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Shiv Sena पर कब्जे की कोशिश: कांग्रेस,SP, LJP,AIADMK,TDP में भी हो चुका तख्तापलट

Indian Democracy में पार्टियों पर कब्जे की कहानी बहुत पुरानी है.

उपेंद्र कुमार
पॉलिटिक्स
Updated:
<div class="paragraphs"><p>भारत के राजनीतिक बागी. जललिता, चंद्रबाबू नायडू, पशुपति पारस और इंदिरा गांधी</p></div>
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भारत के राजनीतिक बागी. जललिता, चंद्रबाबू नायडू, पशुपति पारस और इंदिरा गांधी

फोटोः क्विंट

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महाराष्ट्र में जारी सियासी संकट में तेजी से बदलाव देखा जा रहा है. ये संकट अब सिर्फ सरकार बचाने और गिराने भर का नहीं रह गया है. बल्कि, पार्टी (शिवसेना) पर किसका कब्जा हो इसकी लड़ाई छिड़ गई है. क्योंकि, शिवसेना नेता और मंत्री एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे से बगावत कर पार्टी पर दावा ठोक दिया है. हालांकि, भारतीय लोकतंत्र में ये दावा पहली बार नहीं किया गया है, इससे पहले भी कई नेताओं ने पार्टियां हथियाई है या हथियाने की कोशिश की है. आज उन्हीं पर चर्चा करेंगे कि आखिर वो कौन से नेता और पार्टियां हैं जिन पर कब्जा कर लिया गया?

साल 1947 में भारत की आजादी के बाद पार्टी पर कब्जा करने का पहला वाकया 60-70 के दशक में आता है. जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दो भागों में बांट दिया था और असली कांग्रेस पर कब्जा किया था.

जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को तोड़ किया कब्जा

साल 1969, इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं. उस समय कांग्रेस में कुछ बुजुर्ग नेताओं का सिंडिकेट हावी था. इंदिरा गांधी की भूमिका राम मनोहर लोहिया के शब्दों में 'गूंगी गुड़िया' से ज्यादा नहीं थी. पार्टी में उनको सुनने वाले बहुत कम थे.

इंदिरा गांधी और कांग्रेस सिंडिकेट के बीच राष्ट्रपति उम्मीदवार को लेकर बहस छिड़ गई. इंदिरा चाहती थीं कि वीवी गिरि को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया जाए. लेकिन, कांग्रेस सिंडिकेट ने नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित कर दिया. नाराजा इंदिरा ने बगावत कर दी. इंदिरा, वीवी गिरि के पक्ष में खुलकर मैदान में आ गईं. राष्ट्रपति चुनाव में इंदिरा गांधी के समर्थन से वीवी गिरि राष्ट्रपति चुने गए. लेकिन, नाराज कांग्रेस सिंडिकेट्स ने इंदिरा गांधी को 12 नवंबर साल 1969 में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया.

कांग्रेस से बाहर निकाले जाने के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के दो टुकड़े कर दिए. इंदिरा की पार्टी का नाम रखा गया कांग्रेस (R) और दूसरी पार्टी हो गई कांग्रेस (O). तब इंदिरा ने CPI और DMK की मदद से कांग्रेस (O) के अविश्वास प्रस्ताव को गिरा दिया.

साल 1971 में आम चुनाव हुए, जिसमें इंदिरा की कांग्रेस (R) ने 352 सांसदों के साथ भार बहुमत से सत्ता पर काबिज हो गई और साबित कर दिया कि असली कांग्रेस वही है. वहीं, कांग्रेस (O) बाद में आगे चलकर जनता पार्टी के साथ मर्ज हो गई. साल 1978 में इंदिरा गांधी की पार्टी कांग्रेस (आई) अस्तित्व में आई, जिसे चुनाव आयोग ने 1984 में असली कांग्रेस के रूप में मान्यता दी. साल 1996 में पार्टी के नाम से आई (I) हटाया गया और यह इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से जानी जाने लगी.

जब AIADMK जयललिता के हाथ में आई

साल 1987 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन का निधन हो गया. नेदुनचेहिन को कार्यकारी मुख्यमंत्री बनाया गया. रामचंद्रन के निधन के साथ AIADMK के दो गुटों में पार्टी पर नियंत्रण के लिए संघर्ष शुरू हो गया. एक गुट की अगुआई एमजी रामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन कर रही थीं, जबकि दूसरे गुट की अगुआई पार्टी की सचिव जयललिता कर रही थीं. पार्टी के धड़े ने जानकी को पार्टी महासचिव चुन लिया तो जयललिता धड़े ने कार्यकारी मुख्यमंत्री नेदुनचेहिन को पार्टी का महासचिव चुन लिया.

साल 1988 को राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया. तीन हफ्ते पुरानी जानकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया. नए सिरे से चुनाव हुए तो जयललिता गुट को 27 सीटें मिलीं. राज्य में DMK की सरकार बनी और जयललिता नेता प्रतिपक्ष बनीं. फरवरी 1989 में दोनों धड़ों का विलय हो गया और जयललिता पार्टी की नेता बनीं. पार्टी का चुनाव निशान भी उनके पास आया. मौजूदा समय में भी AIADMK पर कब्जा करने को लेकर दो गुटों में जंग छिड़ी हुई है.

चंद्र बाबू नायडू ने ससुर से छीनी TDP

साल 1995, चंद्र बाबू नायडू ने अपने ससुर एनटीआर के खिलाफ बगावत कर दी थी. एनटीआर की पार्टी TDP के 216 विधायकों में से 198 विधायकों को चंद्र बाबू नायडू ने अपने पक्ष में कर लिया था. ससुर का तख्तापलट किया और खुद मुख्यमंत्री बन बैठे. इतना ही नहीं एनटीआर की पार्टी TDP पर भी कब्जा कर लिया था.

दरअसल, पार्टी में कलह और गुटबाजी की शुरुआत 1993 में शुरू हुई, जब एनटीआर ने लक्ष्मी पार्वती से शादी की. माना जाता है कि एनटीआर पर्वती को TDP का नेतृत्व संभालने के लिए तैयार कर रहे थे. एनटीआर के इस फैसले का पार्टी में विरोध शुरू हो गया. जिसका नतीजा रहा कि NTR को मुख्यमंत्री और पार्टी दोनों से हाथ धोना पड़ा.

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जब अखिलेश यादव बने एसपी सुप्रीमो

साल 2016, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. मुख्यमंत्री थे अखिलेश यादव. मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष थे. जबिक, अखिलेश यादव के पास मुख्यमंत्री के साथ-साथ प्रदेश अध्यक्ष का भी पद था.

समाजवादी पार्टी में मामला गायत्री प्रजापति के मंत्री पद से बर्खास्त किए जाने के बाद से शुरू हुआ था. दरअसल, गायत्री प्रजापति मुलायम सिंह यादव के करीबी थे. उन पर खनन में करप्शन का आरोप लगा तो अखिलेश यादव ने उन्हें बर्खास्त कर दिया. इस फैसले का मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव ने विरोध किया. मुलायम ने प्रजापति को फिर से मंत्री बनाने के लिए कहा, लेकिन अखिलेश ने ऐसा करने से मना कर दिया. अखिलेश के फैसले के बाद मुलायम ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर शिवपाल को अध्यक्ष नियुक्त कर दिया.

अखिलेश यादव ने भी शिवपाल यादव को अपने मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया. विवाद इतना बढ़ा कि मुलायम सिंह यादव ने रामगोपाल यादव और अपने बेटे अखिलेश यादव को पार्टी से बाहर कर दिया. इसके बाद रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव ने पार्टी का अधिवेशन बुलाया, जिसमें पार्टी के अधिकतर दिग्गज आए. विद्रोही गुट के इस अधिवेशन में मुलायम सिंह यादव की जगह अखिलेश यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गए. शिवपाल की जगह नरेश उत्तम को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया. मामला चुनाव आयोग तक पहुंचा. अखिलेश के पक्ष में पार्टी के ज्यादातर जनप्रतिनिधि थे. शिवपाल खेमे में सिर्फ दर्जन भर नेता ही रह गए.

