advertisement
कर्नाटक में कांग्रेस की जीत (Karnataka Election) के प्रमुख राष्ट्रीय परिणामों में से एक यह भी है कि इसने पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) का राजनीतिक कद बढ़ा दिया है. खड़गे ने कांग्रेस पार्टी का आगे बढ़कर नेतृत्व किया और अपने गृह राज्य में ठोस जीत दिलाने में मदद की.
साथ ही उन्होंने सीएम की कुर्सी के दो मुख्य दावेदारों- सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच संतुलन बनाने के लिए अपनी सीनियरिटी और सूबे की राजनीति के गहन ज्ञान का इस्तेमाल किया.
उसके बाद खड़गे द्वारा इस साल के अंत में होने वाले पांच विधानसभा चुनावों - छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम, राजस्थान और तेलंगाना - के लिए कांग्रेस की तैयारी पर एक उच्च स्तरीय बैठक आयोजित करने की संभावना है.
वर्तमान में मल्लिकार्जुन खड़गे के पक्ष में ये नौ फैक्टर काम रहे हैं:
कांग्रेस अध्यक्ष न थकने वाले राजनेता के रूप में जाने जाते हैं. उन्होंने कर्नाटक चुनावों में 40 से अधिक रैलियों को संबोधित किया और न केवल पार्टी के भीतर बल्कि सामाजिक संगठनों के साथ भी अनगिनत बैठकें कीं.
जबतक कांग्रेस अध्यक्ष का पद गांधी परिवार के साथ था, तब छवि बनी थी कि आलाकमान पहुंच से बाहर ही रहता है. खड़गे इसे बदल रहे हैं.
भले ही खड़गे कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, राहुल गांधी स्पष्ट रूप से इसका जन चेहरा हैं, खासकर भारत जोड़ो यात्रा के बाद. वास्तव में, दोनों के बीच का यह विभाजन कम से कम अभी तो कांग्रेस को सूट कर रहा है. राहुल गांधी पार्टी कैडर और आधार को सक्रिय करने के लिए काम करते दिख रहे हैं, जबकि खड़गे पार्टी चला रहे हैं और क्राइसिस मैनेज करते हैं.
खड़गे कोई रबर स्टैंप नहीं हैं, लेकिन राहुल गांधी के साथ खड़गे ज्यादातर मुद्दों पर समान विचार के हैं. सकारात्मक पहलू यह है कि ऐसा लगता है कि राहुल गांधी खड़गे को सुर्खियों में आने दे रहे हैं. उदाहरण के लिए कर्नाटक नेतृत्व पर अंतिम निर्णय लेने के बाद दोनों दावेदारों की खड़गे के साथ तस्वीरों का उदाहरण लें.
2018 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में दावेदारों के साथ राहुल गांधी की ऐसी ही तस्वीरें आईं थीं. इन राज्यों में बाद में जो हुआ वह बेशक दूसरी बात है. यहां मुद्दा यह है कि बड़ी आसानी से उस तस्वीर में खड़गे की जगह राहुल गांधी हो सकते थे.
इस बात से कोई इंकार नहीं करेगा कि अंतिम फैसले में राहुल की भी भूमिका थी. लेकिन मीडिया में क्या दिखता है, यह भी मायने रखता है. तस्वीरों ने साफ कर दिया कि आखिरी फैसला खड़गे का है.
खड़गे और सिद्धारमैया, दोनों कभी एक दूसरे के प्रतिद्वंदी भी थे. ऐसा कहा जाता है कि खड़गे 2013 में सीएम की दौड़ सिद्धारमैया के हाथों हार गए थे. यह भी कहा जाता है कि खड़गे को राज्य की राजनीति से दरकिनार करने और केंद्र में भेजे जाने में सिद्धारमैया की भूमिका थी.
हालांकि, जब 2023 में सीएम तय करने की बात आई, तो खड़गे ने सिद्धारमैया के खिलाफ दिल में कोई कटुता नहीं रखी. कांग्रेस की जीत के बाद के जश्न में खड़गे और सिद्धारमैया का एक वीडियो काफी सांकेतिक है. वीडियो में, खड़गे को सिद्धारमैया को मिठाई की पेशकश करते हुए उनके हाथ को दूर खींचते हुए देखा जा सकता है.
कर्नाटक के एक नवनिर्वाचित विधायक ने द क्विंट को बताया, "यह दोनों नेताओं के बीच गर्मजोशी का संकेत है. लेकिन साथ ही यह कांग्रेस अध्यक्ष का संदेश भी है कि वह जो दे रहे हैं, वह ले भी सकते हैं."
