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JNU आंदोलनों के ‘लाल’ विद्रोही: वो ‘तगड़ा कवि’ जिसने बिना कलम के ही कही कविताएं

Ramashankar Vidrohi जेएनयू से उठने वाली लगभग हर विरोध की आवाज का प्रतीक बने.

मोहम्मद साकिब मज़ीद
साहित्य
Published:
<div class="paragraphs"><p>JNU आंदोलनों के ‘लाल’ विद्रोही: वो ‘तगड़ा कवि’ जिसने बिना कलम के ही कही कविताएं</p></div>
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JNU आंदोलनों के ‘लाल’ विद्रोही: वो ‘तगड़ा कवि’ जिसने बिना कलम के ही कही कविताएं

फोटो- क्विंट हिंदी

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ढंगों और दंगों के इस महादेश में

ढंग के नाम पर दंगे ही रह गए हैं.

और दंगों के नाम पर लाल ख़ून,

जो जमने पर काला पड़ जाता है.

यह हादसा है...यहां से वहां तक दंगे,

जातीय दंगे, सांप्रदायिक दंगे, क्षेत्रीय दंगे, भाषाई दंगे, यहां तक कि क़बीलाई दंगे,

आदिवासियों और वनवासियों के बीच दंगे

यहां राजधानी दिल्ली तक होते हैं.

ये लाइनें उस कवि की हैं, जिसने अपनी कविताएं कलम से नहीं लिखी बल्कि याद रखीं और सुनाते रहे. उस फक्कड और विद्रोही कवि को जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (Jawaharlal Nehru University) की पहचान कहा गया. आज भी जेएनयू की वादियों में उनके कविताओं का असर देखने को मिलता है.

वकालत की पढ़ाई छोड़कर JNU आए थे विद्रोही

उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के सुल्तानपुर (Sultanpur) में आहिरी फिरोजपुर गांव का एक कवि साल 1980 में वकालत की पढ़ाई छोड़कर दिल्ली के जेएनयू (JNU) में हिंदी साहित्य पढ़ने आया लेकिन वक्त ने उसके साथ ऐसा खेल खेला कि आगे की पूरी जिंदगी जेएनयू के दामन में गुजारने के बाद भी जेएनयू उसका नहीं हो सका.

आधिकारिक रूप से जेएनयू भले ही रमाशंकर विद्रोही का नहीं हो सका लेकिन वो कैंपस से उठने वाली लगभग हर विरोध की आवाज का प्रतीक बने.

साल 1983, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक बड़ा छात्र-आंदोलन हुआ, इसमें सैकड़ों विद्यार्थियों के साथ रमाशंकर विद्रोही भी शामिल हुए. इसी दौरान उन पर मुकदमा हुआ, उनका एडमिशन रद्द कर दिया गया. इसके बाद वो जेएनयू के छात्र तो वे नहीं रहे लेकिन अगले 30 साल का वक्त कैंपस में ही रहकर गुजारा. उनकी बेटी अमिता कुमारी ने क्विंट से बात करते हुए बताया कि यूनिवर्सिटी प्रशासन ने उनकी सभी डिग्रियां भी जब्त कर ली थीं.

जिस तरह से उनकी जिंदगी की जेएनयू के बगीचों में गुजरी, उसी तरह उनकी कविताओं में भी जेएनयू की महक शामिल है.

वो अपनी एक कविता में लिखते है...

जे.एन.यू. में जामुन बहुत होते हैं

और हम लोग तो बिना जामुन के

न जे.एन.यू. में रह सकते हैं और न दुनिया में ही रहना पसंद करेंगे.

रमाशंकर विद्रोही अपने खास अंदाज के लिए जाने-जाते थे. इसी की वजह वो जेएनयू के छात्रों में काफी मकबूल रहे. विद्रोही अपनी एक कविता में लिखते हैं...

नाक में नासूर है और नाक की फुफकार है,

नाक विद्रोही की भी शमशीर है, तलवार है.

जज़्बात कुछ ऐसा, कि बस सातों समंदर पार है,

ये सर नहीं गुंबद है कोई, पीसा की मीनार है.

और ये गिरे तो आदमीयत का मकीदा गिर पड़ेगा,

ये गिरा तो बलंदियों का पेंदा गिर पड़ेगा.

ये गिरा तो मोहब्बत का घरौंदा गिर पड़ेगा,

इश्क और हुश्न का दोनों का दीदा गिर पड़ेगा.

इसलिए रहता हूं ज़िंदा

वरना कबका मर चुका हूं.

जिंदगी के आखिरी वक्त तक जेएनयू में रहे विद्रोही

जेएनयू में रमाशंकर विद्रोही के साथ वक्त बिता चुके अंबेडकर यूनिवर्सिटी में प्रो.अवधेश त्रिपाठी ने क्विंट से बात करते हुए कहा कि विद्रोही जी अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त तक जेएनयू में रहे. वो यहां पर हुए लगभग हर आंदोलन में वो शामिल हुए और उनकी कविताएं गूंजती रहीं.

मेरी जानकारी के मुताबिक रमाशंकर विद्रोही ने कागज़ पर कभी कविताएं नहीं लिखी. वो जबानी ही सुनाया करते थे. बाद में उनकी कविताओं को अंकित करने की कोशिश की गई और ये भी काफी मुश्किल काम था क्योंकि वो आंदोलनों में ही अपने असली रूप में नजर आते थे.
प्रो.अवधेश त्रिपाठी, प्रोफेसर, अंबेडकर विश्वविद्याल, दिल्ली
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हुमायूं के पक्ष में गाते थे गाथा: प्रोफेसर अवधेश त्रिपाठी बताते हैं कि विद्रोही जी समाज के हर उस वर्ग के साथ खड़े नजर आते थे, जिसको सताया गया हो या जिसको मारा गया हो या फिर जिसको हार मिली हो. उन्होंने बताया कि विद्रोही जी हुमायूं के पक्ष में लंबी-चौड़ी गाथा गाते थे...एक बार मैंने पूछा कि आप हुमायूं के लिए क्यों गा रहे हैं...तो उन्होंने कहा कि मैं इसलिए गा रहा हूं क्योंकि हुमायूं पराजित हुआ था और जो लोग भी इतिहास में पराजित हुए हैं, मैं उनके पक्ष में हूं.

इन तमाम पहलुओं से ये समझ आता है कि रमाशंकर विद्रोही के दिल में पराजित होने का दर्द था और उन्होंने उस दर्द को बरसों-बरस जिया. ‘जन-गण-मन’ में वो लिखते हैं...

मुझे माफ़ करना मेरे दोस्तों, मैं एक पराजित योद्धा हूं

और मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई उपदेश नहीं है

इसलिए नहीं कि मुझे बिठा दिया गया है प्यास के पहाड़ों पर

कि मेरी अंतड़ियों को मरोड़कर भींच दिया गया है

मुट्ठियों के बीच

वरन् इसलिए कि

न तो मौत आती है

और न मैं ये बात भूल पाता हूँ

कि मैं एक योद्धा हूं

और पराजित हो गया हूं

रमाशंकर विद्रोही की शादी बेहद छोटी उम्र में ही कर दी गई थी. उनकी पत्नी का नाम शांति देवी था.

उनकी बेटी अमिता कुमारी ने बताया कि उनको स्कूल जाने के लिए कहा जाता था, तो वो मना कर देते थे. वो भैंस चराने जाया करते थे और भैंस के ऊपर बैठकर घूमा करते थे. उनकी इस तरह की एक्टिविटीज देखकर परिवार के किसी बुजुर्ग ने कहा कि शांति स्कूल जाती है और आप नही जाते...आप अगर अनपढ़ ही रह गए तो आगे चलकर शादी टूट सकती है.

अमिता बताती हैं कि ये बात सुनकर वो स्कूल जाने के लिए तैयार हो गए और पढ़ने-लिखने लगे.

रमाशंकर विद्रोही ने अपनी भैंस को कविता में भी शामिल किया और बड़े ही अलग अंदाज में इसमें अपना दर्द भी साझा किया है.

वो लिखते हैं...

मैं अहीर हूं और ये दुनिया मेरी भैंस है.

मैं उसे दूह रहा हूं और कुछ लोग उसे कुदा रहे हैं.

ये कौन लोग हैं जो कुदा रहे हैं, आपको पता है?

क्यों कुदा रहे हैं, ये भी पता है?

लेकिन इस बात का पता, न आपको है, न हमको है, न उनको,

कि इस कुदाने का परिणाम क्या होगा?

हां, इतना तो पता है कि नुकसान तो हर हालत में हमारा ही होगा,

क्योंकि भैंस हमारी है,

और दुनिया भी हमारी है.

तीसरी क्लास में लिखी पहली कविता

रमाशंकर विद्रोही की बेटी अमिता कुमारी ने बताया कि उन्होंने अपनी पहली कविता तीसरी क्लास में लिखी थी और बचपन में लिखी कविताओं का रंग-रूप वही है, जो उन्होंने जेएनयू में रहकर लिखा.

रमाशंकर विद्रोही जेएनयू के वाम आंदोलनों में खुलकर भाग लेते थे. 2015 के दिसंबर महीने में जेएनयू के ‘ऑक्युपाई यूजीसी’ प्रोटेस्ट के वक्त भी वो काफी एक्टिव रहे. इसी आंदोलन के दौरान 8 दिसंबर 2015 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

विद्रोही अपनी एक कविता में मौत का जिक्र करते हुए लिखते हैं...

मैं भी मरूंगा

और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे

लेकिन मैं चाहता हूं

कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें

फिर भारत भाग्य विधाता मरें

फिर साधू के काका मरें

यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें

फिर मैं मरूं- आराम से

उधर चल कर वसंत ऋतु में

जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है

या फिर तब जब महुवा चूने लगता है

या फिर तब जब वनबेला फूलती है

नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके

और मित्र सब करें दिल्लगी

कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था

कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा

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