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शत्रुघ्न सिन्हा की बंपर जीत से TMC खुश है, लेकिन कुछ मसलों पर ध्यान देना जरूरी

बंगाल में TMC अपनी ताकत और चुनावी प्रभुत्व के शिखर पर है, लेकिन इसमें कई और बातें भी हैं जो नहीं दिख रहीं.

देबायन दत्ता
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>शत्रुघ्न सिन्हा की बंपर जीत से TMC खुश है, लेकिन कुछ मसलों पर ध्यान देना जरूरी:</p></div>
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शत्रुघ्न सिन्हा की बंपर जीत से TMC खुश है, लेकिन कुछ मसलों पर ध्यान देना जरूरी:

फोटोः क्विंट

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तृणमूल कांग्रेस (TMC) ने हाल में हुए उपचुनावों में आसनसोल लोकसभा और बालीगंज विधानसभा सीट जीती है. टीएमसी में हाल में शामिल हुए शत्रुघ्न सिन्हा और बाबुल सुप्रियो ने क्रमश: इन दोनों सीटों पर जीत हासिल की है.

कई एक्सपर्ट्स ऐसा मानते हैं कि बंगाल में टीएमसी अपनी ताकत और चुनावी प्रभुत्व के शिखर पर है, लेकिन इसमें कई और बातें भी जो नहीं दिख रहीं.आसनसोल लोकसभा सीट से शत्रुघ्न सिन्हा जीते हैं. ये सीट बाबुल सुप्रियो के बीजेपी से इस्तीफा देने और उसके बाद उनके मोदी कैबिनेट से हटने के बाद खाली थी. 2021 के विधानसभा चुनावों के बाद बाबुल सुप्रियो बीजेपी छोड़ टीएमसी में शामिल हो गए.

वहीं बालीगंज विधानसभा सीट टीएमसी के बड़े नेता और एमएलए सुब्रत मुखर्जी के साल 2021 में निधन के बाद खाली हो गई थी.

कई एक्सपर्ट्स ऐसा मानते हैं कि बंगाल में टीएमसी अपनी ताकत और चुनावी प्रभुत्व के शिखर पर है, लेकिन इसमें कई और बातें भी जो नहीं दिख रहीं.

टीएमसी का चुनावी वर्चस्व और राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा

साल 2022 में आसनसोल लोकसभा सीट से टीएमसी के लिए शत्रुघ्न सिन्हा की जीत एक नहीं, कई कारणों से ऐतिहासिक है.

पार्टी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब टीएमसी ने आसनसोल लोकसभा सीट जीती है. पूर्व केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता रहे शत्रुघ्न सिन्हा ने बीजेपी विधायक अग्निमित्र पॉल के खिलाफ इस चुनाव में 3,03,209 वोटों के बड़े अंतर से जीत हासिल की. शत्रुघ्न सिन्हा को 6,56,358 जबकि अग्निमित्रा पॉल को 3,53,149 वोट मिले. इस चुनाव परिणाम से बंगाल में बीजेपी की लोकसभा सीटों की संख्या भी घटकर 17 हो गई है.

यहां ये भी बता दें कि साल 2014 से आसनसोल बीजेपी का गढ़ रहा है. साल 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के उम्मीदवार बाबुल सुप्रियो ने टीएमसी की मुनमुन सेन को हराकर 1.97 लाख वोटों से जीत हासिल की थी. उनका वोट शेयर 51.5% था जबकि टीएमसी का 35.19% था.

साल 2021 के विधानसभा चुनावों में टीएमसी ने 46.21% वोट शेयर के साथ अपनी टैली थोड़ी सी सुधारी. वहीं बीजेपी का वोट शेयर 41.89% रहा.

इस बार टीएमसी का वोट शेयर 56.5% रहा है जबकि बीजेपी का सिर्फ 30.4%. वहीं CPIM का वोट शेयर 7% बना हुआ है.

साल 2019 में पटना साहिब से लोकसभा चुनाव में हार के बाद आसनसोल की जीत से न सिर्फ शत्रुघ्न सिन्हा का राजनीतिक करियर पुनर्जीवित हुआ है, बल्कि इससे टीमएमसी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी बड़ा बल मिला है.

शत्रुघ्न सिन्हा की जीत बीजेपी के लिए इस ओर एक और कदम है कि वो अपनी बंगाली sub-nationalism वाली उस छवि को छोड़ दे, जो राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार की उसकी योजनाओं में बड़ी बाधा है.

सिन्हा की जीत सेरमपुर Serampore के टीएमसी सांसद कल्याण बनर्जी के राजनीतिक करियर के लिए भी मददगार साबित हुई है. हाल में टीएमसी के जनरल सेक्रेटरी पर अपने बयानों को लेकर वह मुश्किल में फंस गए थे. कल्याण बनर्जी ने आसनसोल में शत्रुघ्न सिन्हा के लिए खूब कैम्पेनिंग की और इस जीत का थोड़ा बहुत श्रेय उन्हें भी जाता है.

