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देवगौड़ा NDA के साथ: सालों पहले JDS-JDU जिस मुद्दे पर बंटे थे,उसी पर क्यों पलटे?

24 साल पहले जनता दल एनडीए में शामिल होने को लेकर टूट गया था. अब उसी मुद्दे पर दोनों गुटों ने पाला बदल लिया है.

आदित्य मेनन
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>देवगौड़ा NDA के साथ: सालों पहले JD-S, JD-U जिस मुद्दे पर बंटे थे, उसी पर क्यों पलटे?</p></div>
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देवगौड़ा NDA के साथ: सालों पहले JD-S, JD-U जिस मुद्दे पर बंटे थे, उसी पर क्यों पलटे?

क्विंट हिंदी

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एचडी देवगौड़ा (HD Deve Gowda) के नेतृत्व वाली जनता दल (सेक्युलर) शुक्रवार, 22 सितंबर को भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) में शामिल हो गई.

ये उसके ठीक एक दिन बाद हुआ जब बीजेपी सांसद रमेश बिधूड़ी ने देवगौड़ा के सबसे करीबी और भरोसेमंद लोगों में से एक, BSP सांसद कुंवर दानिश अली को सांप्रदायिक और अपमानजनक गालियां दीं.

हालांकि, एनडीए में जेडीएस की एंट्री मुख्य रूप से कर्नाटक के राजनीतिक घटनाक्रम से जुड़ी हो सकती है, लेकिन ये ऐतिहासिक कारणों से भी महत्वपूर्ण है.

ये महत्वपूर्ण क्यों है? फ्लैशबैक देखें

एक समय भारतीय राजनीति में जनता दल नाम की एक महत्वपूर्ण पार्टी थी, जिसके नाम के न तो आगे कुछ लिखा जाता था और न ही ब्रैकेट में. इसने भारत को तीन प्रधानमंत्री दिए- वीपी सिंह, एचडी देवेगौड़ा, और इंद्र कुमार गुजराल. इसके अलावा कई मुख्यमंत्री भी.

1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में कुछ समय के लिए ये पार्टी कांग्रेस के लिए मुख्य चुनौती थी. ये एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पार्टी बनी रही थी, लेकिन बाद में छोटे क्षेत्रीय संगठनों में विभाजित होने लगी.

1999 में जनता दल का मुख्य नेतृत्व एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर दो गुटों में बंट गया और इसी के साथ इसका अस्तित्व भी खत्म हो गया. ये मुद्दा था कि बीजेपी के नेतृत्व वाले NDA में शामिल हुआ जाए या नहीं, जो उस समय केंद्र में सत्ता में थी.

एक तरफ पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाला गुट था, जो एनडीए में शामिल होने का विरोध कर रहा था, और दूसरी तरफ शरद यादव के नेतृत्व वाला गुट था, जो इसके पक्ष में था.

दोनों गुटों ने जनता दल के नाम और चुनाव चिह्न पर दावा किया और लड़ाई चुनाव आयोग तक पहुंच गई. कोई भी पार्टी निर्णायक रूप से अपने दावे को साबित नहीं कर पाई. इसके बाद चुनाव आयोग ने जनता दल का नाम और चिन्ह जब्त कर लिया और पार्टी खत्म हो गई.

इसके परिणाम स्वरूप दो नई पार्टियां बनीं. एक तरफ एचडी देवेगौड़ा की जनता दल (सेक्युलर), जिसने राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी का विरोध किया और हालांकि पार्टी किसी भी गठबंधन में शामिल नहीं हुई. दूसरी ओर शरद यादव के नेतृत्व वाली जनता दल (यूनाइटेड) एनडीए में शामिल हो गई. शरद यादव बाद में एनडीए के संयोजक भी बने.

जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार की समता पार्टी, रामकृष्ण हेगड़े की लोक शक्ति और कर्नाटक में जनता दल के भीतर जेएच पटेल के गुट के शामिल होने के बाद JD-U और मजबूत हो गई. 2005 में बिहार में बीजेपी के साथ गठबंधन में जेडी-यू के सत्ता में आने के बाद, पार्टी धीरे-धीरे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गई.

दूसरी ओर, देवेगौड़ा की जेडी-एस ने 2006 में कर्नाटक में चुनाव के बाद बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार बनाई, लेकिन दोनों पार्टियों ने कभी भी चुनाव से पहले गठबंधन नहीं किया. अब JDS और JDU ने उसी मुद्दे पर पाला बदल लिया है, जिस पर वे अलग हुए थे- बीजेपी के साथ गठबंधन को लेकर.

