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बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू) के मुखिया नीतीश कुमार ने केंद्र में 'सांकेतिक प्रतिनिधित्व' को ठुकारने के बाद रविवार को अपने कैबिनेट का विस्तार किया. इसमें केवल जेडीयू के नेताओं को शपथ दिलाई गई, जबकि भारतीय जनता पार्टी हाशिये पर ही रही. यह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के दो प्रमुख सहयोगियों के बीच खींचतान की ताजी निशानी है.
वैसे तो शपथ ग्रहण के तुरंत बाद कुमार ने बीजेपी के साथ रिश्तों में खटास की अटकलों से साफ इनकार किया. उन्होंने कहा:
बीजेपी भी इसे एक आम घटना के रूप में दिखा रही है. उपमुख्यमंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी के मुताबिक, पार्टी को भी मंत्री पद का ऑफर आया था, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने फैसले को टाल दिया.
हालांकि इसे घटना को आम मानने वालों की तादाद बेहद कम है. खुद जेडीयू-बीजेपी के नेता भी दबी जुबान में तल्खी की बात स्वीकारते हैं. जेडीयू सूत्रों के मुताबिक, केंद्रीय कैबिनेट में 'उचित सम्मान' नहीं मिलने से नीतीश कुमार काफी नाराज चल रहे हैं. उनके मुताबिक बीजेपी को मिले प्रचंड बहुमत में एनडीए के सभी दलों का योगदान था.
खुद नीतीश कुमार ने मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के बाद कहा, "बिहार मे एनडीए को मिली जीत बिहार की जनता की जीत है. अगर कोई इसे अपनी व्यक्तिगत जीत बता रहा है, तो वह भ्रम में है." साफ है कि नीतीश कुमार का इशारा किसकी ओर था.
नीतीश की इस नाराजगी को देखते हुए राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने फिर से उन पर डोरे डालने शुरू कर दिया है.
आरजेडी के उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने नीतीश को सोमवार को वापस महागठबंधन में आने का न्योता तक दे दिया. उन्होंने कहा:
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद राबड़ी देवी का भी रुख इस मुद्दे पर नरम पड़ा है. उन्होंने भी कहा कि अगर नीतीश आते हैं, तो उन्हें कोई ऐतराज नहीं है.
वैसे तो बीजेपी ने इस मुद्दे पर अब तक चुप्पी बनाई रखी है, लेकिन पार्टी के अंदर भी माहौल गर्म हो रहा है. पार्टी के नेताओं के मुताबिक मुख्यमंत्री ने इस चुनाव में घूम-घूमकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगा और अब इसे एनडीए की जीत बता रहे हैं.
पार्टी नेताओं की मानें तो जेडीयू से ज्यादा सीटें लाने वाली शिवसेना (18 सीटें) को भी मंत्रिमंडल में एक ही सीट दी गई है. इसीलिए पार्टी के कई नेता भी इस बार झुकने को तैयार नहीं है. उनके मुताबिक करीब 15 सालों से सत्ता मे रहने के बाद नीतीश कुमार के प्रति विरोध भी बढ़ा है. साथ ही, बीजेपी के साथ इस बार अति-पिछड़े, यादव और कुशवाहा मतदाता भी जुड़े हैं.
वहीं, जेडीयू नेताओं के मुताबिक, बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत दिलाने में नीतीश कुमार के अति-पिछड़ा और महिला वोटबैंक की बड़ी भूमिका रही, लेकिन बीजेपी इसे सिर्फ मोदी फैक्टर की जीत बना रही है. साथ ही, चुनाव से पहले सहयोगियों को बराबर का साझेदार बता रही बीजेपी अब सत्ता में उन्हें बराबर की भागीदारी देने से क्यों कतरा रही है?
ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक एनडीए के इस अनबन को विधानसभा चुनाव से पहले दबाव बनाने की राजनीति के रूप मे देख रहे हैं.
विश्लेषकों के मुताबिक, नीतीश कुमार इस मुद्दे को हथियार बनाकर खुद को इस गठबंधन मे बड़े भाई के रूप में स्थापित करना चाहते हैं. उनके मुताबिक, खुद जेडीयू में बीजेपी से अलग होने को लेकर एकमत नहीं है.
कई बड़े नेता इस मुद्दे पर विचार तक करने के खिलाफ हैं. जेडीयू के एक बड़े नेता ने कहा, "वैसे तो सारे फैसले नीतीश जी खुद करते हैं, लेकिन बीजेपी से अभी तुरंत संबंध-विच्छेद की संभावना बहुत कम है. अगर होती तो लालू-नीतीश के बीच बातचीत की खबर तो आती.''
दरअसल, आरजेडी के साथ तालमेल को लेकर नीतीश कुमार का अनुभव अच्छा नहीं रहा है. हालांकि वे विधानसभा चुनाव मे बीजेपी को भी बराबर की कुर्सी नहीं देना चाहते, क्योंकि इससे उनकी अपनी कुर्सी पर खतरा हो सकता है.
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