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पायलट बनाएंगे नई पार्टी? कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं का क्या हुआ?

पायलट को फैसला लेने से पहले पलटने चाहिए इतिहास के पन्ने

आदित्य मेनन & मेखला सरन
पॉलिटिक्स
Published:
पायलट को फैसला लेने से पहले इतिहास जरूर पलटना चाहिए
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पायलट को फैसला लेने से पहले इतिहास जरूर पलटना चाहिए
(फोटो:TheQuint)

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राजस्थान में सियासी तूफान खड़ा करने वाले सचिन पायलट को लेकर कई कयास लगाए जा रहे हैं. पहले कहा जा रहा था कि बीजेपी के कहने पर पायलट ने बगावत की है. लेकिन पायलट ने साफ कर दिया है कि वो बीजेपी में शामिल नहीं होने जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि राजस्थान के कुछ नेता ये अफवाह फैलाने का काम कर रहे हैं. अब अगर वो बीजेपी में शामिल नहीं हो रहे तो इसके बाद उनके पास दूसरा विकल्प अपनी खुद की नई पार्टी खड़ी करना का बचता है. इसी को लेकर कयास भी लग रहे हैं.

हालांकि बीजेपी के साथ रिश्तों से इनकार के बाद उनकी अपनी पार्टी कांग्रेस ने फिर एक बार बांहे फैलाकर उनके स्वागत की बात कही. राजस्थान कांग्रेस इंचार्ज अविनाश पांडे ने कहा कि

“पायलट के लिए पार्टी के दरवाजे बंद नहीं हुए हैं.”
अविनाश पांडे

अब पायलट जो भी फैसला लेते हैं वो उन पर निर्भर करता है, उससे पहले कयास लगाना ठीक नहीं है. वैसे कांग्रेस छोड़कर नया दल बनाने वाले नेताओं की लंबी लिस्ट है. यहां हम आपको कुछ ऐसे ही नेताओं के बारे में बता रहे हैं, जिन्होंने अपनी अलग पार्टी बनाई. साथ ही बताएंगे कि इसमें कांग्रेस को कितना नुकसान हुआ और इन नेताओं को क्या फायदा मिला.

ममता बनर्जी

ममता बनर्जी यूथ कांग्रेस की एक फायर ब्रांड नेता थीं. लेकिन उन्होंने 1997 में कांग्रेस छोड़ दी थी. इसके बाद जनवरी 1998 में ममता ने तृणमूल कांग्रेस के नाम से अपनी नई पार्टी बनाई. ये कांग्रेस के लिए पश्चिम बंगाल में सबसे बड़ा झटका था, जिसके बाद कांग्रेस के लिए बंगाल वैसा नहीं रहा जैसा पहले था. पार्टी का ग्राफ लगातार गिरता चला गया.

पश्चिम बंगाल में टीएमसी का ग्राफ बढ़ता गया, कांग्रेस का गिरता गया

पश्चिम बंगाल में साल 1991 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट शेयर 35 फीसदी था. जो 1996 में हुए चुनावों में बढ़कर 39.5 तक पहुंच गया. लेकिन ममता के पार्टी छोड़ने के बाद 2001 में ये वोट शेयर गिरकर 8 फीसदी तक पहुंच गया. जबकि ममता की पार्टी टीएमसी का वोट शेयर 30.7 फीसदी रहा. हालांकि इसके बाद 2006 में कांग्रेस ने अपने वोट शेयर में इजाफा किया और तब पार्टी का वोट शेयर 14.7 फीसदी तक पहुंचा. वहीं टीएमसी का वोट शेयर गिरकर 26.6 फीसदी हुआ.

इसके बाद साल 2011 में हुए विधानसभा चुनावों में दोनों पार्टियों ने गठबंधन में चुनाव लड़ा और सत्ता में आए. इस चुनाव में टीएमसी का 38.9 फीसदी वोट शेयर जबकि कांग्रेस का 9.1 फीसदी वोट शेयर रहा. इसके बाद 2016 में हुए चुनाव में कांग्रेस को थोड़ा फायदा हुआ और उसका वोट शेयर 12.3 फीसदी तक पहुंचा, लेकिन इस चुनाव में टीएमसी ने 45 फीसदी वोट शेयर के साथ चुनाव में बड़ी जीत हासिल की.

अब यहां ये दिलचस्प बात है कि 2001 और 2006 में हुए चुनावों में कांग्रेस और टीएमसी का वोट शेयर करीब उतना ही था जितना ममता के कांग्रेस से अलग होने से पहले 1996 में था.

हालांकि 2011 के बाद टीएमसी को नया ग्रोथ मिलना शुरू हुआ और पार्टी का वोट शेयर लगातार बढ़ता चला गया. वहीं कांग्रेस वहीं तक सीमित रही और नॉर्दन बंगाल में ही उसका वोट शेयर सिमटकर रह गया. ये सभी आंकड़े ये दिखाते हैं कि ममता का कांग्रेस को छोड़कर जाना उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ. क्योंकि टीएमसी ने कुछ ही सालों में कांग्रेस को पछाड़कर अपनी नई पहचान बनाई. इसीलिए ये कांग्रेस के बागी नेताओं के लिए एक ब्लू प्रिंट की तरह है.

नीफू रियो

कुछ ऐसा ही कांग्रेस के साथ नागालैंड में भी हुआ. जहां पर नीफू रियो ने कांग्रेस छोड़कर अपनी नई पार्टी नागालैंड पीपुल्स फ्रंस (NPF) को खड़ा किया. रियो की पार्टी एनपीएफ ने कांग्रेस को राज्य से बाहर का रास्ता दिखाने का काम किया. पहले एनपीएफ मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर सामने आई और देखते ही देखते राज्य की सत्ता तक पहुंच गई. इसके बाद कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरता चला गया.

जहां कांग्रेस के पास 1998 में 50.7 फीसदी वोट शेयर था, वहीं नीफू रियो के अलग होने के बाद 2003 और 2008 में 36 फीसदी तक गिर गया. इसके बाद 2013 में कांग्रेस का वोट शेयर सिमटकर 25 फीसदी रह गया.

लेकिन रियो ने बाद में एनपीएफ छोड़कर दूसरी पार्टी एनडीपीपी बना ली. जिसके बाद कांग्रेस राज्य में एक छोटी खिलाड़ी की तरह रह गई.

जगनमोहन रेड्डी

एक दौर था जब आंध्र प्रदेश को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था. लेकिन आज ये हालात हैं कि पार्टी का प्रदेश में कोई अस्तित्व ही नहीं दिखता है. इसका सबसे बड़ा कारण राज्य का विभाजन और जगनमोहन रेड्डी की नई पार्टी वाईएसआरसीपी का बनना था.

आंध्र प्रदेश में कांग्रेस का वोट शेयर जहां 2009 में 36.6 फीसदी था वो गिरकर 2014 में 11.7 तक पहुंच गया. राज्य के दो हिस्सों में बंटने के बाद साल 2019 में कांग्रेस महज 1.2 फीसदी वोट शेयर पर सिमटकर रह गई.

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वो राज्य जहां तोड़फोड़ का पड़ा कम असर

कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहां पर कांग्रेस को तोड़फोड़ का ज्यादा असर नहीं पड़ा. यानी उसके वोट शेयर में ज्यादा गिरावट नहीं आई. जब 1999 में शरद पवार, पीए संगमा और तारीक अनवर ने कांग्रेस से अलग होकर नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) का गठन किया तो इसे कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका माना गया. सोनिया गांधी को पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त करने से नाराज होकर इन्होंने पार्टी छोड़ दी थी. इसके बाद शरद पवार के राज्य महाराष्ट्र और संगमा के मेघालय में कांग्रेस को सबसे ज्यादा असर पड़ा.

इसके बाद कांग्रेस को जरूर कुछ समय नुकसान झेलना पड़ा, लेकिन उतना नहीं जितना पश्चिम बंगाल, नागालैंड और आंध्र प्रदेश में देखने को मिला. यानी पार्टी ने अपनी मौजूदगी बनाए रखी.

महाराष्ट्र में कांग्रेस ने 1995 से 1999 के बीच अपना सिर्फ 4 फीसदी वोट शेयर खोया. जबकि एनसीपी को 1999 में 22.6 फीसदी वोट शेयर मिला था.

महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी

दोनों पार्टियों को नुकसान के बजाय इस विभाजन से उनका फायदा ही हुआ. कांग्रेस और एनसीपी को अपना नया सपोर्ट बेस हासिल हुआ और दोनों ने अपने संबंधित वोट बैंक का विस्तार किया.

हालांकि कांग्रेस और एनसीपी का वोट शेयर साल 2014 में जरूर कम हुआ, लेकिन ये एंटी इनकंबेंसी के कारण था. मेघालय में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला. जहां कांग्रेस के वोट शेयर को एनसीपी ने काफी कम डैमेज किया और राज्य में पार्टी का अस्तित्व बना रहा.

मेघालय में कांग्रेस, एनसीपी और एनपीपी

मेघालय में एनसीपी छोड़कर पीए संगमा ने अपनी पार्टी एनपीपी बना ली. जिसके बाद कांग्रेस को ज्यादा नुकसान कभी नहीं हुआ. आज के दौर में कांग्रेस और एनपीपी राज्य की दो प्रमुख पार्टियां हैं.

वो विभाजन जिसका कांग्रेस को हुआ फायदा

ऐसा नहीं है कि हमेशा नेताओं की अलग पार्टी बनाने से कांग्रेस को नुकसान ही हुआ हो. ऐसे केस भी हैं जहां पर कांग्रेस को इसका फायदा भी हुआ है. छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की जनता कांग्रेस इसका एक बड़ा उदाहरण है. जो पिछले साल हुए चुनाव में दूसरे नंबर की पार्टी रही. भले ही अलग होकर बनी इस पार्टी को करीब 8 फीसदी वोट मिले हों और बीएसपी के साथ गठबंधन से इसने असर डालने की कोशिश की हो, लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस ने राज्य में भारी बहुमत के साथ सरकार बनाई.

छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के जाने से कांग्रेस को नहीं हुआ नुकसान

कुछ रिपोर्ट्स में ये भी बताया गया कि अजीत जोगी की पार्टी ने सतनामी समुदाय के वोटों को बांट दिया. अगर ऐसा नहीं होता तो ये सभी वोट बीजेपी को जा सकते थे.

वो नेता जो लौटकर आए

जैसा कि राजस्थान के कांग्रेस इंचार्ज ने कहा है कि सचिन पायलट के लिए पार्टी के दरवाजे अभी बंद नहीं हुए हैं. वैसे ही पार्टी ने पहले भी कई नेताओं के लिए दरवाजे फिर से खोले. कुछ नेता ऐसे भी थे, जिन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपनी नई पार्टी बनाई लेकिन फिर कुछ समय बाद लौट आए. इसमें वरिष्ठ नेता एके एंटनी, प्रणब मुखर्जी और अर्जुन सिंह जैसे बड़े नाम शामिल हैं. जो पार्टी छोड़कर तो गए, लेकिन फिर वापस आ गए.

कांग्रेस में वापसी करने वाले नेता

कांग्रेस में वापस आने वाले ज्यादातर नेता वो थे जिन्हें पार्टी के बाहर रहने में परेशानी हुई. इन नेताओं को ममता बनर्जी और जगनमोहन रेड्डी की तरह राज्य में वो लोकप्रियता हासिल नहीं हुई.

केरल के नेता करुणाकरण और एके एंटनी का कद काफी बड़ा था, लेकिन वो उसके मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाए. ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि केरल में कांग्रेस काडर की ताकत काफी मजबूत है.

यहां तक कि हरियाणा जैसे राज्य में भी हरियाणा विकास पार्टी के बंसी लाल और हरियाणा जनहित कांग्रेस बनाने वाले कुलदीप बिश्नोई ने आखिर में लौटकर कांग्रेस ज्वाइन की.

इसीलिए अब पायलट को इन सभी उदाहरणों को देखते हुए अपना फैसला लेना चाहिए. इसमें ध्यान देने वाली बात ये है कि ममता बनर्जी, जगनमोहन रेड्डी और नीफू रियो जैसे नेता, जिन्होंने अपनी नई पार्टी बनाई और सफल हुए वो सभी नॉर्थ इंडिया से बाहर के हैं. नॉर्थ इंडिया में ऐसा कोई भी बड़ा उदाहरण नहीं है, जिसने पार्टी से अलग होकर एक नई पहचान बनाई हो. इससे साफ है कि पायलट के लिए ये राह आसान नहीं होने वाली है.

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