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उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में किसान महापंचायत (Kisan Mahapanchayat) केंद्र के कृषि कानूनों के विरोध में किसान यूनियनों ने उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों में बीजेपी को हराने के लिए प्रचार करने की घोषणा की.
महापंचायत पर प्रतिक्रिया देते हुए, बीजेपी ने इसे "चुनावी बैठक" कहा और आरोप लगाया कि ये राजनीतिक उद्देश्यों से की गई थी. किसान आंदोलन के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए बीजेपी किसानों के साथ एक अभियान भी शुरू कर सकती है.
यूपी चुनाव में किसान यूनियनों और बीजेपी के बीच खींचतान के तीन पहलू हैं.
महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने "अल्लाहु-अकबर", "हर हर महादेव" और "जो बोले सो निहाल" के नारे लगाए. ये नारे महत्वपूर्ण हैं और दिग्गज किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के युग की याद दिलाते हैं.
उनकी रैलियों में हमेशा सांप्रदायिक सद्भाव बनाने और दोनों समुदायों के किसानों के बीच कृषि हितों को स्थापित करने की कोशिश के रूप में हिंदू और मुस्लिम, दोनों नारे लगाए जाते थे.
हालांकि, महापंचायत से टिकैत की क्लिप को एडिट कर केवल "अल्लाहु-अकबर" वाले भाग दिखाया गया और राइट-विंग समर्थकों ने इसे सोशल मीडिया पर शेयर किया. इसके पीछे मकसद ये था कि किसी तरह किसान आंदोलन को मुस्लिम साजिश के रूप में पेश किया जाए.
यूपी चुनाव से पहले, दोनों पक्षों के बीच मुख्य लड़ाई इस बात को लेकर होगी कि नैरेटिव को आकार कौन देता है.
बीजेपी की चुनावी पिच इन कीवर्ड के आसपास केंद्रित होने की संभावना है: 'हिंदुत्व', 'राम मंदिर', 'लव जिहाद' और 'कानून और व्यवस्था'.
हालांकि, पार्टी 'विकास' पर भी जोर देगी, और इसका मैसेज आदित्यनाथ को एक ऐसे नेता के रूप में पेश करना है, जिसने हिंदुत्व को बढ़ावा दिया है, 'मुसलमानों को उनकी जगह दिखाई है' और कानून व्यवस्था पर 'सख्त' काम किया है.
दूसरी ओर, किसान यूनियन बीजेपी को इस चुनाव को सांप्रदायिक बनाने से रोकना चाहते हैं. वो चाहते हैं कि ध्यान किसानों के मुद्दों पर बना रहे. टिकैत और राष्ट्रीय लोक दल के लिए, कृषि राजनीति का पुनरुत्थान अपने आप में और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के खिलाफ महत्वपूर्ण है.
लेकिन जिस तरह से उनके 'अल्लाहु-अकबर' के नारे को एकदम अलग मकसद से शेयर किया गया, ये टिकैत के लिए ध्यान देने वाली बात है कि पश्चिम यूपी की राजनीति अब वो नहीं रही जो उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत के समय थी.
इसलिए, किसानों के मुद्दों के इर्द-गिर्द चुनावी नैरेटिव रखने की लड़ाई किसान यूनियनों के लिए आसान नहीं होगी.
2013 मुजफ्फरनगर हिंसा और उसके बाद हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने बीजेपी के पीछे जाट वोटों का भारी एकीकरण किया, जिससे टिकैत और आरएलडी की कृषि राजनीति को नुकसान पहुंचा.
CSDS सर्वे के मुताबिक, 2019 आम चुनावों में, बीजेपी के पीछे जाटों का एकीकरण 90फीसदी के करीब था.
यूनियनों के लिए मुख्य परीक्षा ये होगी कि वो किस हद तक जाटों को बीजेपी से दूर कर सकते हैं. आरएलडी इस क्षेत्र में बीजेपी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी होगी और उसके समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने की संभावना है.
जैसा कि मौजूदा स्थिति है, आरएलडी, बीजेपी की कीमत पर जाट किसानों के बीच कुछ वोट हासिल करती दिख रही है. ये देखना होगा कि पार्टी इस लय को बरकरार रख पाती है या नहीं.
यहां एक और मसला है. आरएलडी-एसपी गठबंधन अभी भी कुछ जाट वोटों को मजबूत करने में सक्षम हो सकता है, इस बात पर संदेह है कि क्या किसान यूनियन, गुर्जरों और त्यागी जैसे दूसरे किसान समुदायों को बीजेपी से दूर ले जा पाएंगे या नहीं.
किसान यूनियन उत्तर प्रदेश में बीजेपी को हराने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी जियोग्राफिकल सीमाओं को ध्यान में रखने की जरूरत है. मौजूदा स्थिति के मुताबिक, यूपी में किसान यूनियनों की लामबंदी काफी हद तक पश्चिम यूपी और तराई क्षेत्र में केंद्रित है, जिसमें यूपी और उत्तराखंड के आसपास के जिले शामिल हैं.
बुंदेलखंड, अवध और पूर्वी यूपी जैसे क्षेत्रों में इस तरह की लामबंदी नहीं दिखती. इसका मुख्य कारण ये है कि यहां के किसानों को उस तरह से यूनियन नहीं किया गया है, जैसा कि पश्चिमी यूपी के गन्ना किसानों को किया गया है.
इसलिए, किसान यूनियनों को आने वाले चुनावों में रणनीति बनानी होगी और अपनी एनर्जी पंजाब, पश्चिम यूपी और यूपी और उत्तराखंड के तराई जिलों जैसे अपने मूल क्षेत्रों पर केंद्रित करनी होगी.
उत्तर प्रदेश में उनकी दूसरी और शायद बड़ी चुनौती होगी कृषि और आर्थिक मुद्दों के इर्द-गिर्द नैरेटिव को रखने की कोशिश करना और सांप्रदायिक बयानबाजी को हावी होने से रोकना.
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Published: 07 Sep 2021,07:05 PM IST