टीएमसी को चीजों को हल्के में नहीं लेना चाहिए

बाबुल सुप्रियो ने 50 प्रतिशत वोट अपने हिस्से में किए और लेफ्ट फ्रंट की उम्मीदवार सायरा शाह हलीम को हराया. सायरा को 30% वोट मिले थे.

साल 2021 के विधानसभा चुनावों की बात करें तो तब टीएमसी का वोट शेयर 70 प्रतिशत से घटकर 50 प्रतिशत हो गया था. वहीं सीपीआईएम का वोट शेयर 6% से 30% हो गया.

इसकी वजह एक साथ कई मिले जुले कारण हो सकते हैं. वहीं सबसे बड़ा कारण हो सकता है, उम्मीदवारों को लेकर खराब सेलेक्शन. जहां बाबुल सुप्रियो को टिकट दिया गया, जिन पर पूर्व में आसनसोल में सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के आरोप लगे थे और इसके बाद 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान दंगे हुए. इन दंगों के दौरान एक इमाम के बेटे की भी हत्या कर दी गई थी.

टीएमसी के बाबुल सुप्रियो को उम्मीदवार बनाए जाने के बाद, कई संगठनों ने इसकी आलोचना भी की जिसमें पश्चिम बंगाल इमाम एसोसिएशन भी शामिल है. यहां तक कि No Vote to Babul के नाम से एक कैम्पेन भी चलाया गया. इनमें वही कार्यकर्ता और स्वतंत्र संगठन शामिल थे, जिन्होंने No Vote to BJP campaign भी चलाया था.

हालांकि, सूत्रों ने द क्विंट को बताया कई कार्यकर्ता जो पहले विरोध प्रदर्शन का हिस्सा थे, उन्होंने धीरे धीरे करके ठीक वोटिंग से पहले अपना रवैया बदल लिया.
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ये भी कहा जा सकता है कि सुप्रियो चुनाव में इसलिए जीते क्योंकि, वोटर्स ने ममता बनर्जी के नाम पर वोट किया.

वहीं वोट शेयर के कम होने की एक वजह ये भी हो सकती है कि बाबुल सुप्रियो, सुब्रत मुखर्जी नहीं हैं.

लेकिन इस नतीजे पर पहुंचने से पहले कि मुसलमान ममता बनर्जी का साथ छोड़ रहे हैं, इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है कि चुनाव रमजान के महीने में हुए जब कई मुसलमान उपवास पर होते हैं.

इसकी वजह से बालीगंज में भी वोटर टर्नआउट सिर्फ 41% रहा जो बंगाल में उपचुनाव के स्टैंडर्ड्स से भी काफी कम है.

चुनावी आंकड़ों का विश्लेषण ये भी दिखाता है है कि सीपीआईएम ने वार्ड 64 और 65 में टीएमसी को हराकर जीत हासिल की.

इसका मतलब ये नहीं है कि टीएमसी को चीजों को हल्के में लेना चाहिए, बल्कि उसे भविष्य में अपने उम्मीदवारों के चयन को लेकर गंभीरता से आत्मविश्लेषण करना चाहिए. बालीगंज उस पार्टी के लिए एक वेक अप कॉल की तरह होना चाहिए, जो साल 2024 में केंद्र में बीजेपी को सत्ता से हटाने की योजना बना रही है.

विपक्षी स्पेस के लिए रेड अलर्ट

बंगाल के विपक्षी स्पेस में कुछ भी हैरान करने वाला नहीं है क्योंकि, मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी अभी तक आंतरिक झगड़ों और संगठनात्मक विफलताओं से उबरी नहीं है. ऐसा लग रहा है कि राज्य में भगवा पार्टी का सपोर्ट बेस अभी और घटेगा.

पार्टी ने न सिर्फ सिर्फ आसनसोल में अपना बड़ा गढ़ खोया है, बल्कि बालीगंज में भी तीसरे नंबर पर है.

पार्टी को ये नुकसान सीपीआईएम को सीधे फायदा पहुंचाएगा. बीजेपी के वोट शेयर का कम होना सीधे तौर पर सीपीआईएम के वोट शेयर के बढ़ने से जुड़ा है.

हालांकि इसे लेफ्ट का पुनरुत्थान कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि, अभी तक इतना जरूर साफ है कि विपक्ष के वोट सामान्यत: सीपीआईएम और बीजेपी के बीच झूल रहे हैं और ये इस पर निर्भर कर रहा है कि कौन सी पार्टी या किस उम्मीदवार पर भरोसा किया जा सकता है.

जैसे जैसे टीएमसी राज्य में संपूर्ण वर्चस्व की तरफ बढ़ रही है, हर जीत के साथ बंगाल में विपक्ष का स्पेस धीरे धीरे सिकुड़ रहा है. लेकिन इस पूरे परिदृश्य में असल में हारने वाला कोई है, तो वो है कांग्रेस पार्टी जो व्यवहारिक तौर पर देखें तो पिछले तीन चुनावों के दौरान पूरी तरह से साफ हो चुकी है.

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