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Rahul Gandhi Birthday: साल 2004 में, सोनिया गांधी पीएम क्यों नहीं बन पायी, ये किस्सा है, और इसी किस्से के बाद गांधी परिवार के 'युवराज' राहुल गांधी (Rahul Gandhi) का उभार हुआ. भारतीय संस्कृति में सत्ता हंस्तातरण में स्वभाविक पसंद वारिश होते हैं और गांधी परिवार में भी ये रवायत पुरानी है.
खुद पीएम न बन पाने के बाद सोनिया ने राहुल को आगे किया, जिससे ये संदेश गया कि कांग्रेस की अब अगली कमान राहुल के ही हाथों में होगी. हालांकि, अपने 34वें जन्मदिन से कुछ महीने पहले राहुल 2004 का आम चुनाव अपने पिता राजीव गांधी की पांरपरिक सीट अमेठी से जीतकर लोकसभा पहुंच चुके थे. तब से अब तक, राहुल गांधी सियासत में प्रासंगिक बने हुए हैं और अब 19 जून को अपना 53वां जन्मदिन मना रहे हैं.
हालांकि, राहुल गांधी के लिए इस बार जन्मदिन मनाने का मौका बहुत शानदार है. हिमाचल और कर्नाटक में जीत से कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साहित हैं और राहुल गांधी को जीत का क्रेडिट दिया गया है. ऐसे में आइये आपको कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की 'ताकत', 'कमजोरी', 'अवसर' और 'खतरे' के बारे में बताते हैं.
भारत एक बहुधर्मी, बहुभाषायी, बहुसांस्कृतिक और बहुवर्गीय लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष देश है. ऐसे में लंबे समय तक शासन में रही देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के नेता के रूप में उनकी पहचान सभी धर्मों, भाषाओं, संस्कृतियों और वर्गों को साथ लेकर चलने की है.
राहुल गांधी एक युवा नेता हैं, जो उदार राष्ट्रवाद की उस धारा का नेतृत्व करते हैं, जो बीजेपी समेत अन्य दक्षिणपंथी समूहों की कथित रूप से कट्टर पुरातन सोच के विपरीत आधुनिक सामाजिक, वैज्ञानिक तकनीकी और आर्थिक नीतियों में भरोसा रखती है.
वरिष्ठ पत्रकार संजय दुबे ने क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहा,"राहुल गांधी की देश के अंदर और देश के बाहर विदेशों में युवाओं के बीच काफी लोकप्रियता हैं और वह खुद को कट्टरवाद के खिलाफ संघर्ष करने वालों की अगुवाई करने वाले ऐसे नेता की छवि बनाये हुए हैं, जो काफी सहिष्णु है."
राजनीतिक जानकारों की मानें तो, राहुल गांधी की उच्च शिक्षा, अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ होना और आधुनिकपसंद व्यवहार से नई पीढ़ी के उन लोगों, खास तौर पर कॉलेज जाने वाले छात्र-छात्राओं और उन उच्च शिक्षित प्रोफेशनल्स में भी, जो दकियानूसी विचारधारा को प्रगति में बाधक मानते हैं, में काफी साख है.
वरिष्ठ पत्रकार ललित राय ने क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहा, "सियासत में ताकत, कमजोरी, अवसर और खतरा एक-दूसरे के सापेक्ष है. कोई भी राजनीतिक दल कमजोर या मजबूत खुद के दम पर तो है, लेकिन उसका आकलन दूसरे की तुलना में किया जाता है. राहुल गांधी ने 2014 के बाद, 2022 में जब कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा के आगाज के साथ कश्मीर में अंजाम तक पहुंचाया तो उनका अलग रूप, रंग, तेवर, कलेवर नजर आया.
राहुल गांधी उस परिवार से आते हैं, जिसकी राजनीतिक विरासत रही है और अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ संघर्ष करने में योगदान रहा है, लेकिन खुद राहुल गांधी जमीनी संघर्ष का सामना न करके पार्टी में सीधे पहली कतार के नेता के रूप में बैठा दिये गये. इससे उनकी छवि समाज से सीधे सामना न करने की रही है, जो उनकी कमजोरी बन गई है.
राहुल गांधी आधुनिक पढ़े-लिखे युवा नेता हैं, लेकिन देश के सदियों पुराने सांस्कृतिक वैभव, इतिहास, भूगोल और सामाजिक संरचना की जड़ से अपरिचित हैं. इसकी वजह से उनको देश के उस विशाल वर्ग का समर्थन नहीं मिल पाता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी समाजवाद, राष्ट्रवाद, धर्मवाद की परंपरा में पला-बढ़ा है.
राहुल गांधी देश के किसान, मजदूर, गरीब और निम्न मध्यम वर्ग और शोषित महिलाओं के साथ उनके संघर्ष में एक कुशल राजनेता के तौर पर जमीनी संघर्ष करते नहीं दिखते हैं. आंदोलन, धरना, प्रदर्शन और उनके साथ खड़े होकर लड़ाई लड़ने से दूर ही रहते हैं. इससे उनकी छवि अभिजात्य, पुराने सामंती और रईस वर्ग की बन गई है.
वरिष्ठ पत्रकार संजय दुबे कहते हैं, "राहुल गांधी अपने संबोधन में अपनी अबोध समझ की वजह से कई बार गलतियां कर जाते हैं. इससे वे अक्सर ऐसी बातें बोल जाते हैं या ऐसी हरकतें कर जाते हैं, जो हास्यास्पद हो जाती हैं और उन्हें नॉन सीरियस नेती की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है.
हालांकि, कुछ राजनीतिक जानकारों का कहना है कि राहुल गांधी के खिलाफ कई बार झूठे या फेक तरीके से सेट किये गये नैरेटिव से भी उनको नुकसान हुआ, जो काफी हद तक भारत जोड़ो यात्रा के बाद बदलता हुआ दिखाई दे रहा है.
राहुल ने पार्टी के भीतर पुराने कल्चर और नेचर को बदलने की कोशिश जरूर की. लेकिन बहुत सफल नहीं हुए. उनके सामने कई अच्छे और पुराने नेता पार्टी छोड़कर चले गये, जो उनकी कमजोर नेतृत्व क्षमता और सोच, दोनों पर सवाल उठाता है.
जानकारों की मानें तो, कांग्रेस छोड़कर गये नेताओं ने भी राहुल गांधी की नेगेटिव इमेज बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसका नुकसान राहुल को हुआ. लेकिन अब वो बदलता दिख रहा है.
राहुल गांधी को कांग्रेस नेता के रूप में व्यापक समर्थन प्राप्त है. यहां तक कि कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता भी उनको सीधे चुनौती देने की हिमाकत नहीं कर सकते हैं, भले ही वे अंदर से उनके राजनीतिक कौशल को न स्वीकारते हों. यह उनके लिए खुद को आगे बढ़ाने का एक बड़ा अवसर है.
राहुल गांधी अपनी पार्टी के सर्वमान्य नेता हैं, लिहाजा उनके पास जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं को सुनने और उनसे सीधे जुड़ाव करने का अच्छा मौका है. इस समय भारत जोड़ो यात्रा जैसी छोटी-छोटी यात्राएं निकालकर जनता का समर्थन हासिल किया जा सकता है, जो उनको चुनाव में मदद करेगा.
राहुल गांधी को केंद्र सरकार के खिलाफ कई बार बेवजह बयान देने के बजाए जनता के मुद्दे उठाने और जनता से सीधे संवाद करके उनके नेता बनने का अच्छा अवसर है. भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा युवाओं का है, जो क्रांति करने के बजाए सामाजिक सौहार्द बनाकर रहने में भरोसा रखता है. खुद राहुल गांधी की छवि युवा नेता की है. ऐसे में यह बड़ा अवसर है कि वह उनके साथ खुद को जोड़ें.
राहुल गांधी पार्टी और पार्टी के बाहर दूसरे दलों के कई नेताओं के आगे अपनी बात प्रमुखता से नहीं रख पाते हैं. इससे वे कभी अपनी बहन प्रियंका गांधी को आगे करते हैं तो कभी दूसरे नेताओं को खड़ा कर देते हैं. संसद के अंदर भी वह कई बार कथित तौर पर प्रमुख मुद्दों पर गंभीरता से तैयारी करके नहीं बोला करते थे. इस वजह से वे अक्सर कथित तौर पर नॉन सीरियस लीडर मान लिये जाते हैं. अगर वह इससे मुक्त नहीं हुए तो यह उनके लिये एक नकारात्मक छवि बनाएगा.
राजनीतिक जानकारों की मानें तो, राहुल गांधी देश में जरूरत के समय अक्सर विदेश चले जाते हैं. जब देश में उनको आंदोलन करने चाहिए, लोगों की आवाजों को उठानी चाहिए, तब वह विदेश जाकर वहां पर मोदी विरोध में बयान देना शुरू कर देते हैं. यह उनके गैरजिम्मेदाराना रवैय को बताता है. इससे उनकी खुद की नेतृत्व क्षमता सवालों के घेरे में आती है.
कांग्रेस से जुड़े एक नेता ने नाम न छपने की शर्त पर कहा, "राहुल गांधी के साथ सबसे बड़ी समस्या खुद की निर्णय क्षमता पर भरोसा नहीं करना है, जिससे वो हमेशा संशय में रहते हैं, और यही उनके राजनीतिक भविष्य के लिए बेहद घातक है."
हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में अमेठी जीत गंवाने के बाद से राहुल गांधी के भीतर बहुत परिवर्तन देखा गया है. उनके अंदर सीखने की ललक और सुनने की क्षमता दिख रही है. वो राजनीति का अध्ययन भी कर रहे हैं. वो पहले से अधिक परिपकव और सुलझे हुए नेता नजर आ रहे हैं.
राजनीतिक जानकारों की मानें तो, वैसे भी भारतीय राजनीति में 53 साल की आयु कोई ज्यादा नहीं है. राहुल गाधी के पास पॉलिटिक्स में लंबा वक्त है, अगर वो अपने भीतर निर्णय लेने के क्षमता और विकसित कर लें, जमीनी हकीकत से परिचित होना शुरू कर दें, जनता और कार्यकर्ता से सीधे और सरलता से संवाद करें, चौबीसों घंटे और सातों दिन एक्टिव नेता बन जायें तो शायद वो कई नेताओं से और आगे निकल सकते हैं.
अगले साल 2024 का लोकसभा चुनाव, राहुल गांधी अब राजनीति में करीब दो दशक बीता चुका है. ऐसे में ये आम चुनाव राहुल गांधी और कांग्रेस के भविष्य, दोनों के लिए काफी मायने रखता है. इसका नतीजा क्या होगा, इसके लिए अगले 2024 का इंतजार करना होगा.
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Published: 18 Jun 2023,03:58 PM IST