, भारत में कामकाजी लड़कियों के लिए भावी ससुराल पक्ष से पूछा गया सबसे वाहियात लेकिन कॉमन सवाल है. पहला तो ये सवाल होने की हैसियत ही नहीं रखता. शादी और उसके बाद की गृहस्थी दो वयस्कों के बीच लिया गया फैसला है, जिसमें न तो किसी तीसरे के पूछने-समझाने की गुंजाइश रहनी चाहिए, न ही कुछ भी पूर्व निर्धारित होना चाहिए. दूसरा क्योंकि ये जरूरत दो ही किस्म की होती है, बच्चों का पालन या बुज़ुर्गों की देखभाल.
दो साल पहले कामकाजी मांओं के लिए मैटरिनिटी लीव की अवधि तीन महीने से बढ़ाकर छह महीने करने का कानून बनाया गया, लेकिन भारतीय श्रम कानून में पैटरनिटी लीव का अभी तक कोई प्रावधान नहीं. केंद्र सरकार के कर्मचारियों को तो बच्चे के जन्म से लेकर छह महीने के होने तक 2 हफ्ते की छुट्टी मिल जाती है, लेकिन ज्यादातर निजी कंपनियों में ऐसी कोई सुविधा नहीं.
ऐसे में बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी मांओं से बांटने वाला कोई नहीं. बुजुर्गों के मामले में तो दोनों में से किसी के पास छुट्टी का कोई प्रावधान नहीं. यही वजह है कि नौकरियों में औरतों की भागीदारी 2002 के 42.7% से घटकर 2011-12 में 31.2% और 2013-14 में 31.1% पहुंच गई है.
‘पति के रहते तुम्हें काम करने की क्या जरूरत है,’ दूसरा ऐसा जुमला है जो मांओं को उनके करियर से दूरी बना लेने को बाध्य करता है. सतही तौर पर ये औरतों को पैसे कमाने की जिम्मेदारी से मुक्त करता लगता है, लेकिन इसके निहितार्थ गहरे हैं. पढ़ी-लिखी औरतों का काम नहीं करना भले ही उनका निजी फैसला हो, लेकिन ये अर्थव्यवस्था के संसाधनों की बर्बादी भी है.
फेसबुक की सीओओ शेरिल सैंडबर्ग अपनी बेस्टसेलर किताब ‘लीन इन’ में लिखती हैं कि, निजी फैसले उतनी निजी भी नहीं होते, जितने दिखाई देते हैं. हम सब सामाजिक परिपाटी, हमउम्रों के दबाव और पारिवारिक उम्मीदों के प्रभाव में फैसले लेते हैं. प्रेग्नेंसी के आखिरी महीनों के दौरान याहू की सीईओ बनने का ऑफर स्वीकार करने वाली मेरिसा मेयर को दुनिया भर में आलोचनाएं झेलनी पड़ीं. मेयर उस चुनौती को फिर भी निभा पाईं, क्योंकि उनके पति ने बच्चे को पालने में पूरी भागीदारी निभाई. इसी पद पर रहते हुए तीन साल बाद मेरिसा ने जुड़वा बेटियों को भी जन्म दिया.
मानसिक और शारीरिक तौर पर स्वस्थ, सक्षम और सुदृढ़ बच्चे, बस मांओं की नहीं परिवार और समाज की भी जरूरत होते हैं. इसलिए उन्हें तैयार की करने की जिम्मेदारी भी साझा होनी चाहिए. आईएलओ भी का मानना है कि इसके लिए सामाजिक और कानूनी दोनों स्तरों पर तुरंत बदलाव की जरूरत है. वरना इसका नकारात्मक असर दुनिया भर के रोजगार बाजारों पर देखने को मिलेगा.
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