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बेंगलुरु के श्री कांतीरवा स्टेडियम में एक भव्य समारोह में कर्नाटक के नई सरकार की ताजपोशी हुई. सिद्धारमैया ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो वहीं, डीके शिवकुमार पहली बार राज्य के डिप्टी सीएम बने. इस ऐतिहासिक कार्यक्रम के दौरान स्टेडियम पूरी तरह से खचाखच भरा नजर आया.
कर्नाटक में मिली ऐतिहासिक जीत से उत्साहित कांग्रेस ने शपथ ग्रहण समारोह के जरिए शक्ति प्रदर्शन भी किया. कांग्रेस के ट्विटर हैंडल से राहुल की एक फोटो भी ट्वीट की गई, जिसमें शपथ ग्रहण के दौरान जुटी भीड़ दिख रही है.
कांग्रेस ने विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को कार्यक्रम में शामिल होने के लिए बुलावा भेजा था. इसमें से कुछ आये, कुछ ने प्रतिनिधि भेजा और कुछ नहीं आये. हालांकि, कुछ ऐसे भी नेता थे, जिन्हें बुलावा नहीं भेजा गया था.
बिहार के सीएम नीतीश कुमार और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव
झारखंड की सीएम हेमंत सोरेन
तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन
एनसीपी नेता शरद पवार
एनसी नेता फारूक अब्दुल्ला
PDP नेता महबूबा मुफ्ती
CPI (M) महासचिव सीताराम येचुरी
MNM प्रमुख कमल हासन
ममता बनर्जी ने अपना प्रतिनिधि भेजा
उद्धव ठाकरे ने प्रियंका चतुर्वेदी को भेजा
अखिलेश यादव नहीं आये
किन्हें बुलावा नहीं भेजा गया था? तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव को इस कार्यक्रम में बुलाया गया था या नहीं, इसपर मुख्यमंत्री के कार्यालय ने द क्विंट को बताया कि उनके पास कोई निमंत्रण नहीं पहुंचा था.
कांग्रेस ने कर्नाटक से क्या संदेश दिया?
कांग्रेस ने कुछ दलों से क्यों बनाई दूरी?
कर्नाटक में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करने वाली कांग्रेस ने बेंगलुरु में अपना शक्ति प्रदर्शन दिखाया और ये संदेश देने की कोशिश की कि वह, बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व करेगी. 2024 में बीजेपी का मुकाबला करना है तो पार्टियां उनके साथ आएं.
वरिष्ठ पत्रकार संजय दुबे ने क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहा, "पिछले कुछ समय से कई दल कांग्रेस को तवज्जो देने की बजाय नसीहत देते दिख रहे थे. ऐसे में अब तक कांग्रेस बैकफुट की मुद्रा में थी."
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार आलोक त्रिपाठी ने क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहा, "कर्नाटक दक्षिण का बड़ा दुर्ग था. कांग्रेस ने कर्नाटक फतह करके विपक्ष को साफ संदेश दिया कि बीजेपी के खिलाफ मुकाबले का नेतृत्व वही करेगी."
राजनीतिक जानकारों की मानें तो, कर्नाटक की जीत से कांग्रेस को 2024 चुनाव के मद्देनजर राहुल गांधी का चेहरा आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी. क्योंकि यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और गुजरात चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन ने कई सवाल खड़े कर दिये थे.
पार्टी में बिखराव के साथ गुटबाजी उभर कर सामने आ रही थी. ऊपर से पायलट और गहलोत का विवाद कांग्रेस की किरकिरी करा रहा था. लेकिन जिस तरीके से कांग्रेस कर्नाटक में जीती और फिर सिद्धारमैया और शिवकुमार में सब कुछ ठीक किया, उसने पार्टी के आत्मविश्वास को बढ़ाया है.
अब मेन सवाल पर आते हैं. जो पार्टियां शपथ ग्रहण समारोह में नहीं दिखीं, उनका आगे का रास्ता क्या होगा? क्या वह विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस से साथ आएंगी?
इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ शर्मा ने क्विंट हिंदी से कहा, "AAP और BRS दोनों कांग्रेस को चोट पहुंचाकर राजनीति में उभरे हैं. BRS तेलंगाना की सत्ता में कांग्रेस की खिलाफत करके आई है. जबकि, दिल्ली-पंजाब में AAP कांग्रेस को हटाकर सत्ता में हैं."
अब सवाल है कि अगर ऐसा है तो फिर बीते दिनों AAP को लेकर कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से थोड़ी नरमी क्यों बरती गई? इस पर सिद्धार्थ शर्मा ने कहा, "ये सच है कि पिछले दिनों कुछ नरमी दिखाई गई थी, 2019 में भी दिल्ली में समझौता होने की कोशिश की गई थी. लेकिन सीटों पर मामला फंस गया था. पर अब स्थिति अलग है."
उन्होंने कहा कि राहुल गांधी पहले ही कह चुके हैं कि राज्यों पर फैसला, वहां कि लीडरशिप की राय पर ही होगा. इसलिए दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस ने AAP सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. बंगाल में TMC को लेकर भी यही स्थिति है. वहां की इकाई TMC से समझौता करने के मूड में नहीं है.