कांग्रेस के कई अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि खड़गे की बड़ी तस्वीर देखने और छोटी प्रतिद्वंद्विता को भूलने की क्षमता पार्टी के लिए एक बड़ा एसेट है.
कर्नाटक के चुनावी कैंपेन ने यह भी दिखाया कि खड़गे सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेने से नहीं डरते. चुनावों के बाद भी यह जारी रहा, कांग्रेस अध्यक्ष ने भारत के राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के बजाय नए संसद परिसर का उद्घाटन करने के प्रस्ताव पर उन्होंने पीएम पर पद के अपमान का आरोप लगाया. उन्होंने पीएम और बीजेपी पर दलितों और आदिवासी राष्ट्रपतियों को सिर्फ 'प्रतीक' के तौर पर नियुक्त करने का आरोप लगाया.
खड़गे को एक प्रभावी वक्ता के रूप में जाना जाता है. वह भी कई भाषाओं में जैसे कन्नड़, अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू और मराठी. भारत जोड़ो यात्रा के दौरान और संसद में मराठी में बोलने के उनके वीडियो वायरल हुए थे.
खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के साथ कई ऐसी पार्टियों के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाना संभव हुआ है जिनका इतिहास कांग्रेस विरोधी रहा है. इसका एक उदाहरण आम आदमी पार्टी (आप) है. आम आदमी पार्टी ज्यादातर सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई विपक्षी बैठकों से दूर रही है, लेकिन उन्होंने खड़गे द्वारा विपक्ष के नेता के रूप में बुलाई गई बैठकों में भाग लिया है.
अप्रैल में जब AAP के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सीबीआई ने तलब किया था तब भी खड़गे ने उनसे बात की थी और एकजुटता दिखाई थी. इस कदम ने कांग्रेस के भीतर कई लोगों को चौंका दिया.
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में खड़गे के चुनाव ने G-23, या नेताओं के उस समूह के औपचारिक अंत को चिह्नित किया, जिन्होंने तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को 2020 में एक आलोचनात्मक लेटर लिखा था. गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल और जितिन प्रसाद जैसे कुछ G-23 सदस्य पहले ही पार्टी छोड़ चुके थे. उनमें से जो बचे वे भी कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए शशि थरूर की जगह खड़गे का समर्थन करते नजर आये.
अतीत में, खड़गे ने उन लोगों को निशाने पर लिया था, जिन्होंने उन्हें केवल 'दलित नेता' कहकर बुलाया था. उनका मानना है कि उनके उत्थान को प्रतीकवाद के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि वह किसी भी तरह से अपनी दलित पहचान को कमतर आंक रहे हैं.
कर्नाटक चुनावों के दौरान, खड़गे व्यक्तिगत रूप से कर्नाटक में दलित नागरिक समाज के कई वर्गों तक पहुंचे. इंडिया टुडे-एक्सिस माईइंडिया के सर्वेक्षण के अनुसार, दलितों के बीच कांग्रेस का समर्थन 14 प्रतिशत अंक बढ़ गया, जो 2018 की तुलना में उसके कुल वोट-शेयर में पांच अंकों की वृद्धि से कहीं अधिक है. सामाजिक न्याय और दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के लिए बढ़ा प्रतिनिधित्व 2024 के चुनावों में कांग्रेस के लिए एक प्रमुख चर्चा का विषय बन गया है.
खड़गे धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के प्रति दृढ़ हैं और आमतौर पर नरम-हिंदुत्व का स्टैंड लेने के पक्ष में नहीं हैं. हालांकि, माना जाता है कि उन्हें व्यावहारिक वास्तविकताओं की भी समझ है और वे धार्मिकता के प्रदर्शन का विरोध नहीं करते हैं. यह उदयपुर चिंतन शिविर के साथ-साथ रायपुर प्लेनरी दोनों में चर्चा का एक प्रमुख मुद्दा बन गया था. यहां केरल और तमिलनाडु के कुछ नेताओं ने सार्वजनिक रूप से धार्मिक स्टैंड लेने के खिलाफ पक्ष रखा था जबकि उत्तरी राज्यों के कुछ नेताओं ने इसके महत्व पर जोर दिया था.
खड़गे के नेतृत्व में कांग्रेस अपनी गरीब समर्थक इमेज को तेज करने की प्रक्रिया में हो सकती है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined