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कहते हैं कि राजनीति में कोई किसी का स्थायी दुश्मन और स्थायी दोस्त नहीं होता है. कुछ ऐसा ही बिहार की राजनीति में नजर आया है. जहां, नीतीश कुमार की कसमें खाने वाले जीतन राम मांझी ने फिर से पाला बदल लिया है. वह नीतीश कुमार की कमान से बाहर आ गए हैं या यूं कहें कि नीतीश कुमार ने उन्हें अपने कमान से बाहर कर दिया है. क्योंकि, नीतीश कुमार ने कहा है कि मैंने उन्हें दो ऑफर दिए थे. पहला ये कि आप अपनी पार्टी का विलय कर दीजिए या हमारा साथ छोड़ दीजिए. जीतन राम मांझी ने दूसरा रास्ता अपना. यानी साथ छोड़ दिया. अब खबर है कि वो NDA के साथ जाने वाले हैं. जीतन राम मांझी ने अपने 43 साल के राजनीतिक करियर में 8 बार पाला बदला है. इसके बाद से उन्हें "आया राम गया राम" की संज्ञा दी जाने लगी है.
हरियाणा 1 नवंबर 1966 को पंजाब से अलग होकर एक नया राज्य बना था. राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 81 में से 48 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी. इस चुनाव में भारतीय जनसंघ को 12 सीटें, स्वतंत्र पार्टी को 3 और रिपब्लिकन पार्टी को 2 सीट मिली थी. 16 सीटों के साथ निर्दलीय विधायकों का धड़ा दूसरा सबसे बड़ा समूह था.
कांग्रेस की तरफ से भगवत दयाल शर्मा ने मुख्यमंत्री के रूप में 10 मार्च 1967 में शपथ ली. लेकिन, एक सप्ताह के भीतर ही कांग्रेस पार्टी के 12 विधायकों के दल बदल के कारण सरकार गिर गई. इन विधायकों ने ‘हरियाणा कांग्रेस’ के नाम से अपना एक अलग समूह बना लिया. निर्दलीय विधायकों ने भी ‘यूनाइटेड फ्रंट’ नाम से अपना एक अलग समूह बना लिया. ऐसे करके यूनाइटेड फ्रंट के तहत विधायकों की संख्या 48 तक पहुंच गई.
इसके बाद विपक्षी दलों ने मिलकर संयुक्त विधायक दल बनाया और 24 मार्च 1967 को राव बीरेंद्र सिंह ने संयुक्त विधायक दल के बैनर तले सीएम के रूप में पदभार संभाला. राव ने कांग्रेस के टिकट पर पटौदी से चुनाव जीता था. हालांकि, अनिश्चितता के उन दिनों को परिभाषित करने वाला कोई एक व्यक्ति था, तो वह विधायक गया लाल थे. 9 घंटे के भीतर, उन्होंने दो बार पाला बदला. कांग्रेस में आए, फिर कांग्रेस छोड़ी और 15 दिन के अंदर फिर संयुक्त मोर्चा में चले गए. तब चंडीगढ़ की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में गया लाल को पेश करते हुए राव बीरेंद्र ने पहली बार कहा था कि “गया राम अब आया राम” हैं.
साल 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार इसके खिलाफ विधेयक लेकर आई. 52 वें संविधान संशोधन के तहत संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई. इसमें विधायकों और सांसदों के पार्टी बदलने पर लगाम लगाई गई. इसमें ये भी बताया गया कि दल-बदल के कारण इनकी सदस्यता भी खत्म हो सकती है. हालांकि, इसके बाद भी कानून की कमजोरियों का फायदा उठाते हुए दल बदल किया गया.
फिर, साल 2003 में इस कानून में संशोधन किया गया. जब ये कानून बना तो प्रावधान ये था कि अगर किसी मूल पार्टी में बंटवारा होता है और एक तिहाई विधायक एक नया ग्रुप बनाते हैं, तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी. लेकिन, इसके बाद भी बड़े पैमाने पर दल-बदल हुए और ऐसा महसूस किया कि पार्टी में टूट के प्रावधान का फायदा उठाया जा रहा है. इसलिए ये प्रावधान खत्म कर दिया गया. इसके बाद संविधान में 91वां संशोधन जोड़ा गया. जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक दल बदल को असंवैधानिक करार दिया गया.
इसके बाद भी कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर दल बदल किया जा रहा है और चुनी हुई सरकार को अस्थिर कर नई सरकार का गठन किया जा रहा है.
पिछले 5 सालों में देश की अलग-अलग पार्टियों के साथ हुआ, जैसे- मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से अलग होकर अपने कुछ समर्थक विधायकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए थे, जिसके बाद वहां कांग्रेस की सरकार गिर गई थी.
ऐसा ही कर्नाटक में हुआ था, जब कुमार स्वामी की सरकार गिर गई थी, हाल के दिनों में महाराष्ट्र में हुआ जो एकनाथ शिंदे अपने समर्थक विधायकों के साथ उद्धव ठाकरे से अलग होकर पार्टी पर अपना कब्जा जमा लिया और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली.
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