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फैज अहमद फैज: वो शायर जिसकी इंकलाबी नज्में सरहदों को तोड़कर लोगों की आवाज बनीं

Faiz Ahmad Faiz ने इंकलाबी शायरी के अलावा इश्क भी लिखा और मोहब्बत को जमाने का सबसे बड़ा दुःख मानने से भी इनकार किया.

मोहम्मद साकिब मज़ीद
साहित्य
Published:
<div class="paragraphs"><p>Faiz Ahmad Faiz Death Anniversary: वो शायर जिसकी इंकलाबी नज्में सरहदों को तोड़कर लोगों की आवाज बनीं</p></div>
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Faiz Ahmad Faiz Death Anniversary: वो शायर जिसकी इंकलाबी नज्में सरहदों को तोड़कर लोगों की आवाज बनीं

(ग्राफिक्स: क्विंट)

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बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल ज़बां अब तक तेरी है

तेरा सुत्वां जिस्म है तेरा, बोल कि जां अब तक तेरी है

बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है, जिस्म ओ ज़बां की मौत से पहले

बोल कि सच ज़िंदा है अब तक, बोल जो कुछ कहना है कह ले

जेल की कैद में रहकर खुद से बात करते हुए फैज अहमद फैज साहब (Faiz Ahmad Faiz) के लिए ये लाइनें लिखना कितना कठिन रहा होगा...सोचिए. उन्होंने जिंदान के अंधेरों और सन्नाटों में अपनी कलम के जरिए उम्मीद की रौशनी पैदा की और ये रोशनी सिर्फ उनके लिए नहीं थी बल्कि हर उस शख्स के लिए है, जो इन अल्फाज को पढ़ता है.

उर्दू के मशहूर शायर फैज अहमद फैज अपने इंकलाबी लहजे के लिए पूरी दुनिया में पहचाने गए. आज भी उनके अल्फाज लोगों के दिलों में बसते हैं.

फैज अहमद फैज: एक इंकलाबी कलमकार 

फैज साहब के कलाम में आशावाद, ख्वाब, उम्मीद और हकीकत की मिलावट देखने को मिलती है. फैज साहब दिल को छू लेने वाली इंकलाबी नज्मों, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ विरोध की आवाज बनकर उभरे.

फैज साहब बुनियादी तौर पर रोमैंटिक शायर थे लेकिन उन्होंने इस तरह के इंकलाबी शेर लिखे, जो आज भी विरोध प्रदर्शनों में पढ़े जाते हैं.

आधुनिक उर्दू शायरी की पहचान कहे जाने वाले फैज अहमद फैज की पैदाइश 13 फरवरी 1911 को पंजाब के काला कादिर में हुआ था, जो अब फैजनगर नाम से जाना जाता है.

सरहदों को तोड़ने वाली शायरी

हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद फैज साहब पाकिस्तान हिजरत कर गए लेकिन उनकी शायरी उनकी जिंदगी में ही सरहदों, जबानों, विचारधाराओं और मान्यताओं को तोड़ते हुए दुनिया भर में पढ़ी जाने लगी थी.

साल 1979 का वो दौर जब पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के लिए जगह-जगह आंदोलन हो रहे थे और जनरल जियाउल हक को गद्दी से हटाने की मांग हो रही थी. पाकिस्तान के नेताओं, वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और कलमकारों को जेलों में भरा जा रहा था. जियाउल हक इस्लाम के नाम पर लोगों पर ज़ुल्म ढा रहे थे. उसी वक्त इंकलाबी शायर फैज अहमद फैज ने जियाउल हक के खिलाफ आवाज उठाई और एक नज्म लिखी, जिसका उन्वान है... ‘हम देखेंगे’

हम देखेंगे

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

वो दिन कि जिस का वादा है

जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां

रूई की तरह उड़ जाएंगे

हम महकूमों के पांव-तले

जब धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर

जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी

जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से

सब बुत उठवाए जाएंगे

हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाए जाएंगे

सब ताज उछाले जाएंगे

सब तख़्त गिराए जाएंगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी

जो मंज़र भी है नाज़िर भी

उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा

जो मैं भी हूं और तुम भी हो

और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा

जो मैं भी हूं और तुम भी हो

ये नज्म फैज साहब की कलम से निकलने के बाद से ही लोगों में लोकप्रिय हो गई और इसे विरोध प्रदर्शन की पहचान बनते देखा गया. आज के दौर हिंदुस्तान में होने वाले विरोध प्रदर्शनों में भी इस नज्म को पढ़ा जाता है.