JDS और JDU ने क्यों बदला पाला?

दोनों पार्टियों का ये यू-टर्न, जेडी-यू का बीजेपी के सहयोगी से अब प्रतियोगी बनना और जेडी-एस का इसके उलट होना- काफी हद तक नीतीश कुमार और देवेगौड़ा परिवार की राजनीति से जुड़ा हुआ है.

एक तरह से दोनों नेताओं को एक जैसी दुविधा का सामना करना पड़ा. दोनों राष्ट्रीय दृष्टिकोण और महत्व वाले, लेकिन क्षेत्रीय आधार वाले नेता रहे हैं. राष्ट्रीय राजनीति में जीवित रहने की इच्छा दोनों नेताओं के फैसलों में झलकती है. ये राष्ट्रीय राजनीति 1999 के बाद से बीजेपी और कांग्रेस के ईर्द-गिर्द घूम रही है.

नीतीश कुमार ने पिछले एक दशक में कई यू-टर्न लिए, इसके बावजूद वे सत्ता बरकरार रखने में कामयाब हैं.

अब JD-S की बात करते हैं

कुछ मायनों में, बीजेपी जेडी-एस के लिए एक स्वाभाविक सहयोगी है, लेकिन अन्य मायनों में ऐसा नहीं है.

ये एक स्वाभाविक सहयोगी इसलिए है क्योंकि जेडी-एस के मुख्य क्षेत्र कर्नाटक के पुराने मैसूर इलाके में इसका मुख्य मुकाबला कांग्रेस से है और यहां बीजेपी कमजोर है.

साथ आकर दोनों पार्टियां अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में कांग्रेस विरोधी वोटों को आसानी से साध सकती हैं.

सीट-बंटवारे की व्यवस्था से बीजेपी को फायदा हो सकता है. पार्टी कर्नाटक की 28 सीटों में से जेडी-एस के लिए पांच सीटें छोड़ेगी, लेकिन दूसरे पहलू में वे स्वाभाविक सहयोगी नहीं हैं. मुसलमान ऐतिहासिक रूप से जेडी-एस के लिए एक मजबूत आधार रहे हैं. ये जेडी-एस ही है जिसने कर्नाटक में मुसलमानों को आरक्षण का एक छोटा सा हिस्सा दिया था. इसी कोटे को बीजेपी ने अपनी पिछली सरकार में खत्म कर दिया.

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हालांकि, कर्नाटक में 2023 के विधानसभा चुनावों में ये पैटर्न बदल गया. इस डर से कि जेडी-एस या इसके विधायक बीजेपी की ओर जा सकते हैं, ऐसे में मुस्लिम मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने कांग्रेस को वोट दिया.

इससे उन सीटों पर कांग्रेस को निर्णायक जीत मिली, जहां मुस्लिम बड़ी संख्या में हैं. मुसलमानों के वोट कांग्रेस की तरफ जाने से जेडी-एस काफी कमजोर हो गई, लेकिन इससे जेडी-एस और बीजेपी के करीब आने की संभावना भी खुल गई.

हैरानी की बात नहीं है कि जेडी-एस के बीजेपी से हाथ मिलाने के फैसले के चलते सैयद शफीउल्लाह और एनएम नबी जैसे कई मुस्लिम नेताओं ने पार्टी छोड़ दी.

यहां एक और महत्वपूर्ण कारण है. एचडी देवेगौड़ा और एचडी कुमारस्वामी दोनों कर्नाटक के सीएम सिद्धारमैया को राज्य की राजनीति में अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते हैं. एक हद तक, सिद्धारमैया के प्रति नाराजगी बीजेपी और जेडी-एस को एकजुट करने वाला एक और कारण है.

हालांकि, डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार के देवगौड़ा और कुमारस्वामी के साथ बेहतर समीकरण हैं, लेकिन एक ही वोक्कालिगा जाति से होने के कारण वे भी प्रतियोगी हैं . जेडी-एस को डर है कि एचडी देवेगौड़ा के बाद वोक्कालिगा आधार शिवकुमार की ओर जा सकता है.

बीजेपी को ये डर भी है कि अगर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे INDIA ब्लॉक के पीएम उम्मीदवार बन जाते हैं, तो इससे कर्नाटक में पार्टी को मजबूती मिल सकती है. बीजेपी जेडी-एस को साथ लाकर इसे रोकने की कोशिश कर रही है.

कई मायनों में, खड़गे-सिद्धारमैया-शिवकुमार की तिकड़ी का डर दोनों पार्टियों को एक साथ लाया है.

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