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KGF: भारत का इंग्लैंड, जहां की मिट्टी में हाथ डालो तो सोना निकलता था। SIYASAT

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बीच जानिए कोलार गोल्ड फील्ड (KGF) की कहानी.

उपेंद्र कुमार
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>कोलार गोल्ड फिल्ड (KGF), कर्नाटक</p></div>
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कोलार गोल्ड फिल्ड (KGF), कर्नाटक

(फोटोः उपेंद्र कुमार/क्विंट हिंदी)

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KGF यानी कोलार गोल्ड फिल्ड. कहा जाता है कि लोग यहां हाथों से खोदकर सोना निकाल लेते थे. यही कहानी भारत आए ब्रिटिश सरकार के लेफ्टिनेंट जॉन वॉरेन ने भी सुनी थी. वो बड़ा उत्सुक था कि लोग कैसे हाथों से खोदकर सोना निकाल लेते हैं. उसने गांवों का दौरा किया और गांव वालों से कहा कि जो इस खदान से सोना निकालकर दिखाएगा, उसे इनाम दिया जाएगा. इनाम पाने की लालच में ग्रामीण लेफ्टिनेंट वॉरेन के सामने मिट्टी से भरी एक बैलगाड़ी लेकर आए. जब गांव वालों ने वॉरेन के सामने मिट्टी को पानी से धोना शुरू किया तो वाकई में उसमें से सोना निकला. इसके बाद से तो KGF ब्रिटिश साम्राज्य की सत्ता का धुरी बन गया.

यहां इतना विकास हुआ कि इसे मिनी इंग्लैंड कहा जाने लगा. कभी ब्रिटिश साम्राज्य की सत्ता का धुरी रहा कोलार गोल्ड फिल्ड आज खंडहर में तब्दील हो गया है. कभी सोना उगलने वाला KGF आज अतीत की कहानी बनकर रह गया है.

सियासत में आज बात उसी KGF की जहां कभी 30 हजार से ज्यादा मजदूर काम करते थे, यहां से भारत का कभी 90 फीसदी सोना निकाला जाता था.

1871, KGF के बनने की असली कहानी इसी साल से शुरू होती है. लेफ्टिनेंट जॉन वॉरेन ने 1804 से 1860 के बीच सोना निकालने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं रहे. इसमें कई लोगों ने अपनी जान भी गंवाई, जिसके बाद यहां खुदाई पर रोक लगा दी गई. उसी समय जॉन वॉरेन ने एशियाटिक जर्नल में KGF को लेकर एक लेख लिखा था. वही लेख ब्रिटिश सैनिक माइकल फिट्जगेराल्ड लेवली के हाथ लगा. जब वो भारत आए तो इसे लेकर काफी उत्साहित थे. उन्होंने बेंगलुरु में रहने का फैसला किया.

लेवेली ने 1871 में बैलगाड़ी से करीब 100 किलोमीटर तक का सफर किया. सफर के दौरान लेवेली ने खनन की जगहों की पहचान की और सोने के भंडार वाली जगहों को खोजने में सफल रहे.

द क्विंट में KGF के इतिहास पर एक लेख है, जिसमें बताया गया है कि लेवेली ने इस पर दो साल रिसर्च किया. दो साल बाद 1873 में ब्रिटिश सरकार ने मैसूर के महाराज से कोलार में खनन करने का लाइसेंस मांगा.

2 फरवरी 1875 में लेवेली को खनन करने का लाइलेंस मिला, लेकिन माइकल लेवेली के पास उतना पैसा नहीं था कि वो खुदाई का काम करवा सके, लिहाजा उसने इंवेस्टर ढूंढे और खनन का काम जॉन टेलर और सन्स के हाथ में दिया गया. यह एक बड़ी ब्रिटिश कंपनी थी. पहले कुछ सालों तक लेवेली का काफी समय पैसा जुटाने और लोगों को काम करने के लिए तैयार करने में गुजरा. काफी मुश्किलों के बाद KGF से सोना निकालने का काम आखिरकार शुरू हो गया.

1880 के दशक में माइनिंग ऑपरेशन बेहद कठिन था, क्योंकि लाइट की बहुत बड़ी समस्या थी. KGF की खानों में पहले रोशनी का इंतजाम मशालों और मिट्टी के तेल से जलने वाले लालटेन से होता था. माइंस में जाने के लिए शार्प हुआ करते थे, जिसमें लकड़ी की बीम से सपोर्ट किया जाता था. इसके बावजूद यहां पर कभी-कभी हादसा हो जाता था. एक अनुमान के मुताबिक 120 साल के ऑपरेशन में यहां करीब 6000 लोगों ने जान गंवाई.

