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उर्दू-शायरी में ऐसे गिने-चुने ही शायर हैं जिन्हें अदब और फिल्मी दुनिया में बराबर का मान-सम्मान दिया गया हो. मजरूह सुल्तानपुरी और साहिर लुधियानवी की तरह ही कैफी आजमी (Kaifi Azmi) भी सिनेमा की दुनिया के साथ-साथ अदबी हल्कों और तरक्कीपसंद उर्दू तहरीक की गतिविधियों में सरगर्म रहे. ये सभी शायर तरक्कीपसंद तहरीक के नये उसूलों और मुद्दों को न सिर्फ मुशायरों और रिसालों के जरिये अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे, बल्कि अपने फिल्मी गीतों के माध्यम से भी, जहां तनिक भी मौका और गुंजाइश पाते थे, वहां सर्वहारा वर्ग की पीड़ा और कष्टों को व्यक्त कर देते थे.
कैफी आजमी भी उसी परंपरा के शायर हैं. वास्तव में ऐसा इसलिए होता है कि इश्क करना, मुहब्बत करना, किसी के लिए दीवाना हो जाना भी एक तरह की बगावत और इंकलाब का ही पहलू है.
जिस आदमी का मिजाज बागियाना होगा वही समाज के उसूलों को तोड़कर किसी एक विशेष से प्रेम करेगा या बिना किसी बंधन के सभी से मुहब्बत करेगा. उसके समक्ष जाति, धर्म और ऊंच-नीच का सामाजिक बंधन कारगर न होगा. क्रान्तिकारी स्वभाव का व्यक्ति ही राजनीति पर प्रश्नचिह्न खड़ा करेगा.
कैफी आजमी औरत को महज इश्क और मुहब्बत के लिए गढ़ी गयी मूरत नहीं समझते, बल्कि ललकारने की शैली में उसका हौसला बढ़ाते हुए कहते हैं.
तोड़कर रस्म का बुत बन्दे-क़दामत से निकल,
ज़ोफ़े-इशरत से निकल वहमे-नज़ाकत से निकल,
नफ़्स के खींचे हुए हल्क़ाए-अज़मत से निकल,
क़ैद बन जाय मुहब्बत तो मुहब्बत से निकल,
राह का ख़ार ही क्या, गुल भी कुचलना है तुझे,
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे.
यहां औरत को बन्दे-कदामत से निकलने की जो बात हौसला अफजाई के तौर पर शुरू की गयी वो खत्म हुई कि ‘राह का खार ही क्या, गुल भी कुचलना है तुझे’. यहां ‘गुल कुचलने’ का मतलब है कि एक औरत को मात्र कांटों भरी राहों से गुजरकर या संघर्ष के रास्ते को पार करते हुए मंजिल तक नहीं पहुंचना है, बल्कि उसे आरामतलब रास्तों, फूल बिछी राहों से भी परहेज करते हुए जिंदगी की अस्ल मंजिल तक, अस्ल मकसद तक पहुंचना है. सुख और खुशी की तलाश में वो अपने लक्ष्य से भटक सकती है, इसलिए उसे इन रास्ते की छोटी-मोटी खुशियों से परहेज करना है.
कैफी आजमी औरत के परम्परागत शायराना किरदार में एक नया पहलू पैदा करते हैं, उसमें एक आग भरने का काम करते हैं. कभी उसके परम्परागत रूप से प्यार करते हैं तो कभी चाहते हैं कि वो एकदम आधुनिक रूप और रंग में उनके सामने खड़ी नजर आये. कहीं उससे मुहब्बत की मांग करनेवाले आशिक नजर आते हैं तो कभी भी उसके रहनुमा से नजर आने लगते हैं.
ये हौसला देने की हिम्मत उर्दू-शायरी के परम्परागत आशिक में कदापि नहीं है. कैफी साहब औरत जात को ये हौसला तरक्कीपसंदी के उसूलों के तहत ही नहीं दे रहे हैं, बल्कि वो एक औरत की पूरी शख्सियत को विस्तृत और विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं.
जाती जिंदगी में भी कैफी साहब की आलोचना कई कट्टरवादी मुस्लिम संप्रदाय और समुदाय के लोग करते थे कि वो अपनी बेटी शबाना आजमी को फिल्मों में काम करने की इजाजत देते हैं, जहां नाचना, गाना-बजाना ही मुख्य काम है. कैफी साहब ने कभी उन आलोचनाओं को महत्त्व नहीं दिया और इतिहास गवाह है कि वे सही थे.
जिस तरह कैफी साहब की धर्मपत्नी शौकत कैफी एक उत्कृष्ट थियेटर आर्टिस्ट और फिल्म अभिनेत्री थीं और अभिनय के क्षेत्र में एक मिसाल रखती हैं. उन्हीं की तरह शबाना आजमी ने भी न सिर्फ समानांतर हिन्दी सिनेमा में अपने अभिनय से नये मानदण्ड स्थापित किये, बल्कि सफल व्यावसायिक फिल्मों में काम करके हर प्रकार से अपने अस्तित्व का लोहा मनवाया.
शबाना आजमी ने पद्मश्री से लेकर राज्यसभा और पद्मभूषण पुरस्कार प्राप्त करने तक का सफर तय करके न सिर्फ खुद को सिद्ध किया, बल्कि एक औरत के वजूद को सिद्ध किया और साथ ही उन पर भरोसा करने वाले एक दूरदृष्टि पिता के उस जज्बे की भी इज्जत अफजाई की जो जज्बा बार-बार औरत की हिमायत में खड़ा होता था.
कैफी साहब की धर्मपत्नी शौकत कैफी अपने एक इंटरव्यू में बताती हैं कि शादी के बाद किस तरह वे लोग कमाई के लिए संघर्ष करते रहे और हर कदम पर दोनों ने एक-दूसरे का साथ दिया. कैफी साहब की नज्मों पर अपनी शरीके-हयात के इस कदम-दर-कदम साथ रहने का सम्मान झलकता है.
शौकत कैफी के सहयोग को याद करते हुए एक इंटरव्यू में कैफी साहब कहते भी हैं कि मेरी तंगी के दिनों में शौकत ने मेरा बहुत साथ दिया, उनकी जगह अगर कोई दूसरी औरत होती तो कुछ न करती तो मुझे पार्टी (कम्युनिस्ट पार्टी) से दूर कर देती और कहती कोई दूसरा काम करो, कुछ कमाई करो.
कैफी साहब की कई नज्मों में औरत के तमामतर रूपों का तवील जिक्र और इशारा मिलता है, जैसे- ‘तसव्वुर’, ‘नजराना’, ‘प्यार का जश्न’, ‘नया हुस्न’, ‘बेवा की खुदकुशी’, ‘तुम’, ‘दोशीजा मालन’ आदि में कैफी साहब ने औरत के विविध रूपों को उसके पूरे आबोताब के साथ पेश किया है.
(डॉ. दीपक रूहानी उर्दू शायर और लेखक के तौर पर अपनी पहचान रखते हैं, और इस वक़्त आर. के. कॉलेज, मधुबनी (बिहार) के हिन्दी-विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। उनका ट्विटर हैंडल @deepakruhani है.)
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