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हाल ही में संपन्न हुए कर्नाटक विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) पर कांग्रेस की शानदार प्रचंड जीत से कई उल्लेखनीय और दिलचस्प सबक सीखे जा सकते हैं:
सबसे पुरानी पार्टी की चुनावी रणनीति
सबसे पुरानी पार्टी की आगामी राज्य विधानसभा चुनावों के लिए योजनाएं / चुनावी संभावनाएं
2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को पटखनी देने के लिए राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक विपक्ष (कांग्रेस की भूमिका की आवश्यकता) को डिजाइन करने के लिए व्यापक वैचारिक गठबंधन की आवश्यकता है
आने वाले हफ्तों में, जैसे-जैसे सीट-दर-सीट वोट शेयर डेटा उपलब्ध होता जाएगा और अधिक योग्य, सूक्ष्म राजनीतिक विश्लेषकों-वैज्ञानिकों द्वारा इसकी जांच की जाएगी, वैसे-वैसे उपरोक्त विषयों पर बहुत कुछ लिखा जाने वाला है, खासतौर पर कर्नाटक में कांग्रेस की शानदार प्रचंड जीत में किसका क्या योगदान रहा और किस वजह से बीजेपी की हार हुई?
एक तो यह है कि "हिंदुत्व के लिए घटते चुनावी रिटर्न," जैसा कि रोशन किशोर ने यहां वर्णन किया है, अब यह स्पष्ट तौर अनुभवजन्य गूंज है, और यह सिर्फ कर्नाटक तक सीमित नहीं है बल्कि यह भारत के दक्षिणी राज्यों में मतदाताओं द्वारा साझा की गई भावना का संकेत हो सकता है, जहां बीजेपी के पास वर्तमान में कोई मजबूत चुनावी आधार नहीं है. इन राज्यों में तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक शामिल हैं (जिनमें से सभी हमारे सूचकांक: AEI रैंकिंग पर उच्च स्थान रखते हैं), जहां ध्रुवीकरण और सांप्रदायिक आधार पर वोटर्स को विभाजित करने के लिए राज्य में चलाया गया कोई भी चुनावी कैंपेन या हथकंड़ा बीजेपी के लिए कारगर नहीं रहा है.
निश्चित तौर पर, अन्य सामाजिक-आर्थिक फैक्टर भी रहे हैं, जो मतदाताओं के बीच मौजूद अधिक कमजोर, गरीब वर्गों को बीजेपी के खिलाफ मतदान करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं.
पिछले विश्लेषण में, इस लेखक ने तर्क दिया था कि कर्नाटक (एक बड़े शहरी निर्वाचन क्षेत्र वाले राज्य) में बड़े पैमाने पर अधिकांश शहरी मतदाता पहचान-आधारित (आईडेंटिटी बेस्ड) मुद्दों के परे जाकर महत्वपूर्ण स्थानीय सामाजिक-विकासात्मक मुद्दों पर वोट करना पसंद कर सकते हैं. इसके अलावा भ्रष्टाचार के विरोध को देखते हुए वोट खिंचने की बात कही गई थी और जो 'एक्सेस इक्वैलिटी' बढ़ाने के लिए मतदान करते हैं (विशेष रूप से हाशिए पर, सामाजिक रूप से गरीब / कम आय वाले समूहों के बीच) उनका भी जिक्र करते हुए लिखा था कि कैसे ये तीनों (शहरी वोटर्स, भ्रष्टाचार के खिलाफ वोट करने वाले वोटर्स और एक्सेस इक्वैलिटी वाले वोटर्स) अंततः विपक्ष के पक्ष में अंतिम चुनावी परिणाम निर्धारित कर सकते हैं.
मेरे लिए, कर्नाटक में कांग्रेस की जीत, एक महत्वपूर्ण मौका है कि पार्टी अपने आगे के रास्ते के लिए गंभीरता से समीक्षा करने का अवसर प्रदान कर रही है न कि जैसा कि पार्टी इसे भारत जोड़ो यात्रा और राहुल गांधी की अपनी चुनावी अपील (यात्रा के बाद) की शानदार जीत के रूप में देख रही है.
इंडियन नेशनल कांग्रेस (INC), और विशेष तौर पर गांधी परिवार, बहुत अच्छी तरह से आने वाले महीनों में भी वही करना जारी रख सकते हैं जो उन्होंने अब तक किया है, और इसका आंकलन करें कि हिमाचल प्रदेश में, कर्नाटक में (और एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के मामले में पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान) उनकी पार्टी की चुनावी अपील के लिए कौन से फैक्टर ने क्या काम किया है. जितना संभव हो सके गांधी परिवार उतना ही राज्य से दूर रहें और विधानसभा चुनाव को अपने दम पर संभालने के लिए जमीनी स्तर पर स्थानीय नेतृत्व तथा कैडर पर भरोसा करें और उन्हें सशक्त बनाएं.
राज्य के स्तर पर एक विकेन्द्रीकृत राजनीतिक मशीनरी पर भरोसा करने और इसे बढ़ावा देने के गांधी परिवार के जाने या अनजाने प्रयास (जो भी हो) ने एक अधिक "केंद्रीकृत" और सत्ता के भूखे मोदी-शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी को रोकने में तर्कसंगत रूप से काम किया है.
न केवल कांग्रेस के साथ, बल्कि अन्य राज्यों में भी जहां क्षेत्रीय दलों (पश्चिम बंगाल में टीएमसी और केरल में एलडीएफ से लेकर पंजाब में आम आदमी पार्टी तक) ने बीजेपी को पीछे छोड़ दिया है, वहां इन पार्टियों के लिए स्थानीय रूप से स्वीकृत नेतृत्व के साथ विकेन्द्रीकृत राजनीतिक नियोजन तंत्र द्वारा स्थानीय आबादी के लिए 'सामाजिक-कल्याण' (सोशियो वेलफेयर) लक्ष्यों के इर्द-गिर्द घूमने वाले निर्धारित किए गए चुनावी एजेंडे ने बीजेपी के खिलाफ अच्छा प्रदर्शन किया है.
कांग्रेस की नजर से, यह परिणाम काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि तीन महत्वपूर्ण राज्यों (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में) राज्य स्तरीय चुनाव आने वाले हैं. इनमें से दो राज्यों (राजस्थान और छत्तीसगढ़) में वर्तमान में कांग्रेस सरकार है और मध्यप्रदेश में बीजेपी ने निर्वाचित विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल करने और कमलनाथ (कांग्रेस) के नेतृत्व वाली सरकार को गिराने का काम बखूबी किया.
अपनी हालिया चुनावी सफलताओं से संकेत लेते हुए, सबसे पुरानी पार्टी (कांग्रेस) बीजेपी के खिलाफ एक ठोस अभियान सुनिश्चित करते हुए स्थानीय राज्य नेतृत्व को सशक्त बनाने और उनकी देख-रेख में राज्य का चुनाव सौंपने के लिए अच्छा करेगी. उम्मीदवारों को 'इंप्लांट' करने या 'टॉप-डाउन' नेताओं या राजनीतिक प्रबंधकों को प्रभारी बनाने का कोई भी दांव (जैसा कि गांधी परिवार द्वारा पहले (पंजाब और अन्य राज्यों में) किया गया था) उलटा पड़ सकता है, जैसा कि अब यही दांव बीजेपी पर भारी पड़ रहा है. चाहे सत्ताधारी पार्टी के तौर पर आपके पास कितनी भी शक्ति, या पैसा क्यों न हो, राज्य स्तर या नगरपालिका चुनावों के प्रबंधन को "केंद्रीकृत" करने की रणनीति काम नहीं करती है.
2024 के लोकसभा चुनावों के लिए हमारे पास अभी भी लगभग एक साल का समय है, और हमारे अपने जोखिम पर, एक बड़ा सवाल यह करना चाहिए कि चाहे कर्नाटक के राज्य-चुनाव परिणाम हों या कोई हालिया विपक्षी-चुनावी जीत क्या वह विपक्ष को बीजेपी से मुकाबला करने के लिए कोई महत्वपूर्ण संदेश प्रदान करते हैं.
ध्यान देने योग्य एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले कुछ चुनावी चक्रों में हमने जो देखा है, उसके आधार पर, कर्नाटक के चुनाव परिणामों का अन्य आगामी राज्य-विधानसभा चुनावों (तेलंगाना से राजस्थान तक) पर मामूली या कोई भी वास्तविक प्रभाव नहीं पड़ सकता है.
चूंकि प्रत्येक चुनाव के लिए सीट-वार वोट शेयर पैटर्न (एक पार्टी बनाम दूसरे के लिए) की वोटर-प्रिफरेंस-बेस्ड स्टडी काफी ज्यादा जटिल है, यह कॉन्टेक्स्ट-डिपेंडेंट फैक्टर्स द्वारा संचालित की जाती है. ऐसे में यह कहना कि एक चुनावी जीत राष्ट्रीय स्तर के चुनावों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव ला सकती है, बहुत दूर की कौड़ी लग सकती है.
वैचारिक तौर पर, बीजेपी के बहुसंख्यक-सांप्रदायिक रूप से विभाजनकारी अभियान के लिए विपक्षी दल (जो निस्संदेह INC के नेतृत्व में हैं) को एक काउंटर-इंट्यूटिव चुनावी एजेंडे की जरूरत होगी. विपक्ष को 2024 के अपने कैंपेन को एक अधिक सामाजिक रूप से एकजुट, विकासात्मक एजेंडे के आसपास डिजाइन करना होगा, जो सबसे कमजोर (सामाजिक रूप से हाशिए पर और आर्थिक रूप से गरीब) लोगों की जरूरतों-चिंताओं को सामने और केंद्र में रखता हो.
प्रधान मंत्री मोदी ने पहले जिसे "रेवड़ी राजनीति" कह कर नकार दिया था, वह और कुछ नहीं बल्कि भारत के गहन स्तरीकृत चुनावी अभियान प्रक्षेपवक्र की आधारशिला है. जहां किसी भी संवेदशील, बड़े अभियान (एक राज्य से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक) को जरूरत होती है कि वह अपने मतदाताओं के सामने आने वाले मुद्दों की पहचान करे और साथ ही एक वैकल्पिक राजनीतिक अर्थव्यवस्था उदाहरण पेश करते हैं जो विभिन्न समूहों (विशेष रूप से, हाशिए पर रहने वालों) के लिए उत्पादक नौकरियों, बढ़ी हुई सामाजिक सुरक्षा, ह्यूमन कैपिटल डेवलवमेंटल इंवेस्टमेंट्स (स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा), और स्थानीय हस्तक्षेपों के लिए सार्वजनिक समर्थन के माध्यम से 'आकांक्षी' गतिशीलता के लिए महत्वपूर्ण है.
(लेखक ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @Deepanshu_1810 है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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