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार ललित राय ने कहा, "AAP को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलने के बाद सबसे बड़ी चुनौती पार्टी के सामने इसको बरकरार रखने की है. ऐसे में उसे कई जगहों पर चुनाव लड़ना पड़ेगा, नहीं तो उसका दर्जा छिन जायेगा."
राय ने कहा कि AAP राष्ट्रीय पार्टी बनने के बाद, हर जगह अपनी छाप छोड़ना चाहती है. उन्होंने कहा कि पंजाब में लोकसभा की 13 (8 कांग्रेस के पास), दिल्ली में सात (एक सीट 10 विधानसभा को कवर करती है) और हरियाणा में 10 सीट ( एक सीट 9 विधानसभा को कवर करती है) है. ऐसे में AAP-कांग्रेस दोनों के लिए मजबूरी है."
दिल्ली में AAP के एक विधायक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "कांग्रेस खुद कंफ्यूज है. वो क्षेत्रीय पार्टियों के उभार से घबराई हुई है और उसका खुद का कोई आधार नहीं है."
वरिष्ठ पत्रकार कुमार पंकज ने कहा, "BSP एकला चलो की रणनीति अपनाये हुए है. मायावती कांग्रेस पर हमेशा हमलावर रही हैं. YSR कांग्रेस और BJD केंद्र की बीजेपी सरकार के खिलाफ खुलकर कुछ नहीं बोलते हैं."
राजनीतिक विशलेषक संजय कुमार ने कहा कि नीतीश कुमार ने नवीन पटनायक को मनाने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.
जानकारों की मानें तो, नवीन पटनायक और जगन मोहन दोनों ने कभी बीजेपी के खिलाफ कुछ मोर्चा बनाने के लिए पहल नहीं किया है. वो राज्य स्तर पर बीजेपी के खिलाफ चुनाव जरूर लड़ते हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर अपनी स्थिति साफ नहीं करते हैं. ऐसे असमंजस की स्थिति ने कांग्रेस को कंफ्यूज कर रखा है.
दरअसल, कांग्रेस ने कार्यक्रम में शामिल होने के लिए ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और उद्धव ठाकरे को आमंत्रित किया था. लेकिन ममता बनर्जी खुद शामिल नहीं हुई और अपनी जगह पर लोकसभा में AITMC की उपनेता डॉ. काकोली दस्तीदार को प्रतिनिधि के तौर पर भेजा था, जबकि उद्धव ठाकरे ने प्रियंका चतुर्वेदी को भेजा.
हालांकि, इसमें अखिलेश यादव क्यों शामिल नहीं हुए और अपने किसी प्रतिनिधि को भी क्यों नहीं भेजा, इसकी कोई आधिकारिक सूचना नहीं आयी. लेकिन समाजवादी पार्टी के एक नेता ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहा, "कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को लेकर अपनी स्थिति साफ नहीं कर रही है. हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पहले ही कहा था कि उन्हें (कांग्रेस) क्षेत्रीय दलों को राज्यों में तवज्जो देनी चाहिए, पर कांग्रेस ऐसा करती नहीं दिख रही है."
सूत्रों की मानें तो, समाजवादी पार्टी, टीएमसी, बीआरएस और आम आदमी पार्टी मिलकर कोई रणनीति बनाने में जुटी है. हालांकि, ममता ने कर्नाटक चुनाव में जीत के बाद कांग्रेस की तरफ थोड़ी नरमी दिखाते हुए कहा था कि "TMC कांग्रेस को समर्थन देने के लिए तैयार है लेकिन वो ये तय करें कि बंगाल में हमारे खिलाफ चुनाव नहीं लड़ेगी."
उद्धव गुट के नेताओं की मानें तो, हिंदुत्व के मुद्दे पर कांग्रेस की राय शिवसेना के लिए मुश्किलें बढ़ा रही है. नये संसद भवन का उद्घाटन दामोदर सावरकर की जयंती के मौके पर होने को लेकर भी कांग्रेस ने नाराजगी जाहिर की थी, जिस पर सियासत भी खूब हो रही है. ये सभी मुद्दे शिवसेना (UBT) और कांग्रेस के बीच दूरी बढ़ा रहे हैं. हालांकि, एक पार्टी का एक वर्ग ऐसा भी है जिसको लगता है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस की वजह से शिवसेना (UBT) की स्थिति कमजोर हुई है.
हालांकि, कांग्रेस के लिए पूरे शपथ ग्रहण समारोह में सबसे अच्छी और अहम बात ये रही कि जो नेता (कांग्रेस के अलावा) शामिल हुए, उनके हाव-भाव से प्रतीत हो रहा था कि विपक्ष कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट होने के लिए अपनी सहमति जता रहा है.
फिर चाहे इसमें शरद पवार हों, स्टालिन हों या फिर फारूख अब्दुल्ला हों, सभी आत्मीय तरीके से मिलते दिखे.
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