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यूपी पंचायत चुनाव अगर विधानसभा चुनाव के सेमीफाइनल हैं तो बीजेपी के लिए संकेत सही नहीं हैं. राज्य की 3,050 जिला पंचायत सीटों में से ज्यादातर के नतीजे सामने आ गए हैं. विधानसभा, लोकसभा में प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली बीजेपी पूरे प्रदेश में समाजवादी पार्टी से पिछड़ती दिख रही है. बीएसपी तीसरे नंबर पर दिखती है तो वहीं आरएलडी को पश्चिमी यूपी में बड़ा फायदा दिख रहा है. किसान आंदोलन पार्टी के लिए संजीवनी की तरह काम कर रहा है. प्रदेश में एसपी-आरएलडी गठबंधन में हैं, ऐसे में दोनों ही मजबूत नजर आ रहे हैं. कांग्रेस का यहां भी बुरा हाल दिख रहा है.
आंकड़ों की बात से पहले जान लीजिए कि पंचायत चुनाव में पार्टियों के सिंबल पर चुनाव नहीं होते, पार्टियां अलग-अलग उम्मीदवारों को समर्थन देती हैं और इसी के आधार पर जीत हार का दावा भी किया जाता है. इन चुनावों में निर्दलीयों का भी दबदबा होता है और अब कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियां आरोप लगाने लगी हैं कि दूसरी पार्टियां निर्दलियों को भी अपना प्रत्याशी बता रहे हैं. सबसे ज्यादा सीटें निर्दलीय उम्मीदवार ही हासिल करते हैं
राजधानी लखनऊ से शुरुआत करें तो यहां कि 25 जिला पंचायत सीटों में से बीजेपी को सिर्फ तीन सीटें मिली हैं. वहीं समाजवादी पार्टी को 10 सीटें हासिल हुई हैं, बीएसपी को 7. राज्य में बीजेपी की सत्ता है और राजधानी में ही बीजेपी का इस तरह से हार जाना साफ तौर पर वोटर का मैसेज है. ज्यादातर पंचायत चुनाव में देखा जाता है कि जो पार्टी सत्ता में है उसी को ज्यादा सीटें हासिल होती हैं लेकिन इस बार बढ़ते कोरोना प्रकोप के बीच ये ट्रेंड ध्वस्त हुआ है और न सिर्फ लखनऊ, अयोध्या, प्रयागराज समेत दूसरे जिलों में भी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा है.
अवध क्षेत्र में आने वाले जिलों में समाजवादी पार्टी पहले स्थान पर है, बीजेपी दूसरे और बीएसपी तीसरे स्थान पर है.
गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गढ़ है और पूर्वांचल में उनका अलग दबदबा बताया जाता है. ऐसे में गोरखपुर में बीजेपी-एसपी में कड़ी टक्कर देखने को मिली है. दोनों ही पार्टियों को 20-20 सीटें मिल रही हैं. यहां पर आम आदमी पार्टी की खाता भी खुला है. अब गोरखपुर के आसपास के जिलों की बात करें, जहां पर सीएम योगी का दबदबा माना जाता है, वहां पर भी समाजवादी पार्टी आगे है. महाराजगंज, सिद्धार्थनगर, कुशीनगर, देवरिया, आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर समेत कई जिलों में समाजवादी पार्टी ने ज्यादें सीटें हासिल की हैं.
क्या ये बढ़ते कोरोना संक्रमण को रोक पाने में नाकाम 'सिस्टम' की वजह से है? या यूपी के ग्रामीण और शहरी इलाकों में किसान आंदोलन और दूसरे मुद्दों को लेकर सरकार पर भरोसा थोड़ा कम हुआ है?
यूपी की राजनीति में 'किसान आंदोलन' का कितना असर होगा? ये सवाल लगातार पूछा जाता रहा है. इसे नापने का मीटर साबित हुए हैं ये पंचायत चुनाव. जो जाट-मुस्लिम समीकरण टूट गए थे, बीएसपी के किले जो पिछले चुनाव में ध्वस्त हुए थे. वो एक बार फिर जुड़ते दिख रहे हैं. जिस तरह से राष्ट्रीय लोक दल ने किसान आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और समाजवादी पार्टी ने इसका साथ दिया. आरएलडी को यहां पर फायदा मिलता दिख रहा है. दावा है कि पार्टी को करीब 45 सीटों पर जीत मिली है. वहीं बीएसपी को भी यहां ठीक-ठाक सीटें मिलती दिख रही हैं, वो बीएसपी जिसने पिछले कुछ साल में अपना ये मजबूत गढ़ गंवा दिया है, एक बार फिर यहां से आस पार्टी को दिख सकती है.
