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नवंबर 2009 में, उस्मानिया यूनिवर्सिटी (Osmania University students) के युवा छात्रों की भारी भीड़ ने यूनिवर्सिटी के ऐतिहासिक कॉलेज ऑफ आर्ट्स से एनसीसी गेट तक मार्च किया. जब राज्य की पुलिस ने उन पर आंसू गैस के गोले छोड़े तो उन्होंने 'तेलंगानाकु अडेवारु?' (तेलंगाना के खिलाफ कौन है) के नारे लगाते हुए मार्च किया. उस समय राज्य में तेलंगाना को राज्य का दर्जा दिलाने के लिए फिर से आंदोलन हो रहे थे और राज्य समर्थक तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) के सूझ-बूझ भरे नेता के चंद्रशेखर राव (KCR) ने पहले ही अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू कर दी थी.
11 दिनों की लंबी हड़ताल का नतीजा यह निकला कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) और उसकी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार (UPA सरकार) को तेलंगाना को राज्य का दर्जा देने के लिए मानना पड़ा. हालांकि लंबे विरोध के बाद राज्य का गठन 2014 में हुआ, इस दौरान राव और उनकी टीआरएस जमीनी आंदोलनों के नजदीक से जुड़े रहे और लगातार राजनीतिक समर्थन हासिल किया.
राज्य के लिए चलाया गया आंदोलन अब एक पुरानी बात हो चुकी है, जो कि तेलंगाना के दो बार के मुख्यमंत्री के उग्र भाषणों के दौरान निकल ही आती है. लेकिन चूंकि अब राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखते हुए उन्होंने अपनी राष्ट्रीय पार्टी लॉन्च कर दी है. ऐसे में जिस तरह से उन्होंने संघर्ष को संभाला है, वह केसीआर के काम आ सकता है. वह जन आंदोलनों और लोकतांत्रिक सरोकारों के काफी करीब से जुड़े रहे है, जिन्हें अक्सर वैचारिक रूप से जुड़े हुए होते हैं.
27 अप्रैल को हैदराबाद में टीआरएस का स्थापना दिवस समारोह आयोजित किया गया था, यह समारोह काफी उल्लासपूर्ण था, यहां अधिकांश नेता यह कह रहे थे कि भारतीय राजनीति को जिस विकल्प की जरूरत है वह केसीआर हैं. इस कार्यक्रम में करीब सभी वक्ताओं ने बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर जमकर हमला बोलते हुए आलोचना की थी.
उन वक्ताओं में सबसे तीखा हमला केसीआर के बेटे के टी रामा राव का था, जो आईटी मंत्री होने के साथ-साथ टीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गढ़े हुए शब्द बदल गए हैं, 'सबका विकास' बदलकर 'सबमें विद्वेश' हो गया, उनका 'मेक इन इंडिया' का नारा 'बेचो इंडिया' में बदल गया है.
हालांकि, केसीआर ने अपना संयम बनाए रखा क्योंकि उन्होंने विकास के तेलंगाना मॉडल (अपनी लिफ्ट सिंचाई परियोजनाओं, सामाजिक समावेशन नीतियों और चौबीसों घंटे बिजली की उपलब्धता) को गुजरात मॉडल के विकल्प के तौर पर रखा. गुजरात मॉडल ने यकीनन, मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री पद से प्रधान मंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया था.
राष्ट्रीय राजनीति में उतरेंगे का संकेत केसीआर ने यह कहते हुए दिया था कि भारतीय राष्ट्र समिति बनाने का सुझाव आया है. उन्होंने कहा था कि 'अगर इस तरह का नया एजेंडा हैदराबाद से शुरू होकर देश के बाकी हिस्सों में फैलता है तो यह हमारे लिए गर्व की बात होगी."
