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हार कर भी जीते हैं शशि थरूर-महत्वपूर्ण कहानी बयां करते हैं 1072 वोट

कांग्रेस प्रेसीडेंट चुनाव में किसने शशि थरूर को वोट दिया? उनके लिए आगे की राह कैसी होगी?

आदित्य मेनन
पॉलिटिक्स
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<div class="paragraphs"><p>हार कर भी जीते हैं शशि थरूर-महत्वपूर्ण कहानी बयां करते हैं 1072 वोट</p></div>
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हार कर भी जीते हैं शशि थरूर-महत्वपूर्ण कहानी बयां करते हैं 1072 वोट

(फोटो: क्विंट)

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हम इस पर पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना ऐतिहासिक क्यों है? और उनके अध्यक्ष पद से क्या उम्मीद की जा सकती है? लेकिन एक और पहलू है जिसकी इस चुनाव में जांच की जानी चाहिए वह यह है कि हारे हुए उम्मीदवार तिरुवनंतपुरम के सांसद शशि थरूर के लिए इस परिणाम के क्या मायने हैं?

हालांकि पहले ही यह निष्कर्ष निकाला जा चुका था कि उनकी हार तय है लेकिन यहां पर चार ऐसे पहलू हैं जिनको हमें अधिक बारीकी से देखने की जरूरत है :

  1. थरूर ने कैसा प्रदर्शन किया- अच्छा या खराब?

  2. जब लोग कहते हैं कि थरूर 'आधिकारिक' उम्मीदवार नहीं थे? तब इसके क्या मायने निकलते हैं?

  3. वास्तव में थरूर का समर्थन किसने किया और उनके वोट क्या प्रकट करते हैं?

  4. थरूर के लिए अब आगे क्या?

1. थरूर ने कैसा प्रदर्शन किया?

थरूर के पक्ष में 1072 प्रतिनिधियों (डेलीगेट्स) ने वोट दिया, जो कि कुल वैध मतों की संख्या का लगभग 12 प्रतिशत है. अगर पिछले दो चुनाव में हारने वाले उम्मीदवारों के प्रदर्शन से इसकी तुलना की जाए तो यह एक बेहतर आंकड़ा है.

  • 2000 के इलेक्शन में जितेंद्र प्रसाद महज 94 वोट ही साध सके थे जबकि सोनिया गांधी के पक्ष में 7448 वोट पड़े थे.

  • 1997 के चुनाव में सीताराम केसरी के 6224 वोट के मुकाबले शरद पवार को 882 और राजेश पायलट को 354 वोट मिले थे.

वोटों के प्रतिशत के लिहाज से थरूर ने पवार से थोड़ा बेहतर और निरपेक्ष रूप से काफी बेहतर प्रदर्शन किया है. इसके साथ ही थरूर ने सभी मामलों में पायलट और प्रसाद से काफी बेहतर प्रदर्शन किया है.

थरूर एक ऐसे नेता हैं जो महज पिछले 13 वर्षों से सक्रिय राजनीति में हैं और उसके पास कोई संगठनात्मक अनुभव नहीं है, उनके लिए यह आंकड़े श्रेयस्कर और प्रशंसनीय हैं कि उन्होंने अपने से काफी अनुभवी शरद पवार, राजेश पायलट और जितेंद्र प्रसाद जैसे दिग्गजों से बेहतर प्रदर्शन किया. पार्टी के भीतर भी दबदबे के मामले में जहां पवार या यहां तक ​​कि पायलट 1997 में थे, उसके आगे थरूर कहीं नहीं लगते हैं.

अपनी राज्य इकाई केरल या जी-23 (जिसका वह भी हिस्सा थे) का समर्थन न होने के बावजूद ऐसा करने में वे कामयाब रहे.

उनका कैंपेन "थिंक टुमॉरो, थिंक थरूर" आकर्षक था और तथ्य यह है कि उन्होंने एक घोषणापत्र भी जारी किया था, जो यह दर्शाता है कि पार्टी को लेकर उनके पास एक निश्चित दृष्टिकोण था.

क्या वह इससे बेहतर प्रदर्शन कर सकते थे? संभवतः कर सकते थे.

यह संभव है कि मीडिया और पार्टी के बाहर की राय पर बहुत ज्यादा फोकस करने का उल्टा असर हो सकता है, जिससे उनको नुकसान हुआ हो.

थरूर को ऐसे उम्मीदवार के रूप में देखा जाने लगा जिसे 'बाहरी लोग', खास तौर पर कांग्रेस विरोधी मीडिया हाउस का समर्थन प्राप्त है. हो सकता है कि इसने भी उनके खिलाफ काम किया हो.

लेकिन कुल मिलाकर, इस बात को नकारा नहीं किया जा सकता है कि थरूर ने पार्टी में कई लोगों की अपेक्षाओं से बढ़कर काम किया.