बुंदेलखंड के लिए एक्सप्रेसवे से लेकर दूसरी योजनाएं लेकर आई योगी आदित्यनाथ सरकार को इस क्षेत्र में उम्मीद दिख सकती है. यहां पर पार्टी का प्रदर्शन दूसरी पार्टियों से बेहतर है. हालांकि, कई जिलों में बीजेपी-एसपी-बीएसपी में कड़े मुकाबले का दावा भी किया जा रहा है. कांग्रेस यहां भी असर दिखाने में पूरी तरह से नाकाम रही है.
आम आदमी पार्टी का ये पहला पंचायत चुनाव था. पार्टी काफी उत्साहित नजर आ रही है. पार्टी की तरफ से 80 से ज्यादा पंचायत सीट जीते जाने का दावा किया गया है. पार्टी ने एक सीट तो गोरखपुर में भी हासिल किया है. वहीं चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी की बात करें तो सहारनपुर, मुज्जफरनगर और बिजनौर जिले में सीटों पर जीत का पार्टी की तरफ से दावा किया गया है. ये बीएसपी के लिए थोड़ा परेशान करने वाली खबर हो सकती है. क्योंकि यहां पर आजाद समाज पार्टी का उभरना सीधा बहुजन समाज पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाला साबित हो सकता है.
सत्ता में होने के बावजूद पंचायत चुनाव में बीजेपी को मिले ऐसे झटके पर तमाम चुनाव पंडित अलग-अलग एनालिसिस करेंगे. लेकिन एक बात साफ है कि जिस तरीके से मार्च के आखिरी महीने में पंचायत चुनावों की तारीखों का ऐलान हुआ ये वही दौर था जब से यूपी में कोरोना वायरस संक्रमण के मामले बढ़ते गए. 26 मार्च को चुनाव की तारीखों का ऐलान हुआ उस दिन प्रदेश में 1032 डेली केस, 6 मौतें और 5824 एक्टिव केस दर्ज की गई थीं. 1 अप्रैल को ये बढ़कर 2600 हो गया.
अब इसी के बीच 15 अप्रैल को जिस दिन चुनाव का पहला चरण था, मामले बढ़कर 22439 हो गए. मतलब चुनाव की तारीखों के ऐलान से पहले चरण के चुनाव में प्रदेश ने वो दर्द भी देखा, जब उनके अपने बेड, ऑक्सीजन और अस्पताल में भर्ती होने के लिए दर-दर मिन्नतें मांग रहे थे. लखनऊ में बीजेपी को पंचायत चुनाव में महज 3 सीट मिलें हैं, ये वही लखनऊ है जहां पिछले तकरीबन एक महीने से लगातार ऑक्सीजन की कमी तो बेड की कमी से मौत की खबरें सामने आ रही हैं. इसके अलावा वाराणसी, प्रयागराज, गोरखपुर, कानपुर जैसे शहरों में भी आपने कोरोना वायरस और सिस्टम की मार से तड़पते लोगों की रिपोर्ट्स देखी होंगी.
कुल मिलाकर पंचायत चुनाव में जब लोग वोट डालने गए तो शायद उन्होंने ये मंजर याद रखा और नतीजा सामने है.
किसान आंदोलन के प्रभाव ने भी कुछ हद तक चुनाव को प्रभावित किया होगा. पश्चिमी यूपी के नतीजे इस बात की गवाही देते हैं. जाट-मुस्लिम के जिस समीकरण की बात पश्चिमी यूपी में की जाती रही है वो मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से खत्म होती दिखी, इन चुनावों में उस गठबंधन को एक तरह का 'फेविकोल' मिलता दिख रहा है.
कुल मिलाकर ये नतीजे बताते हैं कि बीजेपी को अगर सत्ता बचानी है तो गंभीर तरीके से लोगों की मुसीबतों, मुद्दों को देखना समझना पड़ सकता है.
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