तेलंगाना आंदोलन जब अपने चरम पर था, उस दौरान आंध्र क्षेत्र के तेलंगाना के लोगों के 'उत्पीड़न' के खिलाफ तीखे भाषणों के लिए टीआरएस सुप्रीमो को जाना जाता था. उनका एक प्रसिद्ध वाक्य था 'तेलंगाना वाले जागो, आंध्र वाले भागो', इस नारे ने खूब जोर पकड़ा था.
स्थापना दिवस में प्रधानमंत्री और बीजेपी शासित राज्यों में राजनीति का जोरदार विरोध हुआ.
उन्होंने कहा था कि गांधी के हत्यारों की पूजा करने वाला एक वर्ग फल-फूल रहा है. कर्नाटक में बीजेपी शासन का जिक्र करते हुए, उन्होंने 'हिजाब और हलाल' की राजनीति के खिलाफ चेतावनी दी. नई दिल्ली में धार्मिक जुलूसों में बंदूक और तलवार लहराए जाने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, "ऐसी जगह पर कौन जाना चाहेगा?"
केसीआर मौके पर थे. पहले उन्होंने अपने भाषण में कहा कि "लोगों का एजेंडा" जरूरी है. इसके बाद जैसे ही उन्होंने कहा कि "बात यह नहीं है कि मोदी को नीचे लाया जाए और उनकी जगह येलैया या मल्लैया (टॉम, डिक और हैरी का तेलुगु वर्जन) को अगले प्रधानमंत्री के रूप में बदल दिया जाए." वैसे ही भीड़ ने सीटी बजाई और 'जय तेलंगाना' के नारे लगाए.
यह एक गुप्त राजनीतिक रणनीति थी, जहां एक आम लक्ष्य के लिए सामूहिक संघर्ष की जरूरत की पहचान करते हुए, एक संभावित उभरते दुश्मन के खिलाफ सीधे तेलंगाना संघर्ष से एक राजनीतिक मोर्चा तैनात है.
हाल ही में चुनाव प्रचार के दौरान टीआरएस ने अपने लोगों से दिल्ली पार्टी कवाला, गली पार्टी कवाला से पूछा था? (क्या आप नई दिल्ली से पार्टी चाहते हैं या स्थानीय गली से पार्टी चाहते हैं?). प्रचार की यह लाइन रोष में बदल गई.
केसीआर के पास तेलंगाना आंदोलन के नेतृत्व करने का जो अनुभव है, वह उनके राजनीतिक सफर के दौरान उनकी मदद कर सकता है. वह राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में तेलंगाना के लचीलेपन (कठिनाईयों से तुरंत उबरने) और किसी भी स्थिति का मुकाबला करने के जुझारूपन को सामने लाते हैं.
अन्य क्षेत्रीय खिलाड़ियों की तरह उनकी राजनीति वैचारिक रूप से बंधी हुई नहीं है, बल्कि वे पावरफुल हैं.
बीजेपी विरोधी राजनीति को वो आकर्षक बना सकते थे.
हालांकि, उन्हें जमीनी स्तर के संगठनों और नेताओं के नजदीक रहना होगा, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने टी-आंदोलन के दौरान अपनी छाप छोड़ने के लिए किया था.
2024 के लोकसभा चुनाव से पहले क्षेत्रीय खिलाड़ियों के समूह और उनके संभावित गठबंधन में केसीआर कैसे योगदान दे सकते हैं?
तेलंगाना में जिस तरह से बीजेपी का दबदबा बढ़ रहा है उससे कुछ हद तक टीआरएस परेशान है. 2019 आम चुनाव में बीजेपी ने 17 लोकसभा सीटों में से चार पर जीत हासिल करते हुए टीआरएस पार्टी का सीट शेयर कम दिया था. टीआरएस केवल नौ सीटों में कामयाब रही, लेकिन ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) का समर्थन बरकरार रखा और इसकी एक सीट हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी ने जीती. बीजेपी ने शहरी स्थानीय निकाय चुनावों में भी मैदान मारते हुए 40 से अधिक ब्लॉकों में जीत हासिल करते हुए प्रगति की है.