2. थरूर 'आधिकारिक' उम्मीदवार नहीं थे? वास्तव में इसके क्या मायने हैं?

खड़गे के 'आधिकारिक' उम्मीदवार होने और थरूर के नहीं होने के बारे काफी चर्चाएं हो रही हैं. लेकिन वास्तव में इसके क्या मायने हैं? कांग्रेस के आलोचकों और मीडिया के कुछ वर्गों द्वारा 'आधिकारिक' को 'गांधी परिवार द्वारा समर्थित' के तौर पर परिभाषित किया गया.

लेकिन, यह कांग्रेस की सरसरी या सतही समझ मात्र है.

भारत की सभी राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र लगभग न के बराबर है. यह किसी भी तरह से अमेरिकी प्राथमिक प्रणाली या ब्रिटेन में पार्टी के आंतरिक चुनावों के करीब नहीं है.

भारत में पार्टियों के भीतर व्यक्तियों और हित समूहों (इंट्रेस्ट ग्रुप्स) के बीच प्रतिस्पर्धा होती है, लेकिन इनमें से कोई भी आंतरिक चुनावों के माध्यम से नहीं होता है. यहां ज्यादातर गुटबाजी और आंतरिक धक्का-मुक्की के माध्यम से बातचीत की जाती है. कांग्रेस इसी ढांचे का अनुसरण करती है, हालांकि इस पार्टी ने पिछले 25 वर्षों में तीन चुनाव किए हैं.

कांग्रेस की प्रकृति को समझने के लिए 1997 और 2022 के चुनाव के बीच तुलना करना महत्वपूर्ण है.

1997 का चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसमें गांधी परिवार की कोई भूमिका नहीं थी. सोनिया गांधी ने तब तक राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया था. उस समय पार्टी के सबसे बड़े नेता पीवी नरसिम्हा राव थे. और जिस तरह से परिणाम सीताराम केसरी के पक्ष में गए तो वह किसी भूस्खलन से कम नहीं था.

जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की है कि केसरी के प्रतिद्वंद्वी ने थरूर की तुलना में बहुत खराब प्रदर्शन किया था.

यहां पर मुख्य बात यह है कि चाहे गांधी परिवार के हों या न हों, एक संरचना के तौर पर कांग्रेस एक निश्चित तरीके से व्यवहार करती है. इंट्रेस्ट ग्रुप एक ऐसे उम्मीदवार के चारों ओर जमा होते हैं जो उनके लिए सबसे सुविधाजनक होता है.

1997 और 2022 दोनों चुनाव में, इंट्रेस्ट ग्रुप एक विशेष उम्मीदवार के चारों ओर एकत्र हुए.

वास्तव में यह सुविधा के बारे में है न कि गांधी के प्रति वफादारी के बारे में. कांग्रेस के भीतर कई इंट्रेस्ट ग्रुप्स के लिए केसरी एक सुविधाजनक उम्मीदवार थे. कुछ के लिए यह नरसिम्हा राव के प्रति वफादारी के कारण हो सकता था, जबकि अन्य के लिए, यह शरद पवार जैसे किसी व्यक्ति को अत्यधिक पावर या सत्ता तक पहुंचने से रोकने के लिए हो सकता था.

खड़गे का चुनाव भी कुछ ऐसा ही है. उन्हें विभिन्न प्रकार के लोगों जैसे अधिकांश जी-23 सदस्य, राहुल गांधी के वफादार, सोनिया गांधी के वफादार, राज्यों के बड़े और प्रभावशाली नेताओं आदि का समर्थन प्राप्त था.

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उसी तरह राज्य में प्रतिद्वंद्वी गुटों, जैसे राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट, या छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंह देव, सभी ने खड़गे का समर्थन किया. उनमें से कईयों के लिए यह वास्तव में खड़गे के साथ अच्छे समीकरण का परिणाम था. वहीं कुछ लोगों, विशेष रूप से जी-23 में शामिल लोगों ने, थरूर के उनके पत्र के सह-हस्ताक्षरकर्ता होने के बावजूद, इस लड़ाई में शामिल नहीं होने का फैसला किया.

3. तो फिर थरूर का समर्थन किसने किया?

मोहसिना किदवई, केएल चिशी, कार्ति चिदंबरम, मोहम्मद जावेद, सैफुद्दीन सोज, सलमान सोज, प्रद्युत बोरदोलोई और संदीप दीक्षित जैसे नाम उन प्रमुख नेताओं में शामिल हैं जो थरूर का समर्थन करते हैं. उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो पार्टी में किसी भी बड़े निर्णय लेने वाले निकाय में शामिल हो. थरूर को काफी समर्थन उन प्रतिनिधियों से मिला जो अखिल भारतीय पेशेवर कांग्रेस से भी जुड़े थे. थरूर इसके (अखिल भारतीय पेशेवर कांग्रेस) प्रमुख थे.

खड़गे और थरूर को राज्यवार कितने वोट मिले, इसकी जानकारी कांग्रेस की ओर से जारी नहीं की गई है. लेकिन उन 60 प्रतिनिधियों की सूची में से जिन्होंने थरूर का नामांकन प्रस्तावित किया था उससे हमें इस बात का संकेत मिल सकता है कि थरूर ने अपेक्षाकृत कहां बेहतर प्रदर्शन किया है.

थरूर को जिन्होंने नामित किया उन प्रतिनिधियों का राज्यवार विवरण इस तरह है:

  • केरल: 13

  • जम्मू और कश्मीर: 10 (सभी घाटी से)

  • नागालैंड: 10

  • उत्तर प्रदेश: 9

  • तमिलनाडु: 7

  • उत्तराखंड: 4

  • दिल्ली: 2

  • असम: 1

  • झारखंड: 1

  • पंजाब: 1

  • पश्चिम बंगाल: 1

  • बिहार: 1

अगर केरल जो थरूर का गृह राज्य है उसको अलग कर दे, तो शेष प्रतिनिधियों में से लगभग 90 फीसदी ऐसे राज्यों से आते हैं, जहां कांग्रेस 2014 के बाद से अपने दम पर सत्ता में नहीं है.

ऐसा प्रतीत होता है कि थरूर को उन राज्यों में कम समर्थन मिला है जहां कांग्रेस या तो सत्ता में है या मुख्य विपक्षी पार्टी है : जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, असम आदि.

जिन राज्यों में कांग्रेस मामूली खिलाड़ी है या किसी क्षेत्रीय दल की छोटी सहयोगी है, वहां थरूर ने बेहतर प्रदर्शन किया. इसमें कोई चौंकाने वाली बात नहीं है क्योंकि ऐसी जगहों पर कांग्रेसियों में 'बदलाव' या यथास्थिति को हिलाकर रख देने की इच्छा सबसे अधिक हो सकती है.

4. थरूर के लिए आगे क्या?

भले ही थरूर ने एक आंतरिक पत्र में उत्तर प्रदेश की मतदान प्रक्रिया में कुछ अनियमितताओं का आरोप लगाया हो, लेकिन परिणामों के आने के बाद उन्होंने खड़गे की जीत को "पार्टी की जीत" बताया.

यह बात तो स्पष्ट है कि कांग्रेस के भीतर थरूर खुद के लिए काफी भविष्य देखते हैं. ईमानदारी से कहें तो, बीजेपी और सीपीआई-एम भी ऐसी पार्टियां नहीं हैं जिनके साथ वह वैचारिक रूप से अनुकूल हैं और इन तीनों पार्टियों में से किसी एक का हिस्सा बने बिना तिरुवनंतपुरम को बरकरार रखना उनके लिए आसान नहीं होगा.

1000 से अधिक प्रतिनिधियों के वोट हासिल करके, थरूर ने अपनी बात साबित कर दी है कि पार्टी के भीतर बदलाव के लिए एक निर्वाचन क्षेत्र है. 1072 सिर्फ प्रतिनिधियों की संख्या है. पार्टी वर्कर्स और वॉलेंटियर्स के बीच यह संभव है कि इससे भी बड़ा हिस्सा ऐसा हो जो यथास्थिति के साथ-साथ युवा नेतृत्व में बदलाव चाहता हो.

किसी तरह से एकता का संदेश देने और इस वर्ग को अलग-थलग होने से बचने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे, थरूर को अनुकूल स्थान दे सकते हैं. कांग्रेस कार्यसमिति के हिस्से के तौर पर वह स्थान या पद एक पदाधिकारी के रूप में या लोकसभा में नेता या उपनेता के रूप में हो सकता है.

हार के बावजूद, इस चुनाव से थरूर वास्तव में एक बढ़ी हुई प्रोफाइल के साथ निकलकर आ आए हैं.

जी -23 के कुछ सदस्य जो पहले सार्वजनिक रूप से पार्टी की आलोचना कर रहे थे लेकिन फिर भी चुनाव में खड़गे का पक्ष लिया और उनका समर्थन किया, उन जी-23 सदस्यों के विपरीत थरूर सीधे तौर पर खेले और अपनी महत्वाकांक्षाओं के बारे में खुले सामने आए. इसके अलावा उन्होंने खुद को 'मुद्दों पर आधारित आलोचक' के तौर पर प्रस्तुत किया, न कि किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में जो पार्टी को नुकसान पहुंचाने के लिए तैयार है.

यह थरूर के करियर में एक दिलचस्प नए चरण की शुरुआत हो सकती है, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि पार्टी का नया नेतृत्व क्या करता है और सांसद थरूर खुद अपने पत्ते कैसे खेलते हैं.

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