कोलार गोल्ड फील्ड्स में लाइट की कमी को पूरा करने के लिए कोलार से 130 किलोमीटर की दूरी पर कावेरी बिजली केंद्र बनाया गया. ये पावर प्लांट एशिया का दूसरा और भारत का पहला बिजली केंद्र था.

बिजली मिलने के बाद कोलार गोल्ड फील्ड का काम दोगुना हो गया. इस केंद्र का निर्माण कर्नाटक के मांड्या जिले के शिवनसमुद्र में किया गया. सोने की खदान के चलते बेंगलुरू और मैसूर की बजाय KGF को प्रथमिकता मिलने लगी.

KGF भारत का सबसे पहला वो शहर था, जहां बिजली पूरी तरह से पहुंच गई. बिजली पहुंचने के बाद KGF में सोने की खुदाई बढ़ा दी गई. वहां तेजी से खुदाई बढ़ाने के लिए प्रकाश का बंदोबस्त करके कई मशीनों को काम में लगाया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि 1902 आते-आते KGF भारत का 95 फीसदी सोना निकालने लगा. हाल यह हुआ कि 1905 में सोने की खुदाई के मामले में भारत दुनिया में छठे स्थान पर पहुंच गया.

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KGF में सोना मिलने के बाद वहां की सूरत ही बदल गई. उस समय की ब्रिटिश सरकार के अधिकारी और इंजीनियर वहां अपने घर बनाने लगे. लोगों को वहां का माहौल बहुत पसंद आने लगा, क्योंकि वो जगह ठंडी थी. वहां जिस तरह से ब्रिटिश अंदाज में घरों का निर्माण हुआ, उससे लगता था कि वो मानो इंग्लैंड ही है.

डेक्कन हेराल्ड के अनुसार, इसी चलते KGF को छोटा इंग्लैंड कहा जाता था. लेकिन जो लोग माइन में काम करते थे उनके लिए हालात इंग्लैंड जैसे नहीं थे. वो कुली लेन में रहते थे, जहां पर सुविधाएं कम थीं. एक ही शेड में कई परिवार रहते थे और उनका जीवन बेहद कठिन था. ये जगह चूहों के हमले के लिए प्रसिद्ध थी. बताया जाता है यहां रहने वाले श्रमिकों ने एक साल में करीब 50 हजार चूहे मार दिए थे.

1930 में कोलार गोल्ड फील्ड में करीब 30 हजार मजदूर काम करते थे. KGF में जब सोने के भंडार में कमी होने लगी, तब कामगार भी कोलार छोड़कर जाने लगे. हालांकि KGF पर आजादी तक अंग्रेजों का कब्जा रहा, लेकिन आजादी के बाद 1956 में केंद्र सरकार ने कंट्रोल अपने हाथों में लेने का फैसला किया. वहीं ज्यादातर खदानों का स्वामित्व राज्य सरकारों को सौंप दिया गया.

1970 में भारत सरकार की भारत गोल्ड माइन्स लिमिटेड कंपनी ने वहां काम करना शुरू किया. शुरुआती सफलता मिलने के बाद कंपनी का फायदा दिनों दिन कम होता गया. 1979 के बाद तो ऐसी स्थिति हो गई कि कंपनी के पास अपने मजदूरों को देने के लिए पैसे नहीं बचे.

भारत के 90 फीसदी सोने की खुदाई करने वाली KGF का प्रदर्शन 80 के दशक के दौरान खराब होता चला गया. उसी वक्त, कई कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. साथ ही कंपनी का नुकसान भी बढ़ता जा रहा था. एक समय ऐसा आया, जब वहां से सोना निकालने में जितना पैसा लग रहा था, वो हासिल सोने की कीमत से भी ज्यादा हो गई थी. इस चलते 2001 में भारत गोल्ड माइन्स लिमिटेड कंपनी ने वहां सोने की खुदाई बंद करने का निर्णय लिया.

KGF में 121 सालों से भी अधिक समय तक खनन का काम चलता रहा. लेकिन, साल 2001 में यहां खुदाई बंद कर दी गई. वहां खुदाई हुए 20 से ज्यादा का वक्त हो गया है. KGF अतीत की कहानी बन चुका है और बढ़ते समय के साथ वह खंडहर में तब्दील हो गया है.

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