"सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना"
अगर आप ये पंक्तियां सुन चुके हैं तो आप पाश को जानते हैं. 9 सितंबर 1950 को तलवंडी, जिला जालंधर, पंजाब में जन्मे पाश पंजाबी के नामचीन कवियों में गिने जाते हैं. इनका पूरा नाम अवतारसिंह संधू था. पर दुनिया पाश नाम से ही जानती है. उन्हें 23 मार्च, 1988 को अमेरिका लौटने से दो दिन पहले खालिस्तानी आतंकवादियों की गोलियों का शिकार होना पड़ा. इस हमले में पाश की मौत हो गई. उस वक्त उनकी उम्र मात्र 38 साल थी. 57 साल पहले यानी 1931 में इसी तारीख (23 मार्च) को भगत सिंह को फांसी दी गई थी.
पाश ने भगत सिंह की शहादत पर '23 मार्च' नाम से 23-3-1982 को कविता लिखी थी जो उनकी डायरी में दर्ज थी और उनकी मौत के बाद प्रकाशित हुई. इस कविता को पढ़ते हुए लगता है पाश ने भगत सिंह को याद करते हुए खुद अपनी ही कब्र के पत्थर पर लिखने के लिए शायद इसे लिखा था. ये कविता पंजाबी के सबसे बड़े कवियों में एक पाश का दुनिया के सबसे बड़े क्रांतिकारियों में से एक भगत सिंह को लिखा गया पत्र है. लगता है दूसरी दुनिया में पाश अपने हाथ से भगत सिंह को ये देना चाहते थे. हालांकि पाश और भगत सिंह दोनों नास्तिक और मार्क्सवादी थे. कविता की कुछ पंक्तियां पढ़ियेगा-
23 मार्च
"उसकी शहादत के बाद बाकी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताजा मुंदी पलकें देश में सिमटती जा रही झांकी की
देश सारा बचा रहा बाकी
उसके चले जाने के बाद
अपने भीतर खुलती खिड़की में
लोगो की आवाजें जम गई"
कविता की अंतिम दो पंक्तियां हैं-
"शहीद होने की घड़ी में वो अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था"
'समय ओ भाई समय' नामक पाश के कविता संग्रह की भूमिका में केदारनाथ सिंह लिखते हैं,
“उनकी कविताओं का रंग और मिजाज आज भी उतना ही नया है , जितना वो तब था , जब एक गहरी उथल पुथल के गर्भ से वे कविताएं पैदा हुई”
इसी संग्रह से पाश की कविताओं की पंक्तियां देखिये और स्वयं महसूस कीजिये जो केदारनाथ सिंह कहते हैं. (इस संग्रह का संपादन-अनुवाद चमनलाल ने किया है)
पेज 32 पे देखिये
आज भी संसद की स्थिति इस तरह है क्या ?
"संसद"
“जहरीली शहद की मक्खी की ओर उंगली न करो जिसे आप छत्ता समझते हैं वहां जनता के प्रतिनिधि रहते हैं”
आज भी व्यक्ति उसके पास मौजूद बैंक बैलेंस से ही तौला जाता है . नैतिकता , मर्यादा , विद्वता जैसे शब्द डिक्शनरी में शोभा देते हैं.
“मुझे पता है कि चाहे अब नहीं चलते सुराखवाले गोल पैसे लेकिन पीछे छोड़ गए हैं वेअपनी साजिश कि आदमी अभी भी उतना है जितना किसी को गोल पैसे के सुराख से नजर आता है”
हाल में मध्यप्रदेश के 22 विधायक बेंगलुरु में थे . पाश के समय में ये विधायक हरयाणा के होंगे ...
“कहीं ऐसा तो नहीं चांद ने भी सीख लिया हो पेड़ जब खुसर-फुसर नहीं करते और चुप खड़े रहते हैं भारतीय नागरिक की तरह खामोशी में बुझी हुई घर की तार पर मौसम फिसल जाते हैं जब हरियाणा के विधायक की तरह” इसी कविता में वे आगे लिखते हैं
“बनाई गई हमारी यह दुनिया हमारे ही खिलाफ गवाही दे रही है”
एक और बानगी देखिए-
टिमटिमाती एकाकी लौ वाला घर जरूरी नहीं किसी वैश्या का ही हो यह किसी विधायक का बंगला हो सकता है
इसी पेज पे एक दूसरी कविता में देखिए
अलग होती है हमेशा भाषणों की भाषा लेकिन रोती माओं और बहिनों की भाषा एक सी होती है अलग होती है भाषा जो जनगणना के रजिस्टर में दर्ज है घरों से उठते मरसियों की भाषा एक-सी होती है
“समय ओ भाई समय” के संपादक चमनलाल कहते हैं-
ये वो समय था जब पंजाबी युवा कवि लेखकों में नक्सलवादी आंदोलन का काफी प्रभाव था और पाश लगभग उसी समय दो वर्ष की कैद काटकर जेल से रिहा होकर आए थे . पाश की आयु उस वक्त 21 वर्ष की थी .
चमनलाल आगे लिखते हैं
"संभवतः 1971 या 1972 में ही बिहार से हिंदी कवि आलोक धन्वा आये थे . और संभवतः पाश के साथ ही रुके थे . आलोकधन्वा की 'गोली दागों पोस्टर' कविता पंजाब में भी चर्चित रही थी . पुलिस ने इन दोनों कवियों को गिरफ्तार किया था."
आलोक धन्वा से मैंने बात की और पाश को समझने की और कोशिश की. आलोक धन्वा कहते हैं -
पंजाबी कविता में भी पाश ने परिवर्तन किया. उनको हिंदी में लाने का श्रेय ‘पहल’ पत्रिका को है जो ज्ञानरंजन निकालते हैं. उस समय चिली में एक ऐसी सरकार थी जो मार्क्सवादियों की सरकार थी. जिसके समर्थक महान कवि पाब्लो नेरुदा भी थे. उस समय एक नई धारा निकली थी लोकतंत्र के लिए. ये धारा थी कि ये जो आज़ादी है, जिसके लिए इतने लोगों ने बलिदान दिया. जिसके नेता थे गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना, आज़ाद. ये क्या असल मे आजादी है?
चमनलाल कहते हैं-
“पाश बहुत ही खुले स्वभाव का व प्यार करने वाला इंसान था. खुद शायर होकर भी उसे गजलों या रोमांटिक पंजाबी गीतों आदि में दिलचस्पी न थी. इस बात से उसके दोस्तों को हैरानी भी होती थी.”
आलोक धन्वा कहते हैं-
पाश जब आये थे 1988 में तो एक ऐसा ग्रुप था, वहां पर जो ऐसे लोगों को मारना चाहता है जो सवाल ज्यादा पैदा करता है. आज भी ऐसे ग्रुप हैं ! कैपिटलिज्म बिना पावर या सत्ता के नहीं चल सकता और कैपिटलिज्म को सबसे ज्यादा खतरा उससे है जो सवाल उठाता है.
अंत में पाश की दो लाइन की एक कविता-
"उम्र"
आदमी का भी कोई जीना हैअपनी उम्र कव्वे या सांप को बख्शीश में दे दो
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)