चुनाव आयोग ने समाजवादी पार्टी पर हक का फैसला अखिलेश के पक्ष में किया. इसके बाद शिवपाल ने अपनी अलग पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनाई. हालांकि, समाजवादी पार्टी में कलह का कारण अभी तक साफ नहीं हो पाया कि आखिर किसके वजह से यादव परिवार में दरार आई. कई मुंह कई बातें सामने आती रही हैं.

जब भतीजे चिराग से चाचा पशुपति ने हथियाई पार्टी

साल 2021, चिराग पासवान ने के फैसलों से नाराज LJP के पांच सांसदों ने बगावत कर दी. इन सभी पांचों सांसदों ने चाचा पशुपति नाथ को अपना नेता मान लिया. पशुपति पारस ने पार्टी के छह में से 5 सांसदों को अपने साथ मिलाकर चिराग से संसदीय दल के पद और पार्टी की कमान दोनों ही छीन ली. NDA सरकार में पशुपति नाथ फिलहाल मंत्री हैं. वहीं, चिराग अब लोजपा (रामविलास) के नेता हैं.

दरअसल, लोजपा में दरार तब से शुरू हो गई जब रामविलास बीमार पड़े. रामविलास की बिमारी के बाद चिराग ने पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली. चिराग ने चाचा पशुपति पारस के हाथ से बिहार की बागडोर छीन ली. इसी के बाद दोनों के बीच की खाई बढ़ने लगी. ये खाई तब और बढ़ गई जब चिराग पासवान ने बिहार विधानसभा का चुनाव NDA से अलग होकर लड़ने की घोषणा कर दी. चुनाव के नतीजे में चिराग बुरी तरह से असफल रहे. LJP का सिर्फ एक विधायक जीता. वह भी बाद में RJD में शामिल हो गया.

उस समय पशुपति नाथ ने दलील दी थी कि मैंने पार्टी को तोड़ा नहीं है, पार्टी को बचाया है. पशुपति पारस ने कहा था कि यह मजबूरी का फैसला है. हम भाईयों में अटूट प्यार था. पार्टी ठीक से चल रही थी. हमारे भाई चले गए और मैं अकेला महसूस कर रहा था. पार्टी की बागडोर जिनके हाथ में गई. पार्टी के 99 फीसदी कार्यकर्ता, सांसद, विधायक और समर्थक सभी की इच्छा थी कि हम 2014 में NDA गठबंधन का हिस्सा बनें और बिहार के विधानसभा चुनाव में भी NDA का हिस्सा बने रहें. लेकिन, कुछ असामाजिक तत्वों ने हमारी पार्टी में सेंध डाला और 99 फीसदी कार्यकर्ताओं के भावना की अनदेखी करके गठबंधन को तोड़ दिया. नतीजा आपके सामने है. उन्होंने कहा था हमने पार्टी तोड़ी नहीं, बल्कि उसको बचाया है.

अब एकनाथ शिंदे ने शिवसेना पर ठोका दावा

इस बागियों में अब महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे का नाम शामिल हो गया. महाराष्ट्र में जारी सियासी संकट के केंद्र बिंदु में एकनाथ शिंदे हैं. जिन्होंने शिवसेना के 30 से ज्यादा विधायकों को अपने साथ कर पार्टी पर दावा ठोक दिया है. एकनाथ शिंदे फिलहाल, पार्टी के बागी विधायकों के साथ असम के होटल में ठहरे हुए हैं और वहीं से वो पार्टी पर कब्जे की चालें चल रहे हैं.

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Published: 25 Jun 2022,07:03 AM IST

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