पार्टी भले ही राज्य से धर्म को अलग करने वाली धर्मनिरपेक्ष राजनीति की भाषा या बयानबाजी का इस्तेमाल न करें, लेकिन वह चिन्ना जीयर जैसे संतों का समर्थन करती रही है, जो पीएम मोदी के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखते हैं. टीआरएस स्थापना दिवस में केसीआर ने कहा था कि "टीआरएस तेलंगाना को श्री राम चंद्र रक्षा (भगवान राम की सुरक्षा) प्रदान कर रही है."
लेकिन केसीआर तेलंगाना के लचीलेपन (कठिनाईयों से तुरंत उबरने) और किसी भी स्थिति का मुकाबला करने के जुझारूपन को अपनी आक्रामक बयानबाजी में लेकर आते हैं और उसे उन क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के समूह से जोड़ते हैं, जो बीजेपी का विरोध करते रहे हैं. वह एक राजनीतिक शख्सियत हैं, जो अपने सीधे-सादे, लेकिन शक्तिशाली बयानों से देश के शांत बहुमत के लिए बीजेपी विरोधी राजनीति को आकर्षक बना सकते हैं.
हालांकि स्थापना दिवस में ऐसा लग रहा था कि मुख्यमंत्री ने अपनी राजनीति की अपील को भुनाने के लिए 'संघीय मोर्चे' की बात को खारिज कर दिया था. स्थापना दिवस में वे 'संघीय मोर्चे' से एक कदम पीछे हट गए. 2019 के आम चुनावों से पहले उन्होंने "संघीय मोर्चे" का सुझाव दिया था, जिसमें उन्होंने यह कहा था कि देश को राजनीतिक पुनर्गठन या पुनर्गठन की आवश्यकता नहीं है. लोगों के लिए एक "दूरदर्शी एजेंडे" की जरूरत है. उन्होंने कहा कि भारत को एक नई कृषि, आर्थिक और औद्योगिक नीति की जरूरत है.
भारत के विकास की बड़ी समस्या की बात करते हुए उन्होंने इस ओर इशारा किया कि बीजेपी दुश्मन है. चालाकी से खेला?
हालांकि केसीआर को भारत में समान विचारधारा वाले दलों के साथ संबंध फिर से स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि बीजेपी के खिलाफ वे अपने राजनीतिक रुख को और मजबूत कर सकें. तेलंगाना आंदोलन के दौरान उन्होंने जिन जमीनी संगठनों के साथ काम किया था, उनके साथ फिर से संबंध स्थापित करना चाहिए और राज्य की सीमाओं से परे भी उन्हें इस तरह कुछ करने की कोशिश करनी चाहिए.
तेलंगाना आंदोलन के दौरान यह एक आम धारणा थी कि अगर कोई भी तेलंगाना के लिए केसीआर की मांग और राज्य में सत्ता हासिल करने की उनकी इच्छा के अनुकूल है तो केसीआर बीजेपी से लेकर कांग्रेस और यहां तक कि माओवादियों तक किसी के भी साथ गठबंधन कर लेंगे. पार्टी लाइनों को तोड़कर वह बुद्धिजीवियों, सांस्कृतिक हस्तियों और सरकारी कर्मचारियों का समर्थन इकट्ठा कर सकते थे, तेलंगाना राज्य की प्राप्ति के लिए सभी एक आम भावना से एकजुट थे.
केसीआर के बेटे और टीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष के टी रामाराव ने एक टीवी चैनल के साक्षात्कार में टीआरएस की राजनीतिक यात्रा के बारे में कहा था कि "टीआरएस आंदोलन के लिए बनाई गई एक पार्टी थी जो बदलकर विधायी पार्टी हो गई है. राजनीति में किसी भी संसदीय दल ने जो किया होगा, हम वही कर रहे हैं."
