Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Videos Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019मल्लिकार्जुन खड़गे की जीत के 7 मायनेः दलित-दक्षिण पर फोकस, परिवारवाद की काट

मल्लिकार्जुन खड़गे की जीत के 7 मायनेः दलित-दक्षिण पर फोकस, परिवारवाद की काट

Mallikarjun Kharge की जीत से साथ कांग्रेस को लगभग 24 साल बाद गांधी परिवार के बाहर अपना अध्यक्ष मिला

विकास कुमार & आशुतोष कुमार सिंह
वीडियो
Published:
<div class="paragraphs"><p>कांग्रेस को मिला परिवारवाद के आरोपों का काट? Mallikarjun Kharge की जीत के 7 मायने</p></div>
i

कांग्रेस को मिला परिवारवाद के आरोपों का काट? Mallikarjun Kharge की जीत के 7 मायने

(फोटो- पीटीआई)

advertisement

Congress President Election: कांग्रेस को लगभग 24 साल बाद गांधी परिवार के बाहर अपना पार्टी अध्यक्ष मिल गया है. मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 98वां अध्यक्ष चुना गया है. खड़गे ने अपने साथी प्रतिद्वंदी शशि थरूर (Shashi Tharoor) को बड़े अंतर से पीछे छोड़ा है और कुल वोट का 84.14% अपने पाले में किया है. 80 वर्षीय खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना कई मामलों में ऐतिहासिक है- बात चाहे 5 दशक बाद दलित कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की हो या दक्षिण भारत से आने वाले किसी नेता के छठी बार कांग्रेस के सिरमौर बनने की.

ऐसे में हम आसान भाषा में जानने की कोशिश करते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव की इस पूरी प्रक्रिया और नतीजों से पार्टी और गांधी परिवार के लिए क्या मायने निकलते हैं.

1. शशि थरूर का प्रदर्शन बताता है, पार्टी का एक गुट अभी भी गांधी परिवार के खिलाफ

प्रदेश कांग्रेस कमेटी (पीसीसी) के प्रतिनिधियों के वैध वोटों में से खड़गे 7,897 (84.14%) जीते हैं जबकि शशि थरूर के पाले में 1,072 (11.4%) वोट आए हैं. यह सही है कि इस आकंड़े को देखकर मालूम होता है कि खड़गे की जीत ब्लॉकबस्टर से कम नहीं है, लेकिन थरूर का 1,000 वोटों का आंकड़ा पार करने में सफल रहना भी पार्टी में कई नेताओं को आश्चर्य में डाल गया होगा.

शशि थरूर पार्टी के अंदर संगठनात्मक स्तर पर बड़े बदलाव की मांग करने वाले बागी गुट, G-23 के सदस्य रहे हैं और उनके विपरीत खड़गे को गांधी परिवार का विश्वासपात्र माना जाता है. पूरे चुनाव के बीच मल्लिकार्जुन खड़गे को गांधी परिवार का 'अनौपचारिक आधिकारिक उम्मीदवार' माना गया. ऐसे में शशि थरूर को मिले वोट बताते हैं कि पार्टी के अंदर के योग्य मतदाताओं में 11% से अधिक लोग गांधी परिवार की कार्यशैली के खिलाफ हैं.

2. कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए लोकतांत्रिक चुनाव से दूसरी पार्टियों पर भी ऐसा करने का दबाव बनेगा

कांग्रेस को बीजेपी समेत कई विरोधी दल इस बात पर घेरते रहे हैं कि यहां सिर्फ गांधी परिवार की चलती है और किसी भी मुद्दे पर आखिरी सहमति परिवार का ही सदस्य देता है. भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे की छवि गांधी परिवार के विश्वासपात्र की है, उनके चुने जाने की प्रक्रिया लोकतांत्रिक रही है.

लेफ्ट की पार्टियां अपने नेता का चुनाव करने के लिए हर तीन साल में नियमित पार्टी की बैठक का आयोजन करती हैं, लेकिन दूसरी पार्टियां ऐसे लोकतांत्रिक चुनाव का दावा नहीं कर सकतीं. दूसरी पार्टियां (अब तक कांग्रेस में भी) "चुने हुए" को अध्यक्ष पद पर स्थापित करने की प्रक्रिया की औपचारिकता का पालन करती हैं.

अब अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए कांग्रेस पार्टी ने जो प्रक्रिया अपनाई है, उससे दूसरी पार्टियों पर भी ऐसे ही अध्यक्ष चुनाव करने का दबाव बनेगा.

3. कांग्रेस पर लगने वाले परिवारवाद के आरोपों की काट मिल गई?

कांग्रेस पर परिवारवाद का सबसे ज्यादा आरोप लगा है, और इसे साबित करने के लिए विरोधी अब तक पार्टी अध्यक्ष पद पर परिवार की पकड़ के आंकड़ों को पेश करते हैं. 1992 और 1998 के बीच की अवधि को छोड़कर (जब पी.वी. नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी शीर्ष पद पर थे) पार्टी के अध्यक्ष पद पर 1978 से गांधी परिवार के ही किसी एक सदस्य का कब्जा रहा. दरअसल, कांग्रेस के लगभग 137 साल पुराने इतिहास में अध्यक्ष पद के लिए आजतक सिर्फ 6 बार चुनाव हुए हैं- 1939, 1950, 1977, 1977, 2000 और 2022.

लेकिन अब 24 साल बाद परिवार के बाहर मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने से पार्टी के पास परिवारवाद के इस आरोप का मुकाबला करने का काट आ गया है- लेकिन पार्टी इसमें कितना सफल होगी, ये तो वक्त ही बताएगा.

4.  कांग्रेस में सत्ता का विकेंद्रीकरण

भले ही पहले अशोक गहलोत और उनकी बगावत के बाद खड़गे को गांधी परिवार की पसंद बताया गया हो, पार्टी अध्यक्ष के चुनाव में गांधी परिवार कम से कम परदे के सामने तो दूर बना रहा. राहुल नेताओं और कार्यकर्ताओं के लाख सार्वजनिक अपील के बावजूद अध्यक्ष बनने से इनकार करते रहे. अब कि जब खड़गे अध्यक्ष बन गए हैं, यह दिखाता है कि कांग्रेस में सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ है.

इसका एक और उदाहरण इस चुनावी प्रक्रिया के बीच दिखा. राजस्थान में पायलट को कुर्सी सौंपने के मुद्दे पर गहलोत खेमे ने बगावत की और गांधी परिवार के पहली पंसद होने के बावजूद गहलोत अध्यक्ष पद की रेस से बाहर हो गए. लोगों को उम्मीद थी कि गहलोत के खिलाफ एक्शन लिया जायेगा और पायलट से किया कुर्सी का वादा गांधी परिवार पूरा करेगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और सिर्फ गहलोत खेमे के कुछ नेताओं के खिलाफ एक्शन लिया गया, वह भी सिर्फ औपचारिकता भर.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

5. हिंदी बेल्ट से अधिक दक्षिण के राज्यों पर कांग्रेस का फोकस

उत्तर भारत में बीजेपी की लोकप्रियता और पीएम मोदी के बढ़ते कद के बाद कांग्रेस साउथ को एक मौके के तौर पर देख रही है. मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना उसी दिशा में एक कदम साबित हो सकता है. गहलोत के पीछे हटने के बाद पार्टी आलाकमान दिग्विजय सिंह के नाम के साथ नहीं गया बल्कि साउथ से ‘अजातशत्रु’ को उम्मीदवार बनाया गया.

अभी गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने हैं, उसके बाद 2023 की शुरुआत में त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में चुनाव होंगे. लेकिन पार्टी अध्यक्ष के रूप में खड़गे की असली परीक्षा 2023 की गर्मियों में होगी, जब उनके अपने गढ़ कर्नाटक में चुनाव होंगे.

क्विंट के पॉलिटिकल एडिटर आदित्य मेनन लिखते हैं कि कर्नाटक को जीतना कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां सरकार बनाने से उसे 2024 के लोकसभा चुनावों में वित्तीय रूप से काफी मदद मिलेगी.

6. कांग्रेस फिर से दलित वोटर्स के बीच पकड़ बनाना चाहती है

बात चाहे इंदिरा गांधी के दौर की हो या मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकारों की- कांग्रेस को सत्ता में रखने में दलित वोटों का अहम योगदान रहा है. एक जमाने में दलित कांग्रेस का सबसे पक्का वोट बैंक माना जाता था लेकिन पिछले कुछ चुनाव के नतीजे बताते हैं कि यह वोट पार्टी से छिटका है. अब पार्टी मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे कद्दावर दलित नेता को अध्यक्ष पद सौंपकर इस समूह को बड़ा मैसेज देने की कोशिश कर रही. माना जा रहा है कि बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाकर जो पत्ता फेंका है, मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष बनकर कांग्रेस को उसकी काट निकालने में मदद कर सकते हैं.

7. पार्टी के कामकाज में यथास्थिति बनी रहेगी

शशि थरूर के विपरीत मल्लिकार्जुन खड़गे ने कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के अपने कैंपेन के दौरान कोई घोषणापत्र जारी नहीं किया और कहा कि इस साल की शुरुआत में आयोजित कांग्रेस चिंतन शिविर में तैयार उदयपुर घोषणा ही उनका घोषणापत्र है. यह इस बात का संकेत था कि संगठनात्मक मामलों में काफी हद तक यथास्थिति बने रहने की संभावना है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT