"कुछ लड़ाइयां हम इसलिए भी लड़ते हैं कि इतिहास याद रख सके कि वर्तमान मूक न था."
कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव (Congress President Election) के दिन शशि थरूर (Shashi Tharoor) ने ये ट्वीट किया था. तब उनके इस ट्वीट के कई मायने निकाले जा रहे थे. लेकिन आज इस ट्वीट का एक ही मतलब है. भले ही शशि थरूर कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव हार गए हों, लेकिन उनका नाम हमेशा के लिए कांग्रेस और भारतीय राजनीति के इतिहास में दर्ज हो गया है. थरूर ने अध्यक्ष पद का चुनाव लड़कर कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करने का काम किया है. इसके साथ ही उन्होंने चुनाव लड़कर खुद को उन कांग्रेस नेताओं की पहली पंक्ति में शामिल कर लिया है, जो पार्टी में बदलाव चाहते थे.
चलिए आपको बताते हैं कि कैसे मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने थरूर हार गए. 5 प्वांइट में समझिए हार की असली वजह.
1. शशि थरूर गांधी परिवार के करीबियों में से नहीं
शशि थरूर के कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने पर कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सहमति दी थी. लेकिन थरूर कभी भी गांधी परिवार के पसंदीदा उम्मीदवार नहीं दिखे. गाधी परिवार के करीबियों की सूची में थरूर कभी भी शामिल नहीं हो पाए. जिनमें मल्लिकार्जुन खड़गे, अशोक गहलोत, अजय माकन, अधीर रंजन चौधरी जैसे नेताओं का नाम है.
शशि थरूर को कांग्रेस के विद्रोही गुट G-23 का सदस्य भी माना जाता है, जिसका नेतृत्व कभी गुलाम नबी आजाद किया करते थे. ये भी एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से उन्हें सोनिया और राहुल का समर्थन नहीं मिल सका. बता दें कि, G-23 गुट समय-समय पर आलाकमान के फैसलों पर सवाल उठाता रहा है.
2. संगठन में खड़गे जैसी पकड़ नहीं
शशि थरूर की कांग्रेस संगठन में पकड़ अच्छी नहीं है. यह भी उनके हार की एक बड़ी वजह है. चुनाव ऐलान के समय से ही थरूर को विरोध का सामना करना पड़ा था. कई नेताओं ने उनकी उम्मीदवारी पर सवाल उठाए थे. तो वहीं पार्टी की केरल यूनिट ने एक प्रस्ताव पास किया था कि वो उस उम्मीदवार का समर्थन करेंगे जिसे पार्टी का हाईकमान समर्थन दे रहा हो.
केरल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के. सुधाकरन ने चुनाव से पहले ही सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की थी कि वह थरूर के प्रतिद्वंद्वी मल्लिकार्जुन खड़गे का समर्थन करेंगे.
संगठन में कमजोड़ पकड़ के कारण ही थरूर कभी कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य नहीं बन पाए. वहीं विवादों की वजह से उन्हें मनमोहन सरकार में अपने मंत्री पद से भी इस्तीफा देना पड़ा था.
3. राजनीतिक अनुभव की कमी
शशि थरूर राजनीतिक अनुभव में भी मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने कहीं नहीं टिकते हैं. एक तरफ खड़गे के पास 5 दशक का राजनीतिक अनुभव है तो वहीं दूसरी तरफ थरूर के पास एक्टिव पॉलिटिक्स का महज 13 सालों का अनुभव है. 66 साल के शशि थरूर ने साल 2009 में कांग्रेस का दामन थामा और तब से लगातार चुनाव जीत रहे हैं और तीसरी बार तिरुवनंतपुर से सांसद है. लेकिन लोकसभा चुनावों में जीत के करिश्मे को थरूर कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में नहीं दोहरा पाए.
मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने थरूर राजनीतिक रूप से भी कम परिपक्व माने जाते हैं. यह भी एक वजह रही की उन्हें हार का सामना करना पड़ा और पार्टी नेता उनपर भरोसा नहीं जता सके.
4. सोशल मीडिया पर एक्टिव लेकिन जमीन पर पकड़ कम
शशि थरूर की पहचान एक 'एलीट' (Elite) नेता के रूप में है. वो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं. बड़ी-बड़ी पार्टियों में नजर आते हैं. सोशल मीडिया पर एक्टिव रहते है. लेकिन जमीन पर उनकी पकड़ कमजोर मानी जाती है. भले ही उन्होंने तिरुवनंतपुरम सीट से जीत की हैट्रिक लगाई हो, लेकिन उन्हें एक जमीनी नेता के तौर पर नहीं देखा जाता है. उनकी एक ऐसी पहचान बन गई है जो उन्हें दूसरे नेताओं से अलग करती है. शायद इस बात का खामियाजा भी उन्हें अध्यक्ष पद के चुनाव में भुगतना पड़ा हो.
5. हिंदी बेल्ट के नेताओं में थरूर से ज्यादा खड़गे की स्वीकार्यता
शशि शरूर और मल्लिकार्जुन खड़गे दोनों ही साउथ से आते हैं. एक केरल से सांसद हैं तो दूसरे कर्नाटक से राज्यसभा सांसद हैं. दोनों ही नेता हिंदी बेल्ट के नहीं है. लेकिन स्वीकार्यता की बात करें तो खड़गे थरूर पर बीस साबित होते हैं.
खड़गे की स्वीकार्यता का सबड़े बड़ा कारण है कि वह कांग्रेस के वफादार सिपाहियों में से एक हैं. सीनियर नेता होने की वजह से पार्टी के लोग उन्हें आदर भाव से देखते हैं. लेकिन थरूर के साथ ऐसा नहीं है. उनकी छवि एक मुखर नेता की है. जो अपने बयानों और ट्वीट को लेकर हमेशा चर्चा में रहते हैं.
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