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"मेरी आकांक्षाएं कुछ नहीं हैं, इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य संग्राम में विजयी हों. धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही, खाने भर को मिल ही जाता है. मोटर और बंगले की मुझे अभिलाषा नहीं. हां, यह जरूर चाहता हूं कि दो चार उच्च कोटि की पुस्तकें लिखूं, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य-विजय ही है.”
ये अल्फाज हिंदी के ‘चार्ल्स डिकन्स’ कहे जाने वाले साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद (Munshi Premchand) के हैं, जो उनके द्वारा अपने दोस्त बनारसी दास चतुर्वेदी (Banarsidas Chaturvedi) के लिए लिखी गई चिट्ठी का एक हिस्सा है. इन पंक्तियों में प्रेमचंद की शालीनता और देश के लिए उनके प्रेम का अंदाजा लगाया जा सकता है.
प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में भारत के हर वर्ग के लोगों को जगह दी. उन्होंने किसानों का दर्द, गांव की मुश्किलें और भारत की रंग-बिरंगी संस्कृति तक को अपनी कहानियों का अहम हिस्सा बनाया.
उपन्यास के सम्राट कहे जाने वाले प्रेमचंद और उर्दू के बीच गहरा रिश्ता था. उन्होंने कहानियां लिखने की शुरुआत उर्दू में ही की थी, तब वो नवाब राय नाम से लिखा करते थे. उन्होंने अपना पहला कहानी संग्रह ‘सोज़े वतन’ नाम से लिखा, जिसमें देशप्रेम और वतन के दीवानों की शहादत का चित्रण मिलता है.
प्रेमचंद अपनी कहानी ‘दुनिया का अनमोल रतन’ में लिखते हैं...
“खून का ये आखिरी कतरा जो वतन की हिफाजत में गिरे दुनिया की सबसे अनमोल चीज है.”
प्रेमचंद का जन्म वाराणसी के लमही गांव में हुआ था, जो आज भी उनका एहसास देता है. मौजूदा वक्त में भी उनसे जुड़ी यादें वहां देखने को मिल जाती हैं. उनकी कहानियों में इस गांव का दर्द भी महसूस किया जा सकता है.
विशेषज्ञों का मानना है कि प्रेमचंद की कहानियों को सिर्फ फिक्शन कहना सही नहीं है, बल्कि उनकी रचनाएं सोशल कमेंट्री के तौर पर पढ़ी जाएं तो आजादी से पहले के भारतीय समाज को हम बेहतर ढंग से समझ पाएंगे. उनकी ज्यादातर कहानियों में सामाजिक अन्याय और जातिगत असमानताओं का गरीबों पर पड़ने वाला असर देखने को मिलता है.
प्रेमचंद ने अपने लेखों में उस नस्लवादी नफरत पर भी चोट की है, जो फासीवाद की जड़ है. प्रेमचंद की कलम से निकले अल्फाज को आज के दौर के लोगों को पढ़ने और सुनने की जरूरत है.
प्रेमचंद 1933 में पब्लिश हुए एक आर्टिकल में लिखते हैं...राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी. नतीजा दोनों का एक है. सांप्रदायिकता अपने घेरे के अंदर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश नहीं होता था.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी के प्रोफेसर अपूर्वानंद प्रेमचंद के बारे में क्विंट से बात करते हुए कहते हैं कि प्रेमचंद अपनी लेखनी में हमेशा ही मानवीय तत्व की तलाश करते थे. उनकी लेखनी जनता को ये विश्वास दिलाती थी कि उनमें इंसान होने की क्षमता बची हुई है. प्रेमचंद के ऊपर विचार करते हुए ऐसा अक्सर कहा जाता है कि वो गांव के कहानीकार थे, किसानों के कहानीकार थे और यही वजह है कि उन्हें आज भी जरूर पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि आज भी किसानों की हालत बेहद खराब है.
वो आगे कहते हैं कि जब हम प्रेमचंद को पढ़ें तो ध्यान रखें कि वो हमें हर तरह की संकीर्णता से निकलने की चुनौती देते हैं, चाहे वो साम्प्रदायिकता की संकीर्णता हो या राष्ट्रवाद की. प्रेमचंद कहते हैं कि ‘राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ साम्प्रदायिकता थी.’ वो साम्प्रदायिकता को लेकर जागरुक करते थे और कहते थे कि साम्प्रदायिकता को अपने असली चेहरे से लाज आती है इसलिए वो संस्कृति और धर्म की चादर को ओढ़ कर आती है.’
उर्दू के मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी और प्रेमचंद के बीच काफी अच्छा रिश्ता रहा. उन्होंने प्रेमचंद के बारे में कहा है कि “यदि हम प्रेमचंद के बारे में यह कह सकें कि उनकी कलम जादू सा काम करती थी तो यह उनके संबंध में कोई बड़ी बात नहीं होगी. उनके प्रत्येक पृष्ठ में सभ्यता के प्रवर्तकों के पहले कदमों की चाप सुनाई देती है.
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