advertisement
हरियाणा (Haryana) के नूंह और गुरुग्राम में हाल में हुई सांप्रदायिक हिंसा (Nuh Communal Violence) में छह लोगों की मौत हो गई, वहीं 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों को हाल ही में दस साल हुए हैं.
ये दोनों घटनाएं उत्तर भारत की राजनीति में हुए बदलावों को भी दर्शाते हैं. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों की वजह से पश्चिमी यूपी के जाटों का वोट बीजेपी की ओर शिफ्ट हुआ था. लेकिन 2023 की हरियाणा हिंसा ने जाट और बीजेपी के बीच संबंधों में खटास को उजागर कर दिया है.
जाट संगठनों और कई कृषि संघों (जिनका नेतृत्व जाट समुदाय करता है) ने, विशेषकर युवाओं से मेवात में हिंसा में शामिल न होने की अपील जारी की. जबकि हिंदुत्व संगठनों ने जाटों से 'हिंदुओं के समर्थन में आने' की अपील की थी, जिसे जाटों ने अनसुना कर दिया.
सोशल मीडिया पर जाटों और हिंदुत्व समर्थकों के बीच बहस छिड़ गई. सभी राजनीतिक दलों के जाट नेताओं- डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला से लेकर विपक्षी नेता दीपेंद्र सिंह हुड्डा और कृषि संघों के प्रतिनिधि और जाट महासभा के नेता युद्धवीर सिंह सहरावत तक - सभी ने हिंसा के खिलाफ बात की है.
तो 2013 और 2023 के बीच क्या बदलाव आया? इसके चार पहलू हैं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जाटों के प्रति बीजेपी की विरोधाभासी रणनीति का बहुत कुछ लेना-देना है.
हरियाणा में बीजेपी, कांग्रेस और INLD जैसे अपने प्रतिद्वंद्वियों को जाट प्रभुत्व वाली पार्टियों के रूप में पेश करती है. इन विरोधाभासों को अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर सुलझाया जा सकता है - उदाहरण के लिए 2019 के लोकसभा चुनावों में पीएम मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के लिए जाटों का बड़ा समर्थन था, जो पुलवामा हमलों और बालाकोट स्ट्राइक की वजह से था.
हालांकि, कुछ महीनों बाद हुए विधानसभा चुनावों में, बड़े पैमाने पर जाट बीजेपी से दूर हो गए. लेकिन जाट वोट कांग्रेस, जननायक जनता पार्टी और कुछ हद तक INLD के बीच बंट गए. फिर जेजेपी ने चुनाव बाद बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया.
पश्चिम यूपी और हरियाणा दोनों जगह जाटों को लेकर अलग अलग बातें हैं जिसे समझने की जरूरत है.
पश्चिम यूपी के उलट, हरियाणा में मुसलमानों के खिलाफ जाटों को लामबंद करना मुश्किल है क्योंकि हरियाणा में मुस्लिम आबादी ज्यादा नहीं हैं.
हरियाणा में सोनीपत, रोहतक, हिसार, जिंद और सिरसा जैसे जाट बहुल जिलों में मुसलमानों का अनुपात बहुत कम है और इसलिए वे जाट समुदाय के लिए राजनीतिक खतरा नहीं हैं. वहीं यूपी के मुजफ्फरनगर और शामली जैसे जिलों में स्थिति अलग है, यहां जाट और मुस्लिम बड़ी संख्या में हैं.
उदाहरण के लिए, मोनू मानेसर एक यादव हैं और वे उस यादव नेतृत्व को के लिए एक चुनौती है जो पहले से राज्य में स्थापित है जिनके मुसलमानों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध हैं. मोनू ने कभी राज्य स्तर पर जाटों के वर्चस्व को चुनौती नहीं दी.
बीजेपी के खिलाफ जाटों के असंतोष की जड़ में तीन बड़े विरोध प्रदर्शन हैं:
2016 का जाट आरक्षण विरोध
2020-21 में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का विरोध
2023 पहलवानों का विरोध
तीनों विरोध प्रदर्शनों के केंद्र में जाट थे और ये किसी न किसी तरह से बीजेपी के खिलाफ थे.
जाट समुदाय के दृष्टिकोण से, आरक्षण आंदोलन जाट युवाओं के भविष्य और समुदाय को उसका हक दिलाने के बारे में था. किसानों के विरोध प्रदर्शन में समुदाय की आजीविका दांव पर थी. और पहलवानों के विरोध का मुख्य विषय समुदाय की महिलाओं का सम्मान था.
हालांकि, इन तीन आंदोलनों ने एक बार फिर पलड़ा जाति-आधारित और कृषि राजनीति के पक्ष में झुका दिया है.
अब जाट समुदाय के केंद्र में हुए तीन बड़े विरोध प्रदर्शन वो बीजेपी के खिलाफ तो इससे समझ आता है कि अब जाटों का बीजेपी के पास वापस आना मुश्किल होगा. वो भी बीजेपी की विरोधाभासी नीति और प्रतिनिधित्व की कथित कमी के कारण यह मामला और गंभीर हो गया है.
प्रतिनिधित्व की कमी जाटों की नाराजगी का एक और कारण है. यही जाटों का बीजेपी के साथ मेल-मिलाप को रोक रहा है.
केंद्रीय मंत्रिमंडल में फिलहाल कोई जाट नहीं है. दो राज्य मंत्री हैं - कैलाश चौधरी और संजीव बालियान, लेकिन कोई भी हरियाणा से नहीं है.
हाल ही में, बीजेपी ने राजस्थान विधानसभा चुनावों के लिए अपनी समितियों की घोषणा की लेकिन उसमें जाटों का प्रतिनिधित्व कम था. बीजेपी विरोधी खेमे में जाट अधिक प्रभावशाली हो गए हैं.
कांग्रेस में, हुडा को इस बात का हरियाणा में फायदा है. यहां तक कि हुडा विरोधी खेमे में भी रणदीप सुरजेवाला और किरण चौधरी जैसे जाट नेता हैं. राष्ट्रीय स्तर पर भी, सुरजेवाला का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है. कर्नाटक चुनाव के प्रभारी के रूप में उन्हें बड़ी सफलता मिली है. वह निर्विवाद रूप से कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेताओं में से एक हैं.
फिर ऐसे लोग हैं जो चुनावी राजनीति से बाहर हैं, लेकिन समुदाय की चिंताओं को व्यक्त करने में तेजी से प्रभावशाली हो गए हैं.
जाट समुदाय के लिए संकेत स्पष्ट है - कि गैर-बीजेपी खेमे से उनके लिए आवाज उठाने वाले अधिक हैं.
बीजेपी ने अपनी ओर से जाट समर्थन में कुछ कमी को ध्यान में रखना शुरू कर दिया है और सैनी और बिश्नोई जैसे छोटे जाति समूहों को लुभाने की कोशिश कर रही है.
अब, इसका ये मतलब नहीं है कि दोनों पक्षों के बीच इतनी दूरियां हो गई है कि वापसी की संभावना ही खत्म हो गई हो. साथ ही जाटों के बीच से हिंदुत्व या राष्ट्रवाद की भावना भी कम हो गई है, ऐसी भी नहीं कहा जा सकता. लेकिन फिलहाल ऐसा प्रतीत होता है कि जाति-आधारित शिकायत और कृषि संबंधी प्रश्नों जाट समुदाय में बने हैं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined