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शिवसेना (Shiv Sena) एक बार फिर अंतर्कलह की आग में जल रही है. एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) के नेतृत्व में पार्टी के विधायकों ने बगावत का बिगुल फूंक दिया है. ऐसा पहली बार नहीं है जब शिवसेना में फूट पड़ी है. इससे पहले भी शिवसेना को कई बार भीतरघात का सामना करना पड़ा है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) के सामने पार्टी को बचाने की आज जो चुनौती है, ऐसी ही चुनौतियों का बाल ठाकरे (Bal Thackeray) को भी सामना करना पड़ा था.
बाल ठाकरे के करीबी नेताओं में से एक माने जाने वाले छगन भुजबल (Chhagan Bhujbal) ने साल 1991 में शिवसेना में विद्रोह का बिगुल फूंका था. भुजबल के नेतृत्व में 18 विधायकों ने शिवसेना-बी नाम की पार्टी बनाने का ऐलान किया था. पार्टी की स्थापना के बाद ये पहला मौका था जब किसी ने बाल ठाकरे से बगावत की थी.
भुजबल के विद्रोह के बाद बाल ठाकरे ने उन्हें गद्दार घोषित किया और लखोबा कहकर चिढाने लगे. लखोबा एक मराठी नाटक का किरदार है जो कि दगाबाजी करता है. इसके साथ ही बाला साहेब भुजबल को सबक भी सिखाना चाहते थे. 1997 में बाला साहेब को ये मौका मिला. राज्य में शिव सेना-बीजेपी की सरकार थी. 13 जुलाई की सुबह सैकड़ों शिव सैनिक भुजबल के बंगले पर हमला बोल दिया. इस हमले में भुजबल बाल-बाल बचे.
आज से 30 साल पहले भी शिवसेना के अस्तित्व पर संकट आया था. तब उद्धव ठाकरे के पिता बाला साहेब ठाकरे ने पार्टी को उस संकट से निकाला था. दरअसल, 1992 में माधव देशपांडे (Madhav Deshpande) ने बाला साहेब ठाकरे और उनकी कार्यशैली पर सवाल उठाए थे. इसके साथ ही उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे पर पार्टी में ज्यादा दखलंदाजी करने का आरोप लगाया था. इसके बाद बाला साहेब ने शिवसेना के मुखपत्र सामना में एक ऐसा लेख लिखा था जिसने पूरी पार्टी को हैरत में डाल दिया था.
बाला साहेब ठाकरे के इस ऐलान के बाद पूरी पार्टी में खलबली मच गई. सभी विरोध शिकायतों को दरकिनार कर पार्टी में बाला साहेब को मनाने की मुहिम शुरू हो गई. हालात ऐसे हो गए थे कि पार्टी छोड़ने की बात पर कुछ शिव सैनिकों ने आत्मदाह तक की चेतावनी दे दी थी.
इस एक घटना के बाद जब तक बाला साहेब रहे, उनके खिलाफ पार्टी में किसी ने आवाज नहीं उठाई, उनके खिलाफ किसी ने बगावती तेवर नहीं दिखाए.
साल 2005 में शिवसेना को एक के बाद एक दो बड़े झटके लगे थे. नारायण राणे (Narayan Rane) अपने 10 समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए थे. इसके कुछ महीने बाद राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़कर दिया था.
दो बड़े नेताओं के पार्टी छोड़ने से शिवसेना को बड़ा झटका लगा था. पार्टी पर फिर बड़ा संकट मंडरा रहा था. उद्धव ठाकरे के कार्यकारी अध्यक्ष होने के बावजूद पार्टी को संभालने का काम बाला साहेब ठाकरे ने किया. इस दौरान उन्होंने न केवल अपने बेटे पर भरोसा जताया बल्कि शिवसैनिकों में भी पार्टी के प्रति भरोसा कायम रखा.
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की छवि पिता बाल ठाकरे की तरह जादुई नहीं है. इसके अलावा सत्ता को स्वीकार करके उन्होंने ठाकरे परिवार के सत्ता से दूर रहने के नैतिक संदेश को भी खत्म कर दिया है. इससे शिवसैनिकों के बीच ठाकरे फैमिली का वह रुतबा नहीं रहा, जो बाला साहेब के दौर में होता था.
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Published: 24 Jun 2022,07:45 AM IST