'हम देखेंगे...' जब इकबाल बानो ने जिया उल हक को ललकारा

साल 1985 में जनरल जिया उल हक के फरमान के तहत पाकिस्तान में औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी गई.

इसके बाद पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाल बानो ने इस फरमान का विरोध किया और एहतिजाज दर्ज कराते हुए लाहौर के अल-हमरा आर्ट्स काउंसिल के ऑडिटोरियम में काले रंग की साड़ी पहन कर फैज अहमद फैज की ये नज्म पढ़ी. कहा जाता है कि उस वक्त इकबाल के सामने लगभग पच्चास हजार लोगों की भीड़ थी और जब वो नज्म गा रही थीं, तो जिंदाबाद के नारों से पूरा स्टेडियम गूंज उठा था.

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फैज अहमद फैज ने इंकलाबी शायरी के अलावा इश्क भी लिखा और मोहब्बत को जमाने का सबसे बड़ा दुःख मानने से भी इनकार किया.

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

और क्या देखने को बाक़ी है

आप से दिल लगा के देख लिया

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं

किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

आए तो यूं कि जैसे हमेशा थे मेहरबान

भूले तो यूं कि गोया कभी आश्ना न थे

फैज अहमद फैज को उर्दू के अलावा अंग्रेजी, अरबी और फारसी का भी इल्म था. कहते हैं कि वो हाफिज-ए-क़ुरआन भी थे.

1947: आजादी की सुबह का दुःख भरा मंजर

जब 15 अगस्त 1947 को हिंदुस्तान का बंटवारा हुआ और नरसंहार का मंजर बना उससे फैज साहब को एक झटका सा लगा था. इसके बाद उन्होंने एक नज्म लिखी, जिसका उन्वान है सुब्ह-ए-आजादी. फैज साहब लिखते हैं....

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर

वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू ले कर  

चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं  

पुकारती रहीं बाहें बदन बुलाते रहे  

अभी चराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं  

अभी गिरानी-ए-शब में कमी नहीं आई  

नजात-ए-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई  

चले-चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई  

भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की हत्या होने पर फैज साहब को बेहद गम हुआ था. उस वक्त हिंदू-मुस्लिम तनाव के बावजूद फैज अहमद फैज गांधी जी के अंतिम संस्कार में शामिल हुए.

साल 1962 में सोवियत संघ ने उन्हें शांति पुरस्कार से सम्मानित किया. इसके बाद उनकी शोहरत हिंदुस्तान और पाकिस्तान के अलावा सारी दुनिया में फैल गई और उनकी कलम से निकली नज्मों के कई भाषाओं में अनुवाद होने लगे.

जेल के अंदर भी नहीं रुकी फैज की कलम

जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और लेखिका बारान फारूकी ने क्विंट से बात करते हुए कहा कि फैज साहब शायर होने के साथ एक एक्टिविस्ट भी थे और सामाजिक मुद्दों पर एक्टिव रहने की वजह से वो जेल भी गए. जेल में जाने के बाद भी वो लिखते रहे और एक वक्त ऐसा आया कि उनके द्वारा लिखे पत्रों को जेल से बाहर जाने पर पाबंदी लगा दी गई क्योंकि उनके लिखने का लोगों पर असर होता था.

पाबंदी लगने के बावजूद भी उन्होंने लिखना बंद नहीं किया और लिखकर किसी तरह जेल के बाहर भेज दिया करते थे. इसके बाद वो हुकूमत के लिए और ज्यादा खतरनाक हो गए. बारान फारूकी कहती हैं कि फैज साहब ने जो लिखा है, उसको जिया भी है. उन्होंने जो महसूस किया वो लिखा.

फैज साहब लिखते हैं...

हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे

जो दिल पे गुज़रती है रक़म करते रहेंगे

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