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यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आँख की पुतली में हाँ के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कु़र्बानी-सी वफ़ा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है
बगावत और विद्रोह के एहसासत से भरी इन लाइनों में पंजाबी लेखक अवतार सिंह संधू 'पाश' (Avtar Singh Sandhu 'Pash') के हांथ के उस पसीने की यादें हैं, जो कलम को पकड़कर निडरता से लिखते वक्त छूटता है. एक ऐसा कवि जो सरकारों के सामने सवाल उठाता रहा, जिसने पंद्रह साल की उम्र में पहली कविता लिखी, 19 साल की उम्र में पहली बार जेल गया और 38 साल की उम्र में खालिस्तानी आतंकवादियों ने उसे मौत के घाट उतार दिया.
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना- बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना- बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना- बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ना- बुरा तो है
मुट्ठियाँ भींचकर बस वक़्त निकाल लेना- बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
9 सितंबर 1950 को पंजाब के जालंधर में जन्मे पाश अपने दौर में भी साहित्यकारों और आम अवाम के लाडले थे और वो आज भी साहित्यप्रेमियों, क्रांतिकारी किस्म की सोच रखने वाली आवाजों और असहमति का दम भरने वालों की यादों में जिंदा हैं. वो कवि आज भी हजारों-हजार कलमों-दवातों में ऊर्जा भरने का काम कर रहा है. पाश की कविताएं मौजूदा दौर में भी बगावत की जिंदा आवाज हैं.
मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा
बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो हॉस्टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मेरा क्या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा
पहली बार साल 1970 में पाश को कथित नक्सली संबंधों के आरोप में जेल करीब एक साल की जेल हुई.
इसके बाद साल 1972 में पंजाब छात्र आंदोलन के दौरान और 1974 में अखिल भारतीय रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल के दौरान भी उन्हें गिरफ्तार किया गया.
पंजाब का वो दौर जब खालिस्तानी आंदोलन अपने सबाब पर था और देश को क्रांतिकारी आवाजों की जरूरत थी. ऐसे वक़्त में साहित्य की दुनिया से कलम का एक ऐसा जंग-जू निकला, जिसने अपनी कविताओं के जरिए मुखालफत की नई धारा शुरू की, जिसका असर आज भी जिंदा है.
खालिस्तानियों के खिलाफ मोर्चा खोलने के बाद पाश को ये मालूम चल गया था कि खालिस्तानी उन्हें किसी भी तरह पकड़ना चाहते हैं. इसलिए वो साल 1986 में अपने परिवार के साथ अमेरिका चले गए. अमेरिका में पहले से ही रह रहे पाश के एक रिश्तेदार ने एंटी-47 फ्रंट नाम से एक खालिस्तान विरोधी आंदोलन शुरू किया.
अमेरिका में विजिटर वीजा पर जाने की वजह से पाश को अमेरिका से लौटना पड़ा और वो तलवंडी सलेम वापस आए. इसके बाद उन्होंने देश से बाहर जाने की कई कोशिशें कीं और इस कोशिश में उन्हें ब्राजील का मिला. पाश ब्राजील जाने की तैयारी कर रहे थे और दो दिन के बाद ही उन्हें निकलना था लेकिन वक्त का पहिया किसी और दिशा में मुड़ रहा था.
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) के रिटायर्ड हिंदी प्रोफेसर चमन लाल ने क्विंट हिंदी से पाश के बारे में बात-चीत की...
पाश, आखिर पाश कैसे बने?
पाश की लेखनी में जो प्रभाव था, एक तो ये था कि वो गांव में पैदा हुए थे. दूसरा- उनके पिता जी सैनिक थे. पाश के गांव का जो पूरा एरिया था, उसमें काफी ज्यादा आंदोलन चल रहे थे, उन दिनों पंजाब स्टूडेंट यूनियन भी प्रसिद्ध था. उनके ऊपर उस क्षेत्र में चल रहे आंदोलनों का काफी प्रभाव था. धीरे-धीरे इन चीजों की वजह से उनके अंदर क्रांतिकारी लहजा आया.
"सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना... " पाश ने ये कविता क्यों लिखी थी?
पाश ने जिस वक्त ये कविता लिखी, उसका भी एक दिलचस्प किस्सा है. वो हालात को देख रहे थे, जो खालिस्तानियों ने आतंक फैलाया था...वो एक तरफ. दूसरी तरफ राज्य का अपना अलग आतंक था...स्टेच टेरर अलग था- खालिस्तानियों के नाम पर बहुत सारे निर्दोष लोगों की हत्याएं हुई थीं. खालिस्तानी भी बहुत निर्दोश लोगों की हत्याएं कर रहे थे.
प्रोफेसर चमन लाल आगे कहते हैं कि दोनों तरफ से निर्दोषों की हत्याएं की जा रही थी और इस माहौल में चारों तरफ एक निराशा और डर का माहौल था...जैसे- आज कल के हालात हैं. आजकल के हालात भी मिलते-जुलते ही हैं. उसी वक्त उन्होंने ये कहा कि पुलिस की मार चाहे जितनी हो...ये सब चीजों से सबकुछ खत्म नहीं होता, जितना आदमी के अंदर के सपनों का मर जाना. यानी बुरे से बुरे हालात में भी सपने जिंदा रहने चाहिए. ये रहना चाहिए कि हालात बदलेंगे और हम जरूर समाज में परिवर्तन लाएंगे.
कुछ साल पहले पाश की कविताओं को NCERT किताबों से हटाने की मांग भी हुई...इस पर आपका क्या कहना है?
जो सवाल सुषमा स्वराज ने उठाया और उसमें एक मेरे दोस्त भी थे और वो वामपंथी भी थे. पाश के बारे में भी अनर्गल बातें कही गईं लेकिन जब पड़ताल करनी होती है, तो जो लोग एकेडमिक्स में होते हैं, वो ही ये करते हैं. जांच करने वालों को कुछ भी गलत नहीं लगा...अब भी गलत नहीं लग रहा है.
प्रोफेसर चमन लाल कहते हैं कि अब तथाकथित नई एजुकेशन पॉलिसी बनी है, उसमें बहुत कुछ बदलेंगे...उसमें ये सारी चीजें बदल जाएंगी और ऐसी-ऐसी निम्म स्तरीय कविताएं डाल दी जाएंगी, जिन कवियों को कोई जानता नहीं होगा. बजाय इसके कि विद्यार्थियों के दिमाग को रौशन करें...विद्यार्थियों के दिमाग ठस कर देगा, जो कुछ सिलेबस में लाने जा रहे हैं.
जो लोग पाश की कविता हटाने की मांग कर रहे हैं, उनके लिए आपका क्या कहना है?
भगत सिंह के बारे में बहुत सवाल उठते हैं कि वामपंथी थे, दक्षिणपंथी थे...मेरा उनको एक ही जवाब होता है कि आप सीधे भगत सिंह को पढ़ लीजिए, उसके बाद खुद ही फैसला कर लीजिए कि वो वामपंथी हैं, दक्षिणपंथी हैं या राष्ट्रपंथी हैं.
पाश के बारे में भी मैं यही कहना चाहूंगा कि जो लोग बिना जाने अनर्गल बातें कर रहे हैं, अगर उनमें थोड़ी बहुत साहित्यिक सूझ-बूझ है...जो बिल्कुल ठस दिमाग के हैं, उनके बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता लेकिन जो थोड़ी सी भी साहित्यिक संवेदना रखते हैं, मेरा उनसे यही कहना है कि पहले पाश की कविताएं पढ़ो आप...और अच्छे से पढ़ो, ऐसा नहीं कि एक कविता पढ़कर दो-तीन पंक्तियां निकाल लो और कहो कि देखो इसमें ये अश्लील बातें कही गई हैं.
"हिंदुस्तान की व्यवस्था में ठस दिमाग के लोग"
प्रोफेसर चमन लाल कहते हैं कि मैं ये समझता हूं कि हिंदुस्तान की व्यवस्था में ठस दिमाग के लोग भरे पड़े हैं और ये पूरा जनता का दिमाग भी ठस कर देना चाहते हैं, ताकि इनका शासन लगातार चलता रहे.
"मेरा यही कहना है कि जो लोग किताबों से पाश की कविता हटाना चाहते हैं, वो पहले उसको पढ़ें और समझें...दिमाग से भी काम लें, खाली ठस दिमाग से ना पढ़ें...थोड़ी साहित्यिक समझ-बूझ भी पैदा करें."
मौजूदा वक्त के भारत में पाश की कितनी जरूरत है?
बहुत ज्यादा...इसलिए पाश खूब बिकता है. पाश कविताएं, हिंदी में- 'जंजीरें टूटेंगी', राजकमल से छपी किताब- 'बीच का रास्ता नहीं होता'...बहुत लोकप्रिय हुई. बंग्ला में पाश का अनुवाद है, मराठी में पाश की कविताओं के दो अनुवाद हुए हैं और भी बहुत सारी भाषाओं में पाश की कविताओं के अनुवाद किए गए हैं. पाश की जरूरत है, तभी दूसरी भाषाओं में उसका अनुवाद होता है...इसलिए पाश इस वक्त बहुत ही प्रासंगिक कवि हैं.
पाश के द्वारा भगत सिंह की याद में लिखी गई कविता '23 मार्च' उनकी भी याद दिलाती है...
उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताज़ा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झाँकी की
देश सारा बच रहा बाक़ी
उसके चले जाने के बाद
उसकी शहादत के बाद
अपने भीतर खुलती खिडकी में
लोगों की आवाज़ें जम गयीं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चेहरे से आँसू नहीं, नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था
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