लेकिन अब जब राष्ट्रीय पार्टी लॉन्च हो गई है, तो पार्टी को अपनी राजनीतिक व्यावहारिकता को फिर से हासिल करना चाहिए जो हमेशा जमीनी स्तर के आदर्शवाद से लाभान्वित होती है.
टीआरएस ने तेलंगाना में अधिकांश जन आंदोलनों का समर्थन नहीं किया है. 2020 में जब तेलंगाना राज्य सड़क परिवहन निगम (TSRTC) के कर्मचारी हड़ताल पर गए थे, तब पार्टी ने मौजूदा यूनियनों को तोड़कर इसे कुचल दिया था. यह विडंबना ही है कि जिस पार्टी ने हैदराबाद के धरना चौक पर कई बार धरना दिया, वह भी लोकतांत्रिक विरोध के लिए नामित इस सार्वजनिक स्थान को बंद करना चाहती थी. सत्तारूढ़ दल ने 2021 में कई गैर सरकारी संगठनों को माओवादी संगठनों के लिए मोर्चा कहते हुए उन पर नकेल कसी थी.
केसीआर के लिए यह सही समय है कि वे गुडविल बढ़ाने के लिए तेलंगाना के बौद्धिक अभिजात वर्ग का विश्वास फिर से हासिल करें. तेलंगाना की गाथा गाने वालों के लिए सड़कों पर एक बार फिर विरोध करने का सही समय आ गया है. कुछ हद तक केसीआर इस बात से वाकिफ हैं.
पिछले कुछ महीनों से केसीआर केंद्र की धान खरीद नीति को लेकर संघर्ष के रास्ते पर हैं. राज्य सभी किसानों से धान खरीद रहा है और न्यूनतम समर्थन मूल्य के अनुरूप दरों का भुगतान कर रहा है. वहीं केसीआर इस बात का दावा कर रहे हैं कि केंद्र राज्य से एकत्रित धान की खरीद नहीं करना चाहता है.
केसीआर अपने राष्ट्रीय राजनीतिक अभियान के क्रम में तेलंगाना को टिकैत जैसे विरोधियों के लिए एक बैठक स्थान में बदल सकते थे. ऐसा प्रतीत होता है कि उनके बेटे केटीआर ने बेंगलुरु में बीजेपी सरकार और उसकी पुलिस को ललकारने के लिए स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा और मुनव्वर फारूकी को हैदराबाद में आमंत्रित करके पहले ही शुरुआत कर दी है.
क्या "जनता के एजेंडे" का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों को भी इसी तरह के निमंत्रण मिल सकते हैं? हाल ही में, दक्षिण में टीआरएस सहित क्षेत्रीय दलों के गैर-बीजेपी मुख्यमंत्रियों के बीच हुई बैठकों में तेजी आई है. इसके अलावा, केसीआर ने कांग्रेस पर अपना रुख नरम कर लिया है और अब कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए विकल्प की मांग नहीं कर रहे हैं.
क्या राष्ट्रीय राजनीति में केसीआर एक बड़ा नाम हो सकता है? अगर वह अपने पत्ते अच्छी तरह से खेलते है तो यह हो सकता है.
टीआरएस स्थापना दिवस में दिए गए अपने भाषण में केसीआर ने मुद्रास्फीति और ईंधन की कीमतों पर लगाम लगाने के लिए केंद्र की अक्षमता पर हमला करते हुए पहले ही अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए मंच तैयार कर लिया था. उन्होंने भारतीय संघ में राज्यों की भूमिका पर जोर दिया था और कहा था कि केंद्र द्वारा राज्यपालों का इस्तेमाल निर्वाचित राज्य सरकारों को काम करने से रोकने के लिए किया जा रहा है.
उन्होंने कहा था कि, "प्रासंगिक मुद्दों से निपटने के बजाय, बीजेपी ध्यान हटाने के लिए पुलवामा, सर्जिकल स्ट्राइक और कश्मीर फाइलों का इस्तेमाल